अजय शर्मा काशी। सनातन धर्मग्रंथों में वर्णित प्रसंग में भगवान् राम एवं भगवान् शंकर हनुमान जी से हनुमानजी की निष्काम पूजन विधि का वर्णन कहें जाने पर भगवान शंकर जी के आशीर्वचन पश्चात्–श्रीरामचन्द्रजी भी इस बात को सुनकर वहाँ उपस्थित शम्भुमुनि को सुन्दर वस्त्र तथा सुवर्ण के बहुमूल्य भूषणों को समर्पित किया, उसके बाद भोजन करके अपने मन्त्रियों अनेक मुनियों राजाओं तथा वानरों के साथ गौतमी नदी के तट पर बैठे हुए श्रीरामचन्द्रजी ने पुराण तत्त्व के ज्ञाता शम्भु मुनि से कहे कि आप ही सभी धर्मों के रहस्यों के ज्ञाता है।हे ब्रह्मन्। आप हमें बतलायें कि किस किस युग में किन-किन वस्तुओं का अधिक महत्त्व होता है–
रामोऽपि चैतदाकर्ण्य शम्भवे युग्ममार्पयत् ।
सुसूक्ष्मं बहुमूल्यं च स्वर्णभूषणमेव च ॥३९२
रामोऽपि चैतदाकर्ण्य शम्भवे युग्ममार्पयत् ।
सुसूक्ष्मं बहुमूल्यं च स्वर्णभूषणमेव च ॥३९२
अथ भुक्त्वा सुखासीनः सामात्यःस पुराहितः।
नानामुनिगणै भूपैर्वानरै गौतमी तटे ॥३९३
शम्भुं पुराणतत्त्वज्ञं राघवो वाक्यमब्रवीत् ।
त्वमेव सर्वं जानीषे सर्वधर्म गुहाशयम्।
कस्मिन्कस्मिन्युगे ब्रह्मन्कि विशिष्टं वदस्वमे ॥३९४
शम्भुमुनि ने कहा- सत्ययुग में ध्यान की विशेषता (महत्ता) होती है, त्रेता युग में यज्ञ का महत्त्व होता है ।द्वापर युग में पूजा का महत्त्व होता है और कलियुग में श्रीहरि के कीर्तन का महत्त्व होता है। सभी युगों में सवों की महत्ता होती है किन्तु कलियुग में ध्यान का महत्त्व नहीं होता है। मनुष्यों के अज्ञानी तथा कष्टापन्न होने के कारण उनकी बुद्धि धर्मों में या श्रुतियों में या स्मृतियों में निश्चल नहीं हो पाती है ,उनका मन न तो यज्ञ में लगता है, न श्राद्ध में लगता है और न पुराणों के सुनने में ही उनका मन लगता है। उनका मन न यज्ञ में, या न तीर्थ में, न सज्जनों की सेवा में ही लगता है। उनका मन देवताओं की पूजा अथवा अपने वर्णाश्रम के विहित कर्मों में भी नहीं लगता है। देवताओं के स्मरण करने में या धर्म में भी उनका मन नहीं लगता है अतएव कलियुग में दीर्घ काल में सम्पन्न होने वाले पुण्यों को करने में मनुष्य समर्थ नहीं है। थोड़े ही समय में सम्पन्न होने के कारण दान के ही करने में मनुष्य समर्थ है अतएव कलि के दोषों से दूषित मनुष्यों के लिए कोई भी प्रायश्चित नहीं। प्रायश्चित्तों के द्वारा कुछ लोगों के ही पापों का नाश सम्भव है–
ध्यानमेव कृते श्रेष्ठं त्रेतायां यज्ञ एव च।
द्वापरे चार्चनं तिष्ये दानं च हरिकीर्तनम् ॥ ३९५
सर्वं च शस्तं सर्वत्र ध्यानं न च कलौ युगे ।
नराणां मुग्धचित्तत्वात्कृच्छ्रस्थानां विशांपते ॥३९६
न धर्मे नियताबुद्धिर्न वेदेनैव च स्मृतौ ।
न क्रतौ न स्वधाकारे पुराणानां च न श्रुतौ ।।३९७
