ओशो । एक बहुत सुन्दर कहानी है। एक महान दार्शनिक था, विचारक, जिसका नाम था वाचस्पति। वह अपने अध्ययन में बहुत ज्यादा व्यस्त था। एक दिन उसके पिता ने उससे कहा, अब मैं बूढ़ा हो चला और मैं नहीं जानता कि कब किस क्षण विदा हो जाऊँ! और तुम मेरे इकलौते बेटे हो तो मैं चाहता हूँ, तुम विवाहित हो जाओ। वाचस्पति अध्ययन में इतना ज्यादा डूबा हुआ था कि वह बोला, ‘ठीक है’, यह सुने बगैर कि उसके पिता क्या कह रहे हैं।
तो उसका विवाह हुआ, पर वह बिलकुल भूला रहा कि उसकी पत्नी थी, इतना डूबा हुआ था वह अपनी अध्ययनशीलता में।और यह केवल भारत में घट सकता है; यह कहीं और नहीं घट सकता। पत्नी उससे इतना अधिक प्रेम करती थी कि वह उसे अड़चन नहीं देना चाहती। तो यह कहा जाता है कि बारह वर्ष गुजर गये। वह छाया की भाँति उसकी सेवा करती, हर बात का ध्यान रखती, लेकिन वह जरा भी शांति भंग न करती। वह न कहती, ‘मैं भी हूँ यहाँ, और क्या कर रहे हो तुम?’
वाचस्पति लगातार एक व्याख्यान लिख रहा था जितनी व्याख्याएँ लिखी गयी हैं, उनमें से एक महानतम व्याख्या। वह बादरायण के ब्रह्म सूत्र पर भाष्य लिख रहा था और वह उसमें डूबा हुआ था, इतना ज्यादा, इतनी समग्रता से कि वह केवल अपनी पत्नी को ही नहीं भूला, उसे इसका भी भान (होश) नहीं था कि कौन भोजन लाया, कौन थालियाँ वापस ले गया, कौन आया शाम को और दीया जला गया, किसने उसकी शय्या तैयार की। इस तरह बारह वर्ष गुजर गये, और वह रात्रि आयी जब उसकी व्याख्या पूरी हो गयी थी। उसे अन्तिम शब्द भर लिखना था। और उसने प्रण किया हुआ था कि जब व्याख्या पूरी होगी, वह संन्यासी हो जायेगा। तब वह मन से संबंधित न रहेगा, और सब कुछ समाप्त हो जायेगा। यह व्याख्या उसका एकमात्र कर्म था, जिसे परिपूर्ण करना था।
उस रात वह थोड़ा विश्रान्त था क्योंकि उसने करीब बारह बजे अन्तिम वाक्य लिख दिया था पहली बार वह अपने वातावरण के प्रति सजग हुआ। दीया धीमा जल रहा था और अधिक तेल चाहिए था। एक सुन्दर हाथ उसमें तेल उड़ेलने लगा था। उसने पीछे देखा, यह देखने को कि वहाँ कौन था। वह नहीं पहचान सका चेहरे को, और बोला, तुम कौन हो और यहाँ क्या कर रही हो? पत्नी बोली, ‘अब जब आपने पूछ ही लिया है, तो मुझे कहना है कि बारह वर्ष पहले आपने मुझे अपनी पत्नी के रूप में ग्रहण किया था। लेकिन आप इतने डूबे हुए थे, अपने कार्य के प्रति इतने प्रतिबद्ध थे, कि मैं बाधा डालना या शांति भंग करना न चाहती थी।’
वाचस्पति रोने लगा, उसके अश्रु बहने लगे। पत्नी ने पूछा, ‘क्या बात है?’ वह बोला, ‘यह बहुत जटिल बात है। अब मैं धर्म संकट में पड़ घबरा गया हूँ, क्योंकि व्याख्या पूरी हो गयी है और मैं संन्यासी होने जा रहा हूँ। मैं गृहस्थ नहीं हो सकता; मैं तुम्हारा पति नहीं हो सकता। व्याख्या पूरी हुई और मैंने प्रतिज्ञा की है। अब मेरे लिए, कोई समय नहीं। मैं तुरन्त जा रहा हूँ। तुमने मुझसे पहले क्यों न कहा? मैं तुम्हें प्रेम कर सकता था। तुम्हारी सेवा, तुम्हारे प्रेम, तुम्हारी निष्ठा के लिए अब मैं क्या कर सकता हूँ?’
तो ब्रह्म सूत्र पर अपने भाष्य का उस ने नाम दिया ‘भामती’। भामती था उसकी पत्नी का नाम। बेतुका है नाम। बादरायण के ब्रह्म सूत्र के भाष्य को ‘भामती’ कहना बेतुका है। इस नाम का कोई सम्बन्ध जुड़ता नहीं। लेकिन उसने कहा, “अब कुछ और मैं कर नहीं सकता। अब केवल पुस्तक का नाम लिखना ही शेष है, अत: मैं इसे भामती कहूँगा जिससे कि तुम्हारा नाम सदैव याद रहे।”
उसने घर त्याग दिया। पत्नी रो रही थी, आँसू बहा रही थी, पर पीड़ा में नहीं, आनन्द में। वह बोली, ‘यह पर्याप्त है। तुम्हारी यह भावदशा, तुम्हारी आँखों में भरा यह प्रेम पर्याप्त है। मैंने पर्याप्त पाया, अत: अपराधी अनुभव न करें। जायें, मुझे बिलकुल भूल जायें। मैं आपके मन पर बोझ नहीं बनना चाहूँगी। मुझे याद करने की कोई आवश्यकता नहीं।’
यह सम्भव होता है। अगर तुम किसी चीज में सम्पूर्णता से डूबे होते हो, तो काम वासना तिरोहित हो जाती है। क्योंकि काम वासना सुरक्षा का एक उपाय है। जब तुम्हारे पास अप्रयुक्त ऊर्जा होती है, तब काम वासना तुम्हारे चारों ओर पीछा करती एक छाया बन जाती है। जब तुम्हारी समग्र ऊर्जा प्रयुक्त हो जाती है, कामवासना तिरोहित हो जाती है। और वह है अवस्था ब्रह्मचर्य की, वीर्य की, तुम्हारी सारी अंतर्निहित ऊर्जा के विकसित होने की।
ओशो (पतंजलि योगसूत्र)