हुसैन ज़ैदी एक ख्यात पत्रकार और लेखक हैं। उनकी किताब ब्लैक फ्राइडे पर बनी फिल्म अनुराग कश्यप ने निर्देशित की थी। उन्ही हुसैन ज़ैदी की एक किताब ‘क्लास ऑफ़ 83 : द पनिशर्स ऑफ़ मुंबई पुलिस’ पर शाहरुख़ खान के रेड चिली प्रोडक्शन की फिल्म ‘क्लास ऑफ़ 83’ ओटीटी पर रिलीज की गई है। एक साहसिक किताब पर शाहरुख़ खान ने एक कायराना फिल्म बनाई है, जिसमे वे मोस्ट वांटेड सरगना दाऊद इब्राहिम कास्कर का नाम लेने से डर गए हैं। दाऊद ही क्यों, उन्होंने किसी कुख्यात गैंगस्टर का असली नाम फिल्म में प्रयोग नहीं किया है। सत्य कथाओं में हेरफेर कर उसे प्रदूषित करने का श्रेष्ठ उदाहरण ये फिल्म प्रस्तुत करती है।
अस्सी के दशक में मुंबई दाऊद इब्राहिम और छोटा राजन गैंग की मुठभेड़ों की खैर से आए दिन कांपता रहता था। एक कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी अरविंद इनामदार ने इस आतंक को ख़त्म करने का निश्चय किया। उन्होंने पुलिस ट्रेनिंग स्कूल में ऐसी स्क्वॉड तैयार की, जो सिस्टम में रहते हुए दाऊद और राजन की गैंग को साफ़ कर दे।
हुसैन ज़ैदी की इस किताब में ख्यात एनकाउंटर स्पेशलिस्ट प्रदीप शर्मा के एनकाउंटर्स का भी अच्छा-खासा विवरण दिया गया है। इस किताब की कहानी फिल्म निर्माता शाहरुख़ खान को पसंद आ गई और उन्होंने तय कर लिया कि वे इस पर एक वास्तविकता भरी फिल्म बनाएँगे। फिल्म निर्माताओं को सच्ची कहानियां बदलकर परदे पर प्रस्तुत करने में महारत हासिल हो गई है।
उन्हें ये भी ध्यान रखना होता है कि कहानी में ऐसा घालमेल किया जाए कि सबसे पहले फिल्म व्यावसायिक रूप से सुरक्षित हो जाए। इसके बाद फिल्म निर्माताओं को इस बात की फ़िक्र होती है कि दाऊद इब्राहिम पर फिल्म बनाने से पहले उनसे एनओसी ले ली जाए। यदि भाई पाकिस्तान में बैठकर एनओसी नहीं दे, तो फिर कैरेक्टर का नाम बदलने के सिवाय और कोई चारा नहीं बचता है।
निर्देशक अतुल सभरवाल की इस फिल्म में हुसैन ज़ैदी की कहानी का सार लेकर घटनाओं का ताना-बाना बुना गया है। दाऊद इब्राहिम कास्कर का नाम फिल्म में कास्लेकर कर दिया गया है। छोटा राजन का नाम नायर कर दिया गया है। अरविंद इनामदार का नाम बदलकर विजय सिंह कर दिया गया है।
अब जब आप ये फिल्म देखते हैं तो निर्माता-निर्देशक की बेईमानी पर गौर किये हुए नहीं रह पाते। जब आप मुंबई पर आधारित गैंग वॉर फिल्म में असली नाम प्रयोग नहीं करते तो दर्शक को वह फीलिंग ही नहीं आती। दरअसल ये फिल्म बेईमानीपूर्वक बनाने के साथ एक भटकी हुई फिल्म भी है।
जब आप वास्तविक दस्तावेजी फिल्म बनाते हैं तो उसमे मुंबइया स्टाइल का क्लाइमैक्स रखने से ये समझ आता है कि निर्माता को फिल्म चलाने की भी फ़िक्र है। इसलिए ही वह स्क्रिप्ट में मनगढंत तथ्य डालता है। जैसे दाऊद भारत से सन 1986 में ही फरार हो चुका था लेकिन फिल्म में उसे भारत वापस आते दिखाया गया है।
फिल्म में यदि कुछ अच्छा है तो वह तकनीकी है। पुरानी मुंबई के दृश्य देखते हुए ऐसा लगता है मानो अस्सी के दशक के पुराने कैमरे के शूट देख रहे हो। फिल्म के आर्ट डाइरेक्टर ने अपना काम बखूबी किया है। उसने दाऊद के नाम की तरह पुराना माहौल बदलने की कोशिश नहीं की है।
बॉबी देओल ओटीटी प्लेटफॉर्म पर एंट्री लेते ही मुश्किल में आ गए हैं। उनकी एक फिल्म ‘आश्रम’ विवादों में फंस गई है और दूसरी फिल्म ‘क्लॉस ऑफ़ 83’ ने इस मंच पर दम तोड़ दिया है। उन्होंने विजय सिंह की भूमिका बहुत शिद्द्त से निभाई है लेकिन उनका ये दमदार अभिनय इस कमज़ोर फिल्म के लिए बैसाखियाँ नहीं बन सकेगा। बॉबी एक प्रभावी अभिनेता हैं लेकिन खान खेमे के साथ रहने के कारण उनको व्यावसायिक रूप से बहुत नुकसान हो रहा है।
शाहरुख़ खान वास्तविक कथाओं में झूठ पिरोकर भयंकर अपराध कर रहे हैं। वे एक कर्मठ पुलिस अधिकारी की कहानी उठाते हैं लेकिन उनका असली नाम नहीं देते। फिल्म में छोड़िये क्रेडिट में भी उन अधिकारी का नाम नहीं आता।
वे दाऊद की कहानी में दाऊद का नाम उड़ाकर एक काल्पनिक पात्र डाल देते हैं। वे एक मुस्लिम चरित्र को निष्ठावान बताते हैं और बाकियों को रिश्वतखोर बना देते हैं। क्लास ऑफ़ 83 दरअसल वेस्ट ऑफ़ सिनेमेटिक पॉवर सिद्ध होती है। ये फिल्म शाहरुख़ खान की नीयत को भी अच्छी तरह दर्शाती है।
मुझे दुःख है कि जब तक सरकार इस मामले में कोई कड़ा कानून बनाने के बारे में सोचेगी, तब तक तो शाहरुख़ खान जैसे निर्माताओं के हाथ हमारे ध्वज और हमारे पौराणिक चरित्रों तक पहुँच चुके होंगे। इस फिल्म को देखना समय और पैसे की बर्बादी है और दर्शक को इन दोनों की ही बर्बादी ऐसी फिल्म देखने में नहीं करनी चाहिए, जो सच्ची कहानियों को बेचने के लिए उसमे झूठ की शराब मिलाते हैं।