न यज्ञे न च तीर्थेषु न च शुश्रूषणे सताम् ।
नेज्यायां देवतानां च न स्वजातीयकर्मणि ॥३९८
न देवस्मरणेनापि न च क्वपि वृषे नृप ।
अतश्च दीर्घकालानां पुण्यानामक्षमा नराः ॥३९९
दानं तु स्वल्पकालत्वात्कर्तुं शक्नोति मानवः ।
अतश्च कलिदुष्टानां प्रायश्चित्तं न विद्यते ॥४००
केशाञ्चित्पापनाशः स्यात्प्रायश्चित्तैस्तु नान्यथा ।
ब्रह्मज्ञानी गयाश्राद्धी काशीगन्ता श्रुतौरतः ॥४०१
ब्रह्मज्ञानी, गया में जाकर श्राद्ध करने वाले, काशी जाने वाले, वेदाध्यन करने वाले तथा पुराणों के ज्ञाता तथा पुराणों का श्रवण करने वाले इन सबों के पापों का नाश हो जाता है , क्योंकि पुराणज्ञ युगों के अर्थ का विवेचन करते हैं, वे अपने तथा पराये का ज्ञान उत्पन्न करते हैं, परब्रह्म का ज्ञान उत्पन्न करते हैं । पुराण का प्रवक्ता ब्राह्मण सबों से श्रेष्ठ होता है। किन्तु वह भी यदि पापी हो जाय तो फिर कुछ भी सफल नहीं होता है ,कुछ दूसरे भी प्रकार के मनुष्यों के पापों का नाश पुराण करते हैं। जो पुराणों में विश्वास करते हैं, तथा पुराणों के वक्ता को गुरु मानते हैं तथा अपने जातियों तथा बंधुओं से भी विशेष ब्रह्मविद्या का उपदेश करने वाले को मानते हैं उन लोगों के समस्त पाप विनष्ट हो जाते हैं इसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं है ,किञ्च जो श्रीशैल पर जाकर शङ्करजी की पूजा करता है उसका भी पाप विनष्ट हो जाता है। फलतः कलियुग में पुराण मनुष्यों के पाप का विनाश करने वाले हैं–
पुराणज्ञावमाश्चैते श्रोता तस्य च राघवः ।
युगानामनुसारेण तथार्थस्य विवेचनात् ॥४०२
स्वपरप्रत्ययोत्पादात्परब्रह्म प्रकाशनात् ।
पुराणवक्ता सर्वस्माद्ब्राह्मणस्तु विशिष्यते ॥४०३
तेनापि च कृतं पापं न सज्येत्किमुतान्यतः।
अन्येषामपिकेषांचित्पुराणं पापनाशनम् ॥४०४
यःपुराणेषु विश्वासी वक्तारं मन्यते गुरुम् ।
ब्रह्मविद्या प्रदातारं विशिष्टं ज्ञातिबन्धुतः॥४०५
तस्य पापानि सर्वाणि विलयं यान्त्यसंशयम् ।
अथ श्रीशैलगमनं पूजकस्य महेशितुः ॥४०६
अतःकालौ मनुष्याणां पुराणं पापनाशनम् ।
पुरा कलियुगे राम वृत्तं सङ्कीर्तये श्रृणु ॥४०७
हे रामचन्द्रजी ! आप को मैं पहले के कलियुग का एक वृत्तान्त सुनाता हूँ उसे आप सुने । एक गौतम नामक ब्राह्मण था वह वेदो का ज्ञाता नहीं था उसका शरीर, उसके पशु तथा उसके दो पुष्ट भाई थे उसके दोनों भाई भी वेदज्ञ नहीं थे। वह अपने दोनों भाइयों के साथ मिलकर कृषि किया और वह धनवान हो गया उसके पश्चात् उसने थोड़ा सा धन-धान्य राजा को भी प्रदान किया। उसने राजा से कहा कि आप मुझे भी कुछ अधिकार प्रदान करें । मैं आपकी सम्पत्ति को बरबाद नहीं होने दूंगा, मेरे दो भाई बलवान् है–
आसीत्तु गौतमो नाम ब्राह्मणो वेदवर्जितः ।
तस्य पुष्टिः पशुश्चास्तां भ्रातरौ वेदवर्जिती ॥४०८
