श्वेता पुरोहित। श्रीराम का भरत को कुशल-प्रश्नके बहाने राजनीति का उपदेश करना
श्री वाल्मीकि रामायण, अयोध्या कांड (१०० सर्ग)
स कच्चिद् ब्राह्मणो विद्वान् धर्मनित्यो महाद्युतिः ।
इक्ष्वाकूणामुपाध्यायो यथावत् तात पूज्यते ॥
‘तात! क्या तुम सदा धर्म में तत्पर रहनेवाले, विद्वान्, ब्रह्मवेत्ता और इक्ष्वाकुकुलके आचार्य महातेजस्वी वसिष्ठजीकी यथावत् पूजा करते हो?
कच्चिद्देवान् पितृन् भूत्यान्गुरून् पितृसमानपि ।
वृद्धांश्च तात वैद्यांश्च ब्राह्मणांश्वाभिमन्यसे ॥
‘तात ! क्या तुम देवताओं, पितरों, भृत्यों, गुरुजनों, पिताके समान आदरणीय वृद्धों, वैद्यों और ब्राह्मणोंका सम्मान करते हो?
कच्चित् सहस्त्रैर्मूखाणामेकमिच्छसि पण्डितम् ।
पण्डितो ह्यर्थकृच्छ्रेषु कुर्यान्निःश्रेयसं महत् ॥
‘क्या तुम सहस्रों मूखोंके बदले एक पण्डित को ही अपने पास रखनेकी इच्छा रखते हो ? क्योंकि विद्वान् पुरुष ही अर्थसंकटके समय महान् कल्याण कर सकता है।
सहस्राण्यपि मूखणां यद्युपास्ते महीपतिः ।
अथवाप्ययुतान्येव नास्ति तेषु सहायता ॥
‘यदि राजा हजार या दस हजार मूखाँ को अपने पास रख ले तो भी उनसे अवसर पर कोई अच्छी सहायता नहीं मिलती।
कच्चिन्मुख्या महत्स्वेव मध्यमेषु च मध्यमाः ।
जघन्याश्च जघन्येषु भृत्यास्ते तात योजिताः ॥ २५ ॥
‘तात ! तुमने प्रधान व्यक्तियोंको प्रधान, मध्यम श्रेणीके मनुष्योंको मध्यम और छोटी श्रेणीके लोगोंको छोटे ही कामोंमें नियुक्त किया है न ?’
अमात्यानुपधातीतान् पितृपैतामहान् शुचीन् ।
श्रेष्ठान् श्रेष्ठेषु कच्चित् त्वं नियोजयसि कर्मसु ॥
‘जो घूस न लेते हों अथवा निश्छल हों, बाप दादों के समय से ही काम करते आ रहे हों तथा बाहरभीतरसे पवित्र एवं श्रेष्ठ हों, ऐसे अमात्योंको ही तुम उत्तम कार्योर्मे नियुक्त करते हो न ?
कच्चिन्नोग्रेण दण्डेन भृशमुद्वेजिताः प्रजाः ।
राष्ठे तवावजानन्ति मन्त्रिणः कैकयीसुत ॥
‘कैकेयीकुमार! तुम्हारे राज्यकी प्रजा कठोर दण्डसे अत्यन्त उद्विग्र होकर तुम्हारे मन्त्रियोंका तिरस्कार तो नहीं करती ?
कच्चिन्न लोकायतिकान् ब्राह्मणांस्तात सेवसे ।
अनर्थकुशला ह्येते बालाः पण्डितमानिनः ॥
‘तात! तुम कभी नास्तिक ब्राह्मणोंका संग तो नहीं करते हो? क्योंकि वे बुद्धिको परमार्थकी ओरसे विचलित करनेमें कुशल होते हैं तथा वास्तवमें अज्ञानी होते हुए भी अपनेको बहुत बड़ा पण्डित मानते हैं।
धर्मशास्त्रेषु मुख्येषु विद्यमानेषु दुर्बुधाः ।
बुद्धिमान्वीक्षिकीं प्राप्य निरर्थं प्रवदन्ति ते ॥
‘उनका ज्ञान वेदके विरुद्ध होनेके कारण दूषित होता है और वे प्रमाणभूत प्रधान-प्रधान धर्मशास्त्रोंके होते हुए भी तार्किक बुद्धिका आश्रय लेकर व्यर्थ बकवाद किया करते हैं ।
कच्चिदार्योऽपि शुद्धात्मा क्षारितश्चापकर्मणा ।
अदृष्टः शास्त्रकुशलैर्न लोभाद् बध्यते शुचिः ॥
‘कभी ऐसा तो नहीं होता कि कोई मनुष्य किसी श्रेष्ठ, निर्दोष और शुद्धात्मा पुरुषपर भी दोष लगा दे तथा शास्त्रज्ञान में कुशल विद्वानों द्वारा उसके विषयमें विचार कराये बिना ही लोभवश उसे आर्थिक दण्ड दे दिया जाता हो ?
गृहीतश्चैव पृष्टश्च काले दृष्टः सकारणः ।
कच्चिन्न मुच्यते चोरो धनलोभान्नरर्षभ ॥
‘नरश्रेष्ठ! जो चोरीमें पकड़ा गया हो, जिसे किसीने चोरी करते समय देखा हो, पूछताछसे भी जिसके चोर होनेका प्रमाण मिल गया हो तथा जिसके विरुद्ध (चोरीका माल बरामद होना आदि) और भी बहुत-से कारण (सबूत) हों, ऐसे चोरको भी तुम्हारे राज्यमें धनके लालचसे छोड़ तो नहीं दिया जाता है?
