श्वेता पुरोहित। महाभारत महाकाव्य में वैवाहिक पर्व में, जब राजा ध्रुपद को अपनी पुत्री द्रौपदी का विवाह 5 राजकुमारों से करने में संकोच हो रहा था तब ऋषि वेदव्यास जी ने राजा ध्रुपद को पांडवों और पांचाली के पूर्व जन्म के सन्दर्भ में यह कहानी सुनाई और आश्वस्त किया कि पाँच पांडव वास्तव में इंद्र ही हैं।
व्यासजी ने कहा – पांचालनरेश ! पूर्व काल की बात है, नैमिषारण्य क्षेत्रमें चन्द्रमा, इन्द्र, वरुण, कुबेर, साध्यगण, रुद्रगण, वसुगण, दोनों अश्विनीकुमार तथा अन्य सब देवता लोग एक यज्ञ कर रहे थे। एक दिन वे सभी महाबली देवगण गंगाजी में स्नान करनेके लिये गये और वहाँ तटपर बैठे। उसी समय उन्हें भागीरथी के जलमें बहता हुआ एक कमल दिखायी दिया।
उसे देखकर वे सब देवता चकित हो गये। उनमें सबसे प्रधान और शूरवीर इन्द्र उस कमल का पता लगाने के लिये गंगाजी के मूल स्थान की ओर गये। गंगोत्तरी के पास, जहाँ गंगा देवी का जल सदा अविच्छिन्न रूप से झरता रहता है, पहुँचकर इन्द्र ने एक अग्नि के समान तेजस्विनी युवती देखी।
वह युवती वहाँ जलके लिये आयी थी और भगवती गंगा की धारा में प्रवेश करके रोती हुई खड़ी थी। उसके आँसुओं का एक-एक बिन्दु, जो जल में गिरता था, वहाँ सुवर्णमय कमल बन जाता था।
यह अद्भुत दृश्य देखकर वज्रधारी इन्द्रने उस समय उस युवती के निकट जाकर पूछा-‘भद्रे तुम कौन हो और किसलिये रोती हो? बताओ, मैं तुमसे सच्ची बात जानना चाहता हूँ’।
युवती बोली- देवराज इन्द्र मैं एक भाग्यहीन अबला हूँ; कौन हूँ और किसलिये रो रही हूँ, यह सब तुम्हें ज्ञात हो जायगा। तुम मेरे पीछे-पीछे आओ, मैं आगे-आगे चल रही हूँ। वहाँ चलकर स्वयं ही देख लोगे कि मैं किस लिये रोती हूँ।
व्यासजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर आगे आगे जाती हुई उस स्त्रीके पीछे-पीछे उस समय इन्द्र भी गये। गिरिराज हिमालय के शिखर पर पहुँचकर उन्होंने देखा- पास ही एक परम सुन्दर तरुण पुरुष सिद्धासन से बैठे हैं, उनके साथ एक युवती भी है। इन्द्र ने उस युवती के साथ उन्हें क्रीड़ा-विनोद करते देखा।
वे अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों से क्रीड़ा में अत्यन्त तन्मय हो रहे थे, अतः इधर-उधर उनका ध्यान नहीं जाता था। उन्हें इस प्रकार असावधान देख देवराज इन्द्र ने कुपित होकर कहा- ‘महानुभाव! यह सारा जगत् मेरे अधिकार में है, मेरी आज्ञा के अधीन है; मैं इस जगत् का ईश्वर हूँ’।
इन्द्र को क्रोध में भरा देख वे देवपुरुष हँस पड़े। उन्होंने धीरे से आँख उठाकर उनकी ओर देखा। उनकी दृष्टि पड़ते ही देवराज इन्द्र का शरीर स्तम्भित हो गया (अकड़ गया)। वे ठूठे काठकी भाँति निश्चेष्ट हो गये।
जब उनकी वह क्रीड़ा समाप्त हुई, तब वे उस रोती हुई देवी से बोले-‘इस इन्द्रको जहाँ मैं हूँ, यहीं मेरे समीप ले आओ, जिससे फिर इसके भीतर अभिमान का प्रवेश न हो’।
तदनन्तर उस स्त्री ने ज्यों ही इन्द्र का स्पर्श किया, उनके सारे अंग शिथिल हो गये और वे धरती पर गिर पड़े। तब उग्र तेजस्वी भगवान् रुद्रने उनसे कहा- ‘इन्द्र! फिर किसी प्रकार भी ऐसा घमंड न करना।
