यवन-तुर्क-मुगल से लेकर आधुनिक लोकतंत्र तक, सबसे पहले बिकने और ‘धर्म’ छोड़ने वाले ‘सरकारी हिंदू’ ही रहे हैं!
इतिहास देखिए! अधिकांश लड़ाई में तत्कालीन समाज के ‘सरकारी हिंदू’ (मनसब, राय बहादुर, रियासत, खबरी, एजेंट, द्रोही, राजाश्रय प्राप्त नेता आदि) उस समय के समाज नहीं, बल्कि सरकारों के साथ ही खड़े मिले हैं। ‘सरकारी हिंदुओं’ का ध्येय आरंभ से ही ‘सरकारी चाकरी’ और ‘क्षुद्र स्वार्थ’ रहा है।
धर्म पर मर-मिटने वाले हिंदू हमेशा ही कम संख्या में रहे हैं। परंतु धर्म की रक्षा भी उन थोड़े सनातनियों के कारण ही संभव हुई है। ‘जनेऊ तौलवा’ कर लोगों ने धर्म बचाया है, न कि ‘मनसब’ प्राप्त कर!
अतः स्वयं को सक्षम सनातनी हिंदू बनाएं, क्योंकि शास्त्रों का आदेश है- धर्मो रक्षति रक्षित:। अर्थात् नष्ट हुआ धर्म ही नाश करता है और रक्षित किया धर्म ही रक्षा करता है।