फ़िल्में सांप-सीढ़ी का खेल होती हैं। अच्छी फिल्म किसी एक्टर को रातोरात सितारा बना देती है तो कोई बहुत खराब फिल्म शिखर पर बैठे सितारे को नीचे ला फेंकती हैं। दबंग-3 सलमान खान के लिए ‘सांप-सीढ़ी’ का वह सांप बन गई, जिसने उन्हें सौवें अंक से उतारकर शून्य पर पहुंचा दिया है। फिल्म देखते हुए मुझे सलमान में छुपी ‘इन्सिक्युरिटी’ की झलक मिली। कॅरियर के उतार को मनःपूर्वक स्वीकार करने की अपेक्षा वे इससे जूझ रहे हैं। दबंग-3 की सफलता के लिए उन्होंने सब कुछ दांव पर लगा दिया लेकिन ‘पांसे’ बेईमान निकले। असफलताएं संकेत दे रही हैं कि वे या तो गरिमापूर्ण विदाई लें या नए सितारों द्वारा धकियाए जाए।
85 करोड़ के बजट से बनी दबंग-3 को सेटेलाइट अधिकार लगभग 75 करोड़ में बिके हैं। वीकेंड में लगभग साठ करोड़ का कारोबार हो चुका है। आंकड़ों के हिसाब से फिल्म बॉक्स ऑफिस पर विजेता बन जाएगी। ये वहीं बात हुई कि सलमान खान के नाम पर पैकेजिंग कर के दर्शकों को कूड़ा परोस दिया जाएगा और जब तक ये बात फैलेगी कि फिल्म कंटेंट के नाम पर ‘खोखा’ है, तब तक कूड़ा न केवल लागत वसूल कर लेगा, बल्कि उस पर अच्छा-खासा लाभ भी कमा लेगा। थियेटर में महसूस हुआ कि पहले दिन जैसी कोई उत्तेजना सलमान के प्रशंसकों में नहीं दिखाई दी। हमने अमिताभ, अनिल कपूर जैसे ख्यात सितारों की विदाई ऐसे ही होती देखी है।
एएसपी चुलबुल पांडे का जीवन आराम से चल रहा होता है, जब तक कि उसकी जिंदगी में एक पुराने दुश्मन बाली सिंह की एंट्री नहीं हो जाती। बाली उसकी पुरानी मोहब्बत ‘ख़ुशी’ का हत्यारा है और एक खूंखार अपराधी भी। बाली सिंह राजनीति में कदम रखता है और दो पुराने दुश्मन फिर टकराते हैं। फिल्म में लगभग आधे घंटे का फ्लैशबैक है, जिसमे ख़ुशी के रूप में सई मांजरेकर ने डेब्यू किया है। बताया गया है कि धाकड़ पांडे कैसे एक पुलिस वाला बनता है। प्लॉटअस्सी के दशक की फ़िल्मी कहानियों का है। ऐसी फ़िल्में बेशक मनोरंजन के लिए ही बनाई जाती थी लेकिन तकलीफ ये है कि ये अस्सी का दशक नहीं है, जब ऐसी ‘फूलिश’ फ़िल्में ब्लॉकबस्टर हो जाता करती थी। उन फिल्मों की कहानियों में भी तर्क होता था लेकिन दबंग की तीसरी किश्त तर्क का भी गला घोंट देती है।
दबंग-3 हर क्षेत्र में भटकाव का शिकार हुई है। बेमजा एक्शन सीक्वेंस, नीरस संगीत, अफलातूनी निर्देशन फिल्म की बुरी गत बना देता है। सोच रहा हूँ इस बेमतलब के तमाशे में अच्छी बात क्या रही। कुछ अच्छा है तो वह है किच्चा सुदीप की मौजूदगी। उनको छोड़कर हर कलाकार औसत दर्जे का रहा है। सई मांजरेकर ने शुरुआत में ही अपने कॅरियर पर ग्रहण लगा लिया है। सबसे बुरा अगर है तो विनोद खन्ना के गेटअप में एक दूसरे कलाकार को लाना। इस तरह की कोशिश फिल्म की भव्यता को आहत करती है। दक्षिण भारतीय फिल्मों की नकल का एक्शन देखकर आप सिर न धुन ले तो कहना। चुलबुल एक घूंसे में दरवाजे में गोल छेद बना देता है। कहानी को स्वाभाविक आकार लेने देना चाहिए लेकिन ये बात प्रभुदेवा को कौन समझाए।
आप बार-बार नाकाम इसलिए हो चले हैं क्योंकि आप हर कहानी को अपने इर्द-गिर्द चाहते हैं। आप चाहते हैं कहानियां आपको देखकर लिखी जाए। आप किरदार नहीं बनना चाहते, मसीहा बनना चाहते हैं। अक्षय कुमार, अजय देवगन की प्रासंगिकता अब तक इसलिए ही कायम है क्योंकि वे किरदारों को जीते हैं। उन्होंने अपनी सुपर सितारा इमेज से बाहर आना सीख लिया है लेकिन सलमान खान को एक किरदार बनने में दिक्कत है। वे ‘मेट्रिक्स’ बनकर सब काबू में कर लेना चाहते हैं। दर्शक कभी भी आपकी एक अदा या आपकी एक फाइट देखने के लिए आपकी फिल्म को हिट नहीं बनाता है। वह आपकी अच्छी फिल्म देखना चाहता है, जिसमे आपने बेहतरीन किरदार निभाया हो।
दबंग-3 के लिए टिकट मत कटाइये। ये ढाई घंटे का सिरदर्द है और कुछ नहीं। सलमान खान को अब चरित्र भूमिकाओं में आना चाहिए क्योंकि केंद्रीय भूमिकाओं के लिए वे अनफिट हो चले हैं। चेहरे से उम्र झलकने लगी है। अब वे रोमांस करते नहीं भाते हैं। उनके चेहरे से वह रवानी गायब है, जिसके लिए वे जाने जाते हैं। बुढ़ापा दस्तक दे रहा है। बड़े ब्रांड के विज्ञापन अब उन्हें नहीं मिलते। अब उनकी फिल्मों से वह भीड़ भी छंट चुकी है। फिल्म उद्योग बहुत निर्मम है। उसने अमिताभ जैसे सितारों को शिखर से उतार फेंका, तो सलमान क्या चीज है। मेरे ख्याल में मुख्य अभिनेता के तौर पर सलमान खान की विदाई हो चुकी है।
सटीक समीक्षा