“तुममें अनन्त बल और पराक्रम है, अतः इस गुफा के दरवाजे पर लगे हुए इस महान् पर्वतराज को हटा दो और इसी गुफा के भीतर घुस जाओ, जहाँ सूर्य के समान तेजस्वी तुम्हारे जैसे और भी इन्द्र रहते हैं।
उन्होंने उस महान् पर्वत की कन्दराका द्वार खोलकर उसमें अपने ही समान तेजस्वी अन्य चार इन्द्रों को भी देखा। उन्हें देखकर वे बहुत दुःखी हुए और सोचने लगे-‘कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि मैं भी इन्हीं के समान दुर्दशा में पड़ जाऊँ’।
तब पर्वत पर शयन करने वाले महादेवजी ने आँखें। तरेरकर कुपित हो वज्रधारी इन्द्र से कहा- शतक्रतो! तुमने मूर्खता वश पहले मेरा अपमान किया है, इसलिये अब इस कन्दरा में प्रवेश करो’। उस पर्वत शिखर पर भगवान् रुद्रके यों कहनेपर देवराज इन्द्र पराभवकी आशंका से अत्यन्त दुःखी हो गये, उनके सारे अंग शिथिल पड़ गये और हवासे हिलने वाले पीपल के पत्ते की तरह वे थर-थर काँपने लगे ।
वृषभवाहन भगवान् शंकर के द्वारा इस प्रकार सहसा गुहाप्रवेश की आज्ञा मिलने पर काँपते हुए इन्द्र ने हाथ जोड़कर उन अनेक रूपधारी उग्रस्वरूप रुद्रदेव से कहा- ‘जगधोने! आप ही समस्त जगत्की उत्पत्ति करने वाले आदिपुरुष हैं’ तब भयंकर तेज वाले रुद्रने हँसकर कहा ‘तुम्हारे जैसे शील-स्वभाव वाले लोगों को यहाँ प्रसाद की प्राप्ति नहीं होती। ये लोग भी पहले तुम्हारे ही जैसे थे, अतः तुम भी इस कन्दरा में घुसकर शयन करो।
‘वहाँ भविष्य में निश्चय ही तुम लोग ऐसे ही होनेवाले हो तुम सबको मनुष्य योनि में प्रवेश करना पड़ेगा। उस जन्म में तुम अनेक दुःसह कर्म करके बहुतों को मौत के घाट उतारकर पुनः अपने शुभ कर्मों द्वारा पहले से ही उपार्जित पुण्यात्माओं के निवासयोग्य इन्द्रलोक में आ जाओगे। मैंने जो कुछ कहा है, वह सब कुछ तुम्हें करना होगा। इसके सिवा और भी नाना प्रकार के प्रयोजनों से युक्त कार्य तुम्हारे द्वारा सम्पन्न होंगे’ ।
पहले के चारों इन्द्र बोले – भगवन्! हम आपकी आज्ञा के अनुसार देवलोक से मनुष्यलोक में जायेंगे, जहाँ दुर्लभ मोक्ष का साधन भी सुलभ होता है। परंतु वहाँ हमें धर्म, वायु, इन्द्र और दोनों अश्विनीकुमार-ये ही देवता माता के गर्भ में स्थापित करें। तदनन्तर हम दिव्यास्त्रोंद्वारा मानव- वीरों से युद्ध करके पुनः इन्द्रलोक में चले आयेंगे।
व्यासजी कहते हैं – राजन्! पूर्ववर्ती इन्द्रों का यह वचन सुनकर वज्रधारी इन्द्रने पुनः देवश्रेष्ठ महादेवजी से इस प्रकार कहा- ‘भगवन्! मैं अपने वीर्य से अपने ही अंशभूत पुरुष को देवताओं के कार्य के लिये समर्पित करूँगा, जो इन चारों के साथ पाँचवाँ होगा। उसे मैं स्वयं ही उत्पन्न करूँगा। विश्वभुक् भूतधामा, प्रतापी इन्द्र शिबि चौथे शान्ति और पाँचवें तेजस्वी- ये ही उन पाँचों के नाम हैं।
