
प्रभु जी तुम दीपक हम बाती, जाकी ज्योति बरै दिन-राती’ का वास्तविक अर्थ!
कमलेश कमल. कबीर के समकालीन ही बनारस में एक ऐसे समदर्शी संत हुए, जिनके भक्ति परक अवदान पर तो कार्य हुआ है, लेकिन बौद्धिक-चिंतन और समतामूलक समाज के स्थापन हेतु प्रयासों पर अपेक्षाकृत कम काम हुआ है।
ऊंच-नीच की भावना और ईश्वर भक्ति के नाम पर विवाद आदि का अपने तरीके से जैसा सौम्य विरोध रैदास ने किया; वह न केवल प्रणम्य है; अपितु अनुकरणीय भी है। निश्चय ही, भारतीय समाज के ताने-बाने को अक्षुण्ण रखने हेतु आज भी ऐसे प्रयासों की महती आवश्यकता है।
“प्रभु जी तुम दीपक हम बाती, जाकी ज्योति बरै दिन-राती।”
अब इस पंक्ति को अनन्य भक्ति और समर्पण के चश्मे से तो खूब देखा गया है, लेकिन क्या हमने यह देखने की कोशिश की है कि अपने युग से कहीं आगे रविदास इसमें कितने तार्किक और आधुनिक चिंतन से संपृक्त हैं?
प्रभु अगर दीपक हैं,-तो हम बाती हैं। हम प्रभु से असंपृक्त नहीं हैं, वरन् अन्योन्याश्रित हैं।
हम उनपर निर्भर हैं, तो वे भी हम पर निर्भर हैं। हमारे माध्यम से ही उनकी कीर्ति, उनकी ज्योति फैलती है। हम नहीं हैं तो बात ही ख़त्म!
जैसे मालिक का अस्तित्व तभी है, जब नौकर हो। राजा का अस्तित्व तभी है, जब प्रजा भी हो, माता-पिता का अस्तित्व तभी है, जब संतान हो। इसी तरह परमात्मा की महत्ता तो आत्मा के अस्तित्व से ही समुद्घाटित हो सकती है। इस तरह इस पद में रैदास एक परस्परता का, परस्पर-निर्भरता का संबंध-स्थापन करते प्रतीत होते हैं।
इस पद में निराकार ब्रह्म की उपासना भी है, तो ज्ञान योग के सूत्र भी हैं। ईश्वरीय सत्ता हमारे माध्यम से ही प्रकट हो सकती है, यह हमें याद रहे…ऐसा इस पद का स्थापन है।
ईश्वर हममें ही विराजमान है, अन्यत्र कोई सत्ता है ही नहीं। तो,यह दास्य भाव का पद नहीं है, इसमें तो अन्योन्याश्रित संबंध का भाव है।
दीपक तब तक जलता है, जब तक उसमें तेल रहे। बाती तब तक अक्षुण्ण रहती है, जब तक तेल रहे। तो, इस पद का एक अर्थ हुआ कि जब तक परमात्मा की कृपा है, तब तक आत्मा है। और, इसे ऐसे भी देख सकते हैं, जब तक परमात्मा का अस्तित्व है, आत्मा का अस्तित्व है। अब चूँकि परमात्मा अजर अमर है, तो आत्मा भी अजर अमर है। तेल समाप्त नहीं हो सकता है, तो बाती भी जल कर नष्टप्राय नहीं होगी।
ज्योति ज्ञान का प्रतीक है। हममें से परम् ज्ञान की ज्योति फैले, यह अभीष्ट है। और अगर हम परमात्मा रूपी दीपक की बाती हैं, तो लघुता का भाव क्यों रक्खें? सतत् ज्ञानयोग में रत रहें, यही काम्य है। ऐसी भावदशा स्वयमेव ही ऊँच-नीच और विषमतामूलक भावों का निरसन कर देती है।
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