आभ्यां सह कृषिंचक्रे तत्र वृद्धिमवाप च ।
धनधान्यादिकं किंचिद्राज्ञेऽसौ दत्तवानथ ॥४०९
उवाच वचनं किंचिदधिकारं निरूपय ।
अर्थ न गमयिष्यामि तौ शक्तौ भ्रातरौ मम ॥४१०
राजा ने कहा- ब्राह्मण का वैदिक धर्म के ही कार्यों में अधिकार होता है ,उससे भिन्न कार्यों में उसको लगाने पर उसका ब्राह्मणत्व विनष्ट हो जाता है–
ब्राह्मणस्याधिकारो हि वैदिके धर्मकर्मणि ।
तदन्यत्र नियुक्तस्य ब्राह्मण्यं विप्रणश्यति ॥४११
गौतम ने कहा- यह धर्म दूसरे युगों का धर्म हैं, कलियुग में धर्म का स्वरूप वैसा नहीं हैं ।राजन् ! क्षत्रियों का धर्म भूपलत्व ही बतलाया गया है। जो ब्राह्मण अपनी वृत्ति से विहीन है, उसको भी राजा का कार्य करने में दोष नहीं लगता है ।कृषि करना तो शूद्रों का ही धर्म है, उसको ब्राह्मण को विपत्ति काल में भी नहीं करना चाहिए । अतएव मैं क्षत्रिय का ही कार्य (प्रशासन) करूँगा आप मुझे कुछ ग्रामों को दे दें। क्षत्रिय धर्म से भिन्न कार्य को करना मुझे अच्छा नहीं लगता है। ब्राह्मण के ऐसा कहने पर राजा ने उस ब्राह्मण को कुछ ग्रामों को दे दिया। ग्रमों का अधिकार प्राप्त करके दूषित हो जाने के बाद उस ब्राह्मण का व्यवहार बदल गया । वह मांस खाने लगा, सुरा (शराब) पीने लगा तथा दुष्टता पूर्वक वाणी भी बोलने लगा । वह बार-बार जुआ खेलता था और कलन आदि अभक्ष्य पदार्थों को भी खाने लगा और उसने जगत के स्वामी शिवजी की न तो पूजा की और न भगवान् विष्णु की उसने पूजा किया। इस तरह से दुर्वृत्त परायण उस ब्राह्मण को देखकर राजा ने कहा–
युगेष्वन्येषु धर्मोऽयं कलिधों न तादृशः ।
भूपतित्वं हि भूपाल नृपाणां धर्म उच्यते ॥४१२
ब्राह्मणश्च परिक्षीणस्तं कुर्वन्नैव दुष्यति ।
शूद्राणां तु कृषिर्द्धों नापद्यप्यग्रजन्मनः ॥४१३
तस्मात्क्षत्त्रेण वर्तिष्ये ग्रामान्मम समादिश।
अन्यत्र चात्र क्षात्त्रेण वर्तनं मम रोचते ॥४१४
अन्यन्नतु तथेत्युक्तो ददौ ग्रामान्द्विजन्मनः ।
ग्रामाधिकारदुष्टस्य वर्तनं त्वन्यथाऽ भवत् ।।४१५
अभक्षिमांसंचापायि सुरा चाभाषिदुर्वचः।।४१६
अकीडेद्यूतमसकृत्कलचंचाषि दुर्भुजा।
नापूजि जगतामीशः शिवो वा विष्णुरेव वा ॥४१७
एवं कालेन दुर्वृत्तं राजा वाक्यमभाषत।
विप्र विप्रत्वमुत्सृज्य शूद्रत्वं प्राप्तवानसि ॥४१८
राजा ने कहा–हे विप्र ! आप विप्रत्व का परित्याग करके शूद्र हो गये हैं अतएव में आपको इस प्रशासन के कार्य से भ्रष्ट कर रहा हूँ —
तस्मान्नियोगधर्मेण भवन्तं भ्रंशयामि च ।
माऽस्तु विप्रत्वमद्यैव शूद्रतैव वरं मम ॥४१९
इसके उपरांत भी उस ब्राह्मण को अपने ब्राह्मणत्व का भान न हुआ और वह राजा से तर्क वितर्क करने लगा ।
कृपया जाएं नही– #शम्भु मुनि ने कहा- ब्राह्मण के इस तरह कहने पर राजा मौन हो…. क्रमशः श्लोक ४२१ से .