श्वेता पुरोहित। ज्योतिषाचार्य डॉ. भोजराज द्विवेदी द्वारा लिखित ‘आचार्य वराहमिहिर का ज्योतिष में योगदान’ पुस्तक के कुछ अंश अप्राकृतिक उपद्रवो-उत्पातों के बारे में वराहमिहिर की अवधारणा एकदम स्पष्ट है। वे कहते हैं- “मनुष्यों के अविनय से पाप इकट्ठे होते हैं, उन पापों से उपद्रव होते हैं। दिव्य आन्तरिक्ष और भौमादि ग्रहों के उत्पात उन उपद्रवों को सूचित करते हैं। अप्रसन्न देवतागण इन उत्पातों को उत्पन्न करते हैं। जिसके निवारण के लिये राजा को शान्ति करानी चाहिये।”
शिवालय की भूमि पर गोदोहन, कोटि संख्यक (रुद्र) हवन, गाय, अन्न, पृथ्वी और सुवर्ण के दान कैसे भी दिव्य उत्पात हों शान्त हो जाते हैं। अग्नि जनित विकार की शान्ति के लिये आक की लकड़ी, सरसों और घृत से अग्नि में हवन करना चाहिये। ब्राह्मणों को सुवर्ण दक्षिणा देकर तृप्त करना चाहिये। इस तरह अशुभ फल की शांति होती है।
जल सम्बन्धी विकार होने पर वरुण-मन्त्रों से पूजा, जाप और हवन करने से अशुभ फल का निवारण हो जाता है ।
उत्पाताध्याय के अन्त में वराहमिहिर एक बहुत ही सुन्दर वाक्य कहते हैं कि गणित को नहीं जानने वाले मनुष्य भी पूर्वोक्त उत्पातों को जानकर यशस्वी और राजा के प्रिय होते हैं। यह मुनि का वचन गोपनीय कहा गया है, जिसको जानकर मनुष्य त्रिकालदर्शी हो जाता है।
उत्पातों का कारण व फल
उत्पात किसे कहते हैं- उत्पातों की व्याख्या करते हुये वराहमिहिर कहते हैं कि देवमूर्ति या देवस्थानों का बिना कारण फटना, अचानक उल्कापात, दिग्दाह, भयंकर वायु या धूलि संघात, यात्रा के गाड़ी का उलटना, बिना बादल के बरसात, विकारयुत वायु के साथ वृष्टि, विना अग्नि की ज्वाला, रात्रि को इन्द्रधनुष दिखाई देना, सन्ध्या में विकार, वन में रहने वाले का गांव में आना, अचानक वृक्ष की शाख टूट कर गिर जाना, एक जाति के पशु का दूसरी जाति के पशु के साथ मैथुन करना, आकाश में तुरही का बजना, ऋतुओं के विपरीत लक्षण दिखाई देना तथा प्रकृति के विरुद्ध अनहोनी घटनाओं के घटित होने को उत्पात कहते हैं।
उत्पातों का फल-
शिवलिंग, देवमूर्ति और देवस्थानों का बिना कारण फटना, कम्पन होना, उनमें पसीना आना, उनका रोना, गिरना, उनमें शब्द होना (उनका वमन करना और खिसकना) राजा व राज्य के लिए कष्टदायक है।” जिस राजा के राज्य में बिना अग्नि ज्वाला दिखाई दे और काष्ठ युत प्रज्वलित न हो तो उस राजा और देश को पीड़ा होती है।” देवगृह (प्रासाद) घर, तोरण या ध्वज अग्नि के बिना ही बिजली से दग्ध हो जाये तो छः माह बाद निश्चय ही अन्य राजा की सेना का आगमन होता है।” रात्रि के समय मेघरिहत आकाश में नक्षत्रों का अदर्शन और दिन में दर्शन हो तो अधिक भयकारी होता है।”
उल्कापात का वर्णन
हम प्रायः आकाश में किसी चमकीले तारे को टूट कर गिरता हुआ देखते है, वस्तुतः यह उल्का है, जो चमकीले कण-से बिखेरती हुई-सी पृथ्वी तल पर बड़े-बड़े कोयले या राख की आकृति में गिरती है। वराहमिहिर ने:
१. धिष्ण्या
२. उल्का
३. अशनि
४. बिजली
५. तारा
इन पाँच भेदों में उल्का को विभाजित किया। उल्का १५ दिन में, धिष्ण्या १५ दिन में, अशनि तीन पक्ष (पैंतालिस दिन) में, बिजली छः दिन में, इसी तरह तारा छः दिन में फल देती है ।”
उल्का के आकृति भेद-
आकृति भेद से उल्कापात के शुभ व अशुभ दोनों प्रकार के फल कहे हैं। उल्का यदि प्रेत, शस्त्र, गधा, ऊँट, बन्दर, सूअर, हल, मृग, गोह, साँप, धूम के समान या दो सिर वाली हो तो ये सभी आकृतियाँ पाप फल देने वाली अशुभ होती हैं।
इसके विपरीत ध्वज, मत्स्य, हाथी, पर्वत, कमल, चन्द्रमा, घोड़ा, बिखरी हुई धूल, हंस, श्रीवृक्ष, वज्र (हीरा), शंख, या स्वस्तिक रूप वाली उल्का दिखाई दे तो लोगों का कुशल और सुभिक्ष करती है।
उल्का गिरने का स्थान
उल्का यदि देवता की मूर्ति पर गिरे तो राजा और राष्ट्र को भय, इन्द्र ध्वज के ऊपर गिरे तो राजाओं को भय और घर पर गिरे तो गृहपति को पीड़ित करती है। दिक्पति ग्रह यदि उल्का से हत हो तो उस दिशा में रहने वाले मनुष्यों को, खलिहान (खेत) में गिरे तो किसानों को और छोटे मन्दिर के पास के वृक्ष पर उल्का गिरे तो पूज्य व्यक्तियों को पीड़ित करती है। पुरद्वार पर यदि उल्का गिरे तो पुर का, द्वार के किंवाड़ पर गिरे, तो पुरवासियों का, ब्रह्मा के मन्दिर पर गिरे तो ब्राह्मणों का और गोष्ठ (गायों के स्थान) पर गिरे तो गायों का पालन करने वाले ग्वालों का नाश होता है।
महर्षि नारद ने भी उपरोक्त रीति से पांच प्रकार की उल्काओं का विस्तार से वर्णन किया है। वराहमिहिर एवं नारद के वचनों में काफी साम्यता है। नारद ने आकृति व भेद के अतिरिक्त मृदु, दारुण, उग्र, मिश्र संज्ञक नक्षत्रों के भेद से, स्थिर, क्षिप्र व चर संज्ञक नक्षत्रों के भेद से, जिस नक्षत्र में उल्कापात हो, उस नक्षत्र के अधिपति देवता एवं देव, मनुष्य व राक्षसगण के भेद से अलग-अलग फलादेश निर्दिष्ट किये हैं।”