उग्र धनुष धारण करनेवाले भगवान् रुद्रने उन सबको उनकी अभीष्ट कामना पूर्ण होनेका वरदान दिया, जिसे वे अपने साधुस्वभावके कारण भगवान् के सामने प्रकट कर चुके थे। साथ ही उस लोककमनीया युवती स्त्री को, जो स्वर्गलोक की लक्ष्मी थी, मनुष्यलोक में एवमेते उनकी पत्नी निश्चित की।
श्री कृष्ण और बलराम का जन्म
तदनन्तर उन्हीं के साथ महादेवजी अनन्त, अप्रमेय, अव्यक्त, अजन्मा, पुराणपुरुष, सनातन, विश्वरूप एवं अनन्तमूर्ति भगवान् नारायण के पास गये।
उन्होंने भी उन्हीं सब बातों के लिये आज्ञा दी तत्पश्चात् वे सब लोग पृथ्वीपर प्रकट हुए। उस समय भगवान् नारायण ने अपने मस्तक से दो केश निकाले, जिनमें एक श्वेत था और दूसरा श्याम वे दोनों केश यदुवंश की दो स्त्रियों-देवकी तथा रोहिणी के भीतर प्रविष्ट हुए। उनमें से रोहिणी के बलदेव प्रकट हुए, जो भगवान् नारायण का श्वेत केश थे; दूसरा केश, जिसे श्याम वर्ण का बताया गया है, वही देवकी के गर्भ से भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट हुआ ।
उत्तरवर्ती हिमालय की कन्दरा में पहले जो इन्द्रस्वरूप पुरुष बंदी बनाकर रखे गये थे, वे ही चारों पराक्रमी पाण्डव यहाँ विद्यमान हैं और साक्षात् इन्द्र का अंशभूत जो पाँचवाँ पुरुष प्रकट होने वाला था, वही पाण्डुकुमार सव्यसाची अर्जुन है।
राजन्! इस प्रकार ये पाण्डव प्रकट हुए हैं, जो पहले इन्द्र रह चुके हैं। यह दिव्यरूपा द्रौपदी वही स्वर्गलोक की लक्ष्मी है, जो पहले से ही इनकी पत्नी नियत हो चुकी है। महाराज यदि इस कार्य में देवताओं का सहयोग न होता तो तुम्हारे इस यज्ञ कर्म द्वारा यज्ञवेदी की भूमि से ऐसी दिव्य नारी कैसे प्रकट हो सकती थी, जिसका रूप सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाश बिखेर रहा है और जिसकी सुगन्ध एक कोस तक फैलती रहती है।
नरेन्द्र! मैं तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक एक और अद्भुत वरके रूपमें यह दिव्य दृष्टि देता हूँ। इससे सम्पन्न होकर तुम कुन्ती के पुत्रों को उनके पूर्वकालिक पुण्यमय दिव्य शरीरों से सम्पन्न देखो।
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय। तदनन्तर परम उदार कर्म वाले पवित्र ब्रह्मर्षि व्यासजी ने अपनी तपस्या के प्रभाव से राजा द्रुपद को दिव्य दृष्टि प्रदान की, जिससे उन्होंने समस्त पाण्डवों को पूर्व शरीरों से सम्पन्न वास्तविक रूप में देखा ।
वे दिव्य शरी रसे सुशोभित थे। उनके मस्तक पर सुवर्णमय किरीट और गले में सुन्दर सोने की माला शोभा पा रही थी। उनकी छबि इन्द्र के ही समान थी। वे अग्नि और सूर्य के समान कान्तिमान् थे। उन्होंने अपने अंगों में।
सब तरह के दिव्य अलंकार धारण कर रखे थे। उनकी युवावस्था थी तथा रूप अत्यन्त मनोहर था उन सबकी छाती चौड़ी थी और वे तालवृक्ष के समान लंबे थे। इस रूपमें राजा द्रुपद ने उनका दर्शन किया।
वे दिव्य निर्मल वस्त्रों, उत्तम गन्धों और सुन्दर मालाओं से अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे तथा साक्षात् त्रिनेत्र महादेव, वसुगण, रुद्रगण अथवा आदित्य गणों के समान तेजस्वी एवं सर्वगुण सम्पन्न दिखायी देते थे ।
