डॉक्टर बी एन सिंह । सनातन का आज कल बहुत शोर है ।संन्यास सनातन धर्म की बहुमूल्य आध्यात्मिक अवस्था है जिसमें एक पूर्णकाम व्यक्ति जीवित रहते ही जीवन की समस्त वासना का त्याग कर देता है।
हमारे पुराणेतिहास में अनेकानेक राजाओं ने राज्य–भोग से उपरत होकर वानप्रