फिल्म रिव्यू:जेएल 50
ये फिल्म देखने के बाद मुझे इस बात की तसल्ली हुई कि भारतीय फिल्म निर्देशक अब साइंस कथाओं के साथ खेलना सीख गए हैं। कुछ तथ्यात्मक त्रुटियों को एक तरफ रख दिया जाए तो जेएल50 के चार अध्याय रूचि जगाते हैं। 1984 में रहस्यमयी ढंग से लापता हुआ एक विमान 2019 में वापस आकर क्रेश हो जाता है। बहुत से यात्री मारे जाते हैं। एक प्रोफेसर और एक पॉयलट इस दुर्घटना में जीवित बचे हैं। एक सीबीआई अधिकारी शांतनु को इस केस पर लाया गया है।
शांतनु जब जाँच शुरू करता है तो उसे पता चलता है कि कलकत्ता में एक प्रोफेसर ने समय में यात्रा करने का कोड ब्रेक कर दिया था। वह कोड उसे एक प्राचीन भारतीय किताब के पन्नों से मिला था।
हॉलीवुड साइंस फिक्शन बनाने में अग्रणी माना जाता है। वह एलियन, टाइम ट्रेवल, प्राकृतिक आपदाओं, अंतरिक्ष यात्राओं पर फ़िल्में बना चुका है। हॉलीवुड की प्रवीणता इस बात में है कि वह इस श्रेणी की फिल्मों में रहस्य का जाल बुनने में रिसर्च लेवल तक जाता है। फिल्म की स्क्रिप्ट के लिए शोध करना अभी बॉलीवुड के निर्देशकों को बेकार का काम लगता है।
जेएल50 में रहस्य का ताना-बाना दिलचस्प ढंग से बुना गया है। समय की यात्रा को लेकर जो तर्क दिए गए हैं, वे उसी तरह स्वीकार्य हैं, जैसे हम हॉलीवुड की फिल्मों को देखकर स्वीकार कर लेते हैं। प्रोफेसर ने टाइम मशीन नहीं बनाई है, बल्कि वे कोआर्डिनेट्स खोज लिए हैं, जहाँ समय यात्रा करने के लिए वर्महोल बने हुए हैं। शांतनु के अतीत का सत्य भी इसी समय यात्रा से जुड़ा हुआ है। वह जानना चाहता है कि एक खास तारीख को क्या हुआ था।
फिल्म में तकनीकी त्रुटियां हैं। फिल्म निर्देशक शैलेन्द्र व्यास को पता होना चाहिए कि वर्म होल से यात्रा करने के लिए भी आधुनिक उपकरणों की आवश्यकता होती है, जो फिल्म में नहीं दिखाए जाते। समय की यात्रा करने वाला अतीत में जाकर स्वयं को छू नहीं सकता। ये प्रकृति के नियमों का उल्लंघन होगा।
प्रोफेसर को कैसे मालूम था कि वर्म होल से पार जाने पर वह भविष्य में ही पहुंचेगा। संभव है वह अतीत में चला जाए। समय यात्रा पर फिल्म बनाने से पहले विस्तृत शोध की आवश्यकता इसलिए ही होती है। हालांकि निर्देशक ने रहस्यों का जाल सुंदर ढंग से बनाया है। फिल्म में आखिरी तक रुचि बनी रहती है। फिल्म की कॉस्ट भी अच्छी है।
इस बचकाना प्रयास को देखने का एक अच्छा कारण फिल्म की स्टार कॉस्ट भी है। पंकज कपूर, पीयूष मिश्रा, अभय देओल, रितिका आनंद, राजेश शर्मा का अभिनय सराहनीय है। पंकज कपूर तो खैर अभिनय के रत्न हैं ही।
निर्देशक ने इस वेब सीरीज के चारों अध्याय ऐसे बनाए हैं कि दर्शक एंगेज हो जाता है। समय यात्रा पर फिल्म बनाने के लिए बड़ा बजट चाहिए होता है क्योंकि वीएफएक्स के बिना काम नहीं चलता। शैलेन्द्र व्यास की तारीफ इसलिए होनी चाहिए कि कम बजट में वे आंशिक रूप से ऐसा करने में सफल रहे हैं।
एक दिलचस्प फिल्म होने के बावजूद ये बड़े थियेटर पर नहीं चलती। क्योंकि ऐसी फिल्मों में भव्यता चाहिए होती है, स्पेशल इफेक्ट्स चाहिए होते हैं। हालांकि निर्देशक ने एक सुगठित स्क्रीनप्ले बनाकर इस कमी को पूरा करने का प्रशंसनीय प्रयास अवश्य किया है।