श्वेता पुरोहित। सर्वव्यापक, निरंजन, निर्गुण, अजन्मा, हर्ष-विषाद से रहित, नाम-रूप रहित परमब्रह्म परमात्मा जब भक्ति के वशीभूत होकर पृथ्वी का भार उतारने के लिये श्री अयोध्या में माता श्री कौसल्या जी की गोद में श्रीरामरूप में अवतरित हुए, तब अयोध्या नगरी एक अलौकिक शोभा को प्राप्त हुई। जहाँ पर अलौकिक शोभाधाम सच्चिदानन्द प्रभु स्वयं बालरूप से खेल रहे हों, वहाँ की छवि का क्या कहना ! सुर-नर-मुनि सभी अयोध्या नगरी के सौभाग्य की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा कर रहे थे और भगवान् की रूप-माधुरी का पान करने के लिये तथा परमानन्द का रसास्वादन करने के लिये मनुष्य रूप में अयोध्या की गलियों में चक्कर लगाया करते थे। अखिलभुवन पति भगवान् महेश्वर भी उस समय अपने सुरम्य कैलासधाम में टिक न सके; वह उन्हें अयोध्या के मुकाबले सूना, नीरस-सा लगने लगा। उन्होंने काकभुशुण्डि तथा कुछ अन्यान्य प्रेमी ऋषि- मुनियों का एक दल संगठित किया और अयोध्यानगरी में आकर निवास किया। इस रहस्य को उस समय कोई जानता नहीं था। भगवान् शंकर अपने दलञके साथ राजमहल के इर्द- गिर्द चक्कर लगाया करते थे कि किसी तरह प्रभु के बालरूप की झाँकी मिल जाय।
एक दिन उन्होंने अपने साथियों को तो बाल शिष्यों का रूप धारण कराया और स्वयं एक वयोवृद्ध अनुभवी ज्योतिषी बन बैठे। इस तरह दिव्य वेश बनाकर अपनी मण्डलीञसहित वे राजभवन के द्वारपर पहुँचे। उस समय का वर्णन भक्त प्रवर श्रीतुलसीदासजी अपनी गीतावली में इस प्रकार करते हैं।
अवध आजु आगमी एकु आयो।
करतल निरखि कहत सब गुनगन,
बहुतन्ह परिचौ पायो ॥ १ ॥
बूढ़ो बड़ो प्रमानिक ब्राह्मन संकर नाम सुहायो।
सँग सिसुसिष्य, सुनत कौसल्या भीतर भवन बुलायो ॥ २॥
पायँ पखारि, पूजि दियो आसन असन बसन पहिरायो।
मेले चरन चारु चार्यो सुत माथे हाथ दिवायो ॥ ३ ॥ नखसिख बाल बिलोकि बिप्रतनु पुलक, नयन जल छायो।
लै लै गोद कमल कर निरखत, उर प्रमोद न अमायो ॥ ४॥
जनम प्रसंग कह्यो कौसिक मिस सीय-स्वयंबर गायो।
राम, भरत, रिपुदवन, लखनको जय सुख सुजस सुनायो ॥ ५ ॥
तुलसिदास रनिवास रहसबस, भयो सबको मन भायो।
सनमान्यो महिदेव असीसत सानँद सदन सिधायो ॥ ६ ॥
राजभवन के रनिवास में खबर पहुँची कि आज अवधपुरी में एक सामुद्रिक ज्योतिषी आये हैं, जो हथेली देखकर ही सारे गुण बता देते हैं। उनके कथन की सत्यता का परिचय बहुत-से लोगों को मिला है। वे बूढ़े ब्राह्मण बड़े ही प्रामाणिक हैं! उनका बड़ा सुन्दर ‘शंकर’ नाम है और उनके साथ कई बालक शिष्य भी हैं।
यह सुनकर माता कौसल्याजी ने ज्योतिषी को भीतर महलमें बुला भेजा। ज्योतिषी के आने पर उन्होंने ब्राह्मण के पैर धोये, पूजा की, आसन पर बैठाया, भोजन कराया और वस्त्र प्रदान किया। फिर उनके सुन्दर चरणों में चारों बालकों को रखकर उनके सिर पर हाथ रखवाया। उन बालकों को नख से शिखतक निहारकर ब्राह्मण देवता के शरीर में रोमांच हो आया और नेत्रों में जल भर गया। फिर वे गोद में ले-लेकर उनके करकमल देखने लगे।
उस समय अपने आराध्यदेव को साकार मूर्ति में और सो भी अपनी गोद में पाकर उनके हृदय में आनन्द की सीमा न रही। उन्होंने उनके जन्म लेने के कारण से लेकर भविष्य में श्रीविश्वामित्रजी की यज्ञ रक्षा के मिससे श्रीसीताजी के स्वयंवर में पधारने तक की कथा सुनायी तथा राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के भावी जय, सुख और सुयश का वर्णन किया। यह सुनकर सारा रनिवास आनन्दमग्न हो गया, क्योंकि ज्योतिषीजीकी बात सबके हृदय को प्रिय लगनेञवाली थी। उन्होंने उन विप्रप्रवर का अत्यन्त सम्मान किया और वे भी अतृप्त नयनों से सच्चिदानन्द की सच्चिदानन्दमयी छवि को मुँह फिरा-फिराकर निरखते हुए मन-ही-मन गुणगान करते हुए और ऊपर से उन्हें आशीर्वाद देते हुए अपने धाम को वापस चले गये।