
Movie Review: आशावादी भारतीय दर्शक कभी दुखांत देखना नहीं चाहता
विपुल रेगे। निर्देशक तिग्मांशु धुलिया की वेब सीरीज ‘द ग्रेट इंडियन मर्डर’ न केवल बुरी तरह पिटी है, बल्कि उसको नकारात्मक समीक्षाओं का भी सामना करना पड़ रहा है। लेखक विकास स्वरुप के उपन्यास ‘सिक्स सस्पेक्ट्स’ पर आधारित ये मर्डर मिस्ट्री अपने अधूरेपन और ढीले ट्रेक के कारण असफल हो गई। अपितु कैरेक्टर बिल्डिंग में ये सीरीज प्रभावित करती है। लेकिन केवल कलाकारों के सुंदर अभिनय से फ़िल्में नहीं चला करती, ये कटु सत्य है।
उत्तरप्रदेश के गृहमंत्री के अय्याश बेटे की एक पार्टी में गोली मारकर हत्या कर दी गई है। इस हत्या में छह लोगों पर पुलिस को संदेह है। इनमे एक मामूली मोबाइल चोर है, जो पार्टी में था। एक अंडमान से आया आदिवासी है, जिसके कबीले की पवित्र मूर्ति चुराकर यहाँ लाई गई है। आदिवासी अपनी मूर्ति वापस लेने आया है। एक राजनीतिज्ञ भी है, जिसको मल्टीपल पर्सनाल्टी डिसऑर्डर का मानसिक रोग है।
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ये राजनीतिज्ञ कभी-कभी महात्मा गाँधी का रुप धर लेता है। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, कथाओं के सिरे खुलने लगते हैं और आपस में जुड़ने लगते हैं। संभव है कथानक को लेकर निर्देशक ने परिवर्तन किया हो। यहाँ कुछ पेंच अलग से दिखाई देते हैं। जैसे मंत्री अपने बेटे को मरवाने के लिए सुपारी देना चाहता है और उसका लाभ सत्ता के लिए उठाना चाहता है।
तिग्मांशु धुलिया ने स्टार्ट तो बहुत शानदार लिया है लेकिन जब इस रहस्य के सुलझने का समय आता है तो एक मरा हुआ क्लाइमेक्स दर्शक के हाथ में आता है। यहाँ नकारात्मकता और सकारात्मकता बहुत अधिक प्रभावित करते हैं। यदि कहानी का अंत नकारात्मक हो तो फिल्मों की व्यावसायिक सफलता प्रभावित हो जाती है। इस वेब सीरीज के अंत में अच्छाई को पराजित होते दिखाया गया है।
जिस आदिवासी के साथ न्याय होना था, वही सिस्टम का मोहरा बना दिया जाता है। उसके कबीले की मूर्ति कभी वापस नहीं जा पाती। ये एक दुखांत है और यही ट्रेजडिक अंत सीरीज को ले डूबा है। फिल्म में कुछ अच्छा है तो कलाकारों का अभिनय। ब्यूरोक्रेट मोहन कुमार की भूमिका में रघुवीर यादव सबसे प्रभावी अभिनेता सिद्ध होते हैं। मोबाइल चोर की भूमिका में शशांक अरोरा उभर कर दिखाई देते हैं।
शशांक का भविष्य फिल्म उद्योग में उज्ज्वल दिखाई देता है। अशोक राजपूत की भूमिका में शाकिब हाश्मी भी प्रभावित करते हैं। प्रतीक गाँधी को सीबीआई अधिकारी का किरदार नहीं देना चाहिए था। वे इस कैरेक्टर में किसी भी दृश्य में प्रभावित नहीं कर पाते। शबनम सक्सेना के किरदार के लिए पाउली दाम को लिया गया था। पाउली दाम की गिनती बंगाल फिल्म उद्योग की टॉप की अभिनेत्रियों में की जाती है।
तिग्मांशु उनके किरदार को उभार ही नहीं सके। ऋचा चड्ढा प्रभावित करती हैं। उनका अभिनय बहुत ही सरस रहा है। इस सीरीज में मोहन कुमार वाला अध्याय देखने योग्य है। मोहन कुमार एक भ्रष्ट और अय्याश नेता है। जब मनोचिकित्सक उसका उपचार सम्मोहन से करने की बात कहता है तो मोहन कुमार डरता है कि उसके जीवन की कालिख डॉक्टर के सामने प्रकट हो जाएगी।
तिग्मांशु ने इस किरदार को पेचीदगियों से गढ़ा है। यदि इस टीवी सीरीज का सुखांत किया जाता तो इसे बॉक्स ऑफिस पर सफलता मिल सकती थी। कुछ एपिसोड्स में वयस्क दृश्य दिखाए गए हैं। देखा जाए तो इन्हे जबरन ठूंसा गया है। इन दृश्यों का कहानी से कोई जुड़ाव नहीं दिखाई देता। इस वेब सीरीज का निचोड़ यही है कि यदि आप नौ एपिसोड्स दिखाने के बाद दर्शक को दुखांत में ले जाते हैं तो वह ठगा महसूस करता है। भारतीय दर्शक आशावादी है। वह कभी दुखांत देखना नहीं चाहता।
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