मर्यादारक्षक भगवान राम मर्यादा-विध्वंसक व वेद-शास्त्र निन्दक व्यक्ति को कभी अपना भक्त स्वीकार नही करते हैं भले ही वह व्यक्ति भगवान राम के प्रति कितनी ही अपनी भक्ति, निष्ठा क्यों न जताए, दिखाए बल्कि ऐसे अधर्मी को वे दण्ड देने को उद्यत रहते हैं –
जब जाबालि (राजा दशरथ के ब्राह्मण मंत्री) ने राम को अपने पिता को दिए गए वचन की अवहेलना करके वन जाने से रोकने का प्रयास किया तो भगवान राम जाबालि से उनके द्वारा स्वयं को अपने वचन के प्रतिकूल वनगमन के लिये रोके जाने पर क्रोधित होकर बोले –
दत्तम् इष्टम् हुतम् चैव तपतानि च तपांसि च
वेदाः सत्य प्रतिष्ठानाः तस्मात् सत्य परो भवेत् ।।
(वाल्मीकि रामायण / अयोध्या काण्ड /
सर्ग 109/ श्लोक 14)
भावार्थ:
दान, यज्ञ, आहुति, तपस्या और शास्त्रों का आधार सत्य है इसलिए व्यक्ति को पूरी तरह से सत्य के प्रति समर्पण रहना चाहिए
कायेन कुरुते पापम् मनसा सम्प्रधार्य च
अनृतम् जिह्वया च अह त्रिविधम् कर्म पात्रम् ।।
(वाल्मीकि रामायण / अयोध्या काण्ड /
सर्ग 109/ श्लोक 21)
भावार्थ:
पाप मन से संकल्पित होकर शरीर द्वारा किया जाता है और असत्य जीभ से बोला जाता है;
इस प्रकार पातकी (पाप) कार्य तीन प्रकार के होते हैं मनसा , वाचा, कर्मणा (मन, वचन व शरीर से).
त्वत्तो जनाः पूर्वतरे वरश्चशुभानि कर्माणि बहुनि चक्रुः
चित्वा सादेमं च परमं च लोकं तस्माद्द्विजः स्वस्ति हुतं कृतं च ।।
(वाल्मीकि रामायण / अयोध्या काण्ड /
सर्ग 109/ श्लोक 35)
भावार्थ:
आपसे पहले जो मनुष्य जीवित थे, उन्होंने इस लोक और परलोक में पुरस्कार की सभी आशाओं को त्यागकर कई शुभ कार्य किए थे
इसलिए ब्राह्मण पवित्र अग्नि में आहुति देते हैं और अच्छे कर्म करते हैं
धर्मे रताः सत् पुरुषैः सम्मिलितः तेजस्विनो दान गुण प्रधानः
अहिंसा वीत मलाः च लोके भवन्ति पूज्या मनुष्यः प्रधानाः ।।
(वाल्मीकि रामायण / अयोध्या काण्ड /
सर्ग 109/ श्लोक 36)
भावार्थ:
जो साधु धर्म के प्रति समर्पित हैं, सद्गुणी पुरुषों के साथ संगति रखते हैं, आध्यात्मिक वैभव से संपन्न हैं, प्रचुर दान (विद्यादान, संपत्ति दान, अन्नदान आदि) का अभ्यास करते हैं, हानिरहित हैं और सभी कलंक से मुक्त हैं, उन्हें दुनिया में सम्मानित किया जाता है.
निन्दाम्यहं कर्म पितुः कृतं त द्यस्त्वम्गृह्णाद्विशमस्थबुद्धिम्
बुद्धियान्यायैवन्विधया चरन्तं सूनास्तिकं धर्मपथपेतम् ।।
(वाल्मीकि रामायण / अयोध्या काण्ड /
सर्ग 109/ श्लोक 33)
भावार्थ:
मेरे पिता ने आपको अपनी सेवा में लेकर जो भी (उचित, अनुचित) कृत्य किया हो, मैं आपको आपकी भ्रामक बुद्धि से सत्य मार्ग से गिरे हुए पक्के नास्तिक (‘वेद-शास्त्र द्रोही’ क्योंकि वेद-शास्त्र सत्य का अनुगमन करने की आज्ञा देते हैं) होने का दोषी मानता हूँ
(क्योंकि जाबालि ने राम को पिता को दिए हुए वचन को अनदेखा कर वनगमन से रोकने का प्रयत्न किया अर्थात राम को असत्य की ओर प्रवृत्त करने के उकसाया)
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमात्र विध्हि
तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानाम् न नास्ति केनाभिमुखो बुधः स्यात् ।।
(वाल्मीकि रामायण / अयोध्या काण्ड /
सर्ग 109/ श्लोक 34)
भावार्थ:
एक °नास्तिक (वेद-शास्त्र विरुद्ध) को केवल एक चोर के समान ही दंडित किया जाना चाहिए. किसी भी कारण से एक बुद्धिमान व्यक्ति को नास्तिक (वेद-शास्त्र निन्दक/विरुद्ध व्यक्ति) के साथ संबंध नहीं रखना चाहिए.
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°नास्तिक :
योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद्द्विजः ।
स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः ।
(मनुस्मृति/अध्याय 2/ श्लोक 11)
भावार्थ:
जो मनुष्य झूँठे और अनुचित तर्क द्वारा वेद और शास्त्रों का अनादर करता है, वह नास्तिक है, उसको साधु लोग अपनी मण्डली से बाहर कर दें ।
साभार अज्ञात