दयानंद पांडेय । यह दो फ़ोटो हैं। एक प्रलेक प्रकाशन के जितेंद्र पात्रो की। जो भुवनेश्वर के हैं , मुंबई में रहना बताते हैं। दूसरे अतुल पुष्पार्थी हैं। गोरखपुर के हैं , अब दिल्ली में रहना बताते हैं। दोनों ही प्रकाशक हैं। हिंदी के चतुर प्रकाशक। पैसा ले कर पुस्तक छापने वाले। दोनों ही के शिकार ज़्यादातर सीनियर सिटीजन लोग होते हैं। पेंशनयाफ़्ता लोग। छपने के अभिलाषी लोग। उस में भी ज़्यादातर स्त्रियां। जितेंद्र पात्रो इस क्षेत्र में अभी नए हैं। अतुल पुष्पार्थी पुराने। बहुत पुराने। अतुल पुष्पार्थी कोई पंद्रह-बीस बरस पहले लखनऊ के एक पुस्तक मेले में मिले। बाद में घर भी आने लगे। किताब चाहते थे , छापने के लिए। तब बिना जाने कोई किताब किसी को देता नहीं था।
पर चित्रा मुदगल जी सहित कई लोगों की किताब दिखाई अतुल पुष्पार्थी ने। बहुत बढ़िया प्रोडक्शन था। अच्छा लगा। फिर अतुल जी ने गोरखपुर की भावनात्मकता का भी कार्ड चला। मैं ने उन से कहा कि एक उपन्यास लिख रहा हूं। पूरा होते ही दे दूंगा। लेकिन उपन्यास पूरा होता , उस के पहले ही अतुल पुष्पार्थी की कुख्याति सामने आ गई। लखनऊ से लगायत गोरखपुर तक के लेखक उन्हें खोजते फिर रहे थे। फोन वह उठाते नहीं थे। घर पर मिलते नहीं थे। अंतत: उन के घर पर ताला लगा मिला। ज़्यादातर लेखकों से पैसा और स्क्रिप्ट ले कर अतुल पुष्पार्थी फरार हो गए। लखनऊ में लोग मुझे पकड़ते कहते कि आप गोरखपुर के हैं कुछ कीजिए। स्त्रियां रोने लगतीं। पर अतुल श्रीवास्तव गोरखपुर में खोजे नहीं मिलते थे।
फिर कुछ समय बाद लौटे। फिर वही कहानी। फिर फरार। कई चक्र हो गए तो लोगों ने इन को दौड़ाना , मारना शुरु किया। लोग बताते हैं कि अब यह दिल्ली में कहीं रह रहे हैं। पर जितेंद्र पात्रो ने इन्हीं अतुल पुष्पार्थी को कथा-गोरखपुर का संपादक घोषित किया है। अतुल पुष्पार्थी ने अपने बेटे शैवाल के नाम से प्रकाशन खोला था। अब यही बेटा शैवाल शर्माता है कि वह अतुल पुष्पार्थी का बेटा है। एक बार शैवाल ने फ़ोन कर मुझ से किताब मांगी और अपने पिता के कुकृत्यों के लिए क्षमा मांगने लगे। मैं ने उन्हें बताया कि क्षमा मुझ से न मांगिए क्यों कि मैं ने उन्हें किताब कभी नहीं दी। पैसा किसी प्रकाशक को देता नहीं , पैसा लेता हूं। हां , हमारे कई परिचितों और मित्रों के पैसे और पांडुलिपि ले कर वह ज़रुर चंपत हो गए हैं।
शैवाल से कहा कि ज़रा अपने पिता जी से बात करवाएं। शैवाल ने कहा कि अब उन से हमारा या हमारे परिवार का कुछ लेना-देना नहीं। पता नहीं कहां रहते हैं। बहुत समय बाद अतुल पुष्पार्थी का नाम कल फिर उन के सहोदर जितेंद्र पात्रो की जुबान से सुनाई दिया। अतुल पुष्पार्थी का नाम जितेंद्र पात्रो से सुन कर वह एक पुरानी कहावत याद आ गई। राम मिलाए जोड़ी , एक अंधा , एक कोढ़ी। अतुल श्रीवास्तव ऊर्फ अतुल पुष्पार्थी के पिता अवधेश श्रीवास्तव गोरखपुर शहर से दो बार विधायक रहे हैं। सत्तर के दशक में। उन की छवि साफ़-सुथरी थी। पर बेटा अतुल श्रीवास्तव , अतुल पुष्पार्थी बन कर बदबू मारने लगा। इतना कि गोरखपुर में रहने लायक़ नहीं रह गया।
अब तो कई सारे वृद्ध लेखक दिवंगत हो चुके हैं। कुछ जीवित हैं पर न तब उन से पैसा वसूल करने लायक़ थे , न अब। संयोग देखिए कि अतुल पुष्पार्थी भी लखनऊ के पुस्तक मेले में मिले और जितेंद्र पात्रो भी लखनऊ के पुस्तक मेले में ही। दोनों ही घर आए और किताब मांगी। दोनों ने ही चित्रा मुद्गल जी की किताब दिखाई। आदरणीया चित्रा जी कृपया बुरा मत मानिएगा। अब यह महज़ संयोग है। कुछ और नहीं। अब तो खैर अतुल पुष्पार्थी ख़ुद भी वृद्ध हो गए हैं। जितेंद्र पात्रो ने तो ख़ैर दो दिन पहले ही फ़ेसबुक पर ब्लॉक कर , वाट्सअप ग्रुप से भी रिमूव कर गए। लेकिन आज जब आज अतुल पुष्पार्थी की फ़ेसबुक वाल देखी तो लॉक्ड थी। पर एक मित्र ने बदबू मारते अतुल पुष्पार्थी की यह फ़ोटो उपलब्ध करवा दी। तो सोचा आप मित्रों से कम से कम इस फ़ोटो से तो परिचित करवा ही दूं।
बता यह भी दूं कि प्रलेक प्रकाशन द्वारा कथा-गोरखपुर का संपादक बनाए गए अतुल पुष्पार्थी को गोरखपुर में कोई रचनाकार कहानी देना तो दूर , बात भी नहीं करेगा। इतना बदबू करते हैं , जनाब पुष्पार्थी , गोरखपुर में। और अगर ख़ुदा न खास्ता मेरे द्वारा इकट्ठी की गई कोई कहानी कथा-गोरखपुर में इस्तेमाल करेंगे तो सहयोगी लेखकों और उन के परिजनों के साथ मिल कर चार सौ बीसी में जेल का दरवाज़ा दिखा दूंगा। प्रकाशक और संपादक दोनों को।
यह लिख कर रख लीजिए। जितेंद्र पात्रो के झूठ और झांसे के बाबत जब से पोस्ट लिखी है , लखनऊ सहित देश के कई हिस्सों से लोग फ़ोन कर बता रहे हैं कि जितेंद्र पात्रो उन से पैसा और पाण्डुलिप ले कर गायब हैं। न किताब छाप रहे हैं , न पैसा वापस दे रहे हैं , न फोन उठा रहे हैं। इन सब का विवरण भी जल्दी ही साझा करुंगा , सप्रमाण। तब तक इस जोड़ी की फ़ोटो का आनंद लें। यह सिलसिला और सफ़र जब-तब जारी रहेगा। ताकि आगे लोग जागरुक रहें। ठगे न जाएं। लुटे नहीं इन और ऐसे चार सौ बीस प्रकाशकों से। दस-बीस-पचास किताबों का संस्करण छाप कर अमेज़न के मार्फ़त रैकेट चलाने वाले ऐसे प्रकाशकों की चांदी है। इस चांदी से बचें। क्यों कि चार दिन की चांदनी , फिर अंधेरी रात है।