व्यसने कच्चिदाढयस्य दुर्बलस्य च राघव ।
अर्थं विरागाः पश्यन्ति तवामात्या बहुश्रुताः ॥
‘रघुकुलभूषण! यदि धनी और गरीबमें कोई विवाद छिड़ा हो और वह राज्यके न्यायालयमें निर्णयके लिये आया हो तो तुम्हारे बहुज्ञ मन्त्री धन आदिके लोभको छोड़कर उस मामले पर विचार करते हैं ना?
यानि मिथ्याभिशस्तानां पतन्त्यश्रूणि राघव ।
तानि पुत्रपशून् जन्ति प्रीत्यर्थमनुशासतः॥
‘रघुनन्दन! निरपराध होनेपर भी जिन्हें मिथ्या दोष लगाकर दंड दिया जाता है, उन मनुष्यों की आंखों से जो आँसू गिरते हैं, वे पक्षपातपूर्ण शासन करनेवाले राजाके पुत्र और पशुओंका नाश कर डालते हैं ।
कच्चिद् दुर्गाणि सर्वाणि धनधान्यायुधोदकैः ।
यन्त्रैश्च प्रतिपूर्णानि तथा शिल्पिधनुर्धरैः ॥
‘क्या तुम्हारे सभी दुर्ग (किले) धन-धान्य, अस्त्र-शस्त्र, जल, यन्त्र (मशीन), शिल्पी तथा धनुर्धर सैनिकोंसे भरे-पूरे रहते हैं?
कच्चिदर्थेन वा धर्ममर्थं धर्मेण वा पुनः ।
उभौ वा प्रीतिलोभेन कामेन न विबाधसे ॥
‘तुम अर्थके द्वारा धर्मको अथवा धर्मके द्वारा अर्थको हानि तो नहीं पहुँचाते? अथवा आसक्ति और लोभरूप कामके द्वारा धर्म और अर्थ दोनोंमें बाधा तो नहीं आने देते ?
कच्चित् ते ब्राह्मणाः शर्म सर्वशास्त्रार्थकोविदाः ।
आशंसन्ते महाप्राज्ञ पौरजानपदैः सह ॥
‘महाप्राज्ञ ! सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थको जाननेवाले ब्राह्मण पुरवासी और जनपदवासी मनुष्योंके साथ तुम्हारे कल्याणकी कामना करते हैं न ?
नास्तिक्यमनृतं क्रोधं प्रमादं दीर्घसूत्रताम् ।
अदर्शनं ज्ञानवतामालस्यं पञ्चवृत्तिताम् ॥
नास्तिकता, असत्य-भाषण, क्रोध, प्रमाद, दीर्घसूत्रता, ज्ञानी पुरुषोंका संग न करना, आलस्य, नेत्र आदि पाँचों विचार करना, प्रयोजनको न समझनेवाले विपरीतदर्शी प्रारम्भ न करना, गुप्त मन्त्रणाको सुरक्षित न रखकर प्रकट कर देना, माङ्गलिक आदि कार्योंका अनुष्ठान न करना तथा सब शत्रुओंपर एक ही साथ चढ़ाई कर देना-ये राजाके चौदह दोष हैं। तुम इन दोषोंका सदा परित्याग करते ही न?
कच्चित् ते सफला वेदाः कच्चित् ते सफलाः क्रियाः।
कच्चित्ते सफला दाराः कच्चित्ते सफलं श्रुतम् ॥
‘क्या तुम वेदोंकी आज्ञाके अनुसार काम करके उन्हें सफल करते हो? क्या तुम्हारी क्रियाएँ सफल (उद्देश्यकी सिद्धि करनेवाली) हैं? क्या तुम्हारी स्त्रियाँ भी सफल (संतानवती) हैं? और क्या तुम्हारा शास्त्रज्ञान भी विनय आदि गुणोंका उत्पादक होकर सफल हुआ है ? ॥
कच्चिदेषैव ते बुद्धिर्यथोक्ता मम राघव ।
आयुष्या च यशस्या च धर्मकामार्थसंहिता ॥
‘रघुनन्दन! मैंने जो कुछ कहा है, तुम्हारी बुद्धिका भी ऐसा ही निश्चय है न? क्योंकि यह विचार आयु और यशको बढ़ानेवाला तथा धर्म, काम और अर्थकी सिद्धि करनेवाला है।
यां वृत्तिं वर्तते तातो यां च नः प्रपितामहः ।
तां वृत्तिं वर्तसे कच्चिद या च सत्पथगा शुभा॥
‘हमारे पिताजी जिस वृत्तिका आश्रय लेते हैं, हमारे प्रपितामहोंने जिस आचरणका पालन किया है, सत्पुरुष भी जिसका सेवन करते हैं और जो कल्याणका मूल है, उसीका तुम पालन करते हो न ?
राजा तु धर्मण हि पालयित्वा महीपतिर्दण्डधरः प्रजानाम्।
अवाप्य कृत्स्त्रा वसुधा यथाव-दितश्च्युतः स्वर्गमुपैति विद्वान् ॥
‘इस प्रकार धर्म के अनुसार दण्ड धारण करनेवाला विद्वान् राजा प्रजाओंका पालन करके समूची पृथ्वीको यथावत् रूपसे अपने अधिकारमें कर लेता है तथा देहत्याग करनेके पश्चात् स्वर्गलोकमें जाता है’।
प्रभु श्री राम के अपने छोटे भाई भरत को दिए हुए इस राजनीति के उपदेश को आज के समय की राजनीतिक व्यवस्था के साथ मूल्यांकन करके देखने और विचार करने की आवश्यकता है।
सियावर राम चंद्र की जय