चारों पाण्डवों को परम सुन्दर पूर्व कालिक इन्द्रों के रूप में तथा इन्द्रपुत्र अर्जुन को भी इन्द्र के ही स्वरूप में देखकर उस अप्रमेय दिव्य मायापर दृष्टिपात करके राजा द्रुपद अत्यन्त प्रसन्न एवं आश्चर्य चकित हो उठे।
उन राजराजेश्वर ने अपनी पुत्री को भी सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी, अत्यन्त रूपवती और साक्षात् चन्द्रमा तथा अग्निके समान प्रकाशित होने वाली दिव्य नारी के रूपमें देखा। साथ ही यह मान लिया कि द्रौपदी रूप, तेज और यश की दृष्टि से अवश्य उन पाण्डवों की पत्नी होने योग्य है। इससे उन्हें महान् हर्ष हुआ ।
यह महान् आश्चर्य देखकर द्रुपदने सत्यवतीनन्दन व्यासजी के चरण पकड़ लिये और प्रसन्नचित्त होकर उनसे कहा- महर्षेि! आप में ऐसी अद्भुत शक्ति का होना आश्चर्य की बात नहीं है।’ तब व्यासजी प्रसन्नचित्त हो द्रुपद से बोले।
द्रौपदी का पूर्व जन्म
व्यासजी ने कहा- राजन्! (अपनी पुत्रीके एक और जन्मका वृत्तान्त भी सुनो-) एक तपोवन में किसी महात्मा मुनि की कोई कन्या रहती थी। सती-साध्यी एवं रूपवती होने पर भी उसे योग्य पतिकी प्राप्ति नहीं हुई॥
उसने कठोर तपस्या द्वारा भगवान् शंकर को संतुष्ट किया; महादेवजी प्रसन्न हो साक्षात् प्रकट होकर उस मुनि कन्या से बोले- ‘तुम मनोवांछित वर ।
उनके यों कहने पर उस मुनि कन्या ने वरदायक महेश्वर से बार-बार कहा ‘मैं सर्वगुण सम्पन्न पति चाहती हूँ’ ।
देवेश्वर भगवान् शंकर प्रसन्नचित्त होकर उसे वर देते हुए बोले-‘भद्रे ! तुम्हारे पाँच पति होंगे’
यह सुनकर उसने महादेवजी को प्रसन्न करते हुए महाराज द्रुपद! वही यह देवसेवित सुन्दरी देवी ही अपने ही कर्मसे पाँच पुरुषोंकी एक ही पत्नी नियत की गयी है। स्वयं ब्रह्माजीने इसे देवस्वरूप पाण्डवों को पत्नी होने के लिये रचा है। यह सब सुनकर तुम्हें जो
पुनः यह बात कही-‘शंकरजी! मैं तो आपसे एक गुणवान् पति प्राप्त करना चाहती हूँ’।
तव देवाधिदेव महादेवजी ने मन-ही-मन अत्यन्त संतुष्ट होकर उससे यह शुभ वचन कहा- ‘भद्रे ! तुमने ‘पति दीजिये’ इस वाक्यको पाँच बार दुहराया है: इसलिये मैंने जो पहले कहा है, वैसा ही होगा, तुम्हारा कल्याण हो किंतु तुम्हें दूसरे शरीर में प्रवेश करने पर यह सब होगा’।
द्रुपद! वही मुनि कन्या तुम्हारी इस दिव्यरूपिणी पुत्री के रूप में फिर उत्पन्न हुई है। अतः यह पृषत वंशकी सती कन्या कृष्णा पहले से ही पाँच पतियों की पत्नी नियत की गयी है।
यह स्वर्गलोक की लक्ष्मी है, जो पाण्डवों के लिये तुम्हारे महायज्ञ में प्रकट हुई है। इसने अत्यन्त घोर तपस्या करके।
महाराज द्रुपद! वही यह देवसेवित सुन्दरी देवी अपने ही कर्म से पाँच पुरुषों की एक ही पत्नी नियत की गयी है। स्वयं ब्रह्माजी ने इसे देवस्वरूप पाण्डवों की पत्नी होने के लिये रचा है।
इस प्रकार ऋषि वेद व्यास जी ने राजा ध्रुपद को पांचाली के पांडवों के साथ विवाह के लिए आश्वस्त किया । ये विवाह शिव जी ने द्रौपदी और पाण्डु पुत्रों के पूर्व जन्म में ही निश्चित कर दिया था।
ॐ नमः शिवाय 🙏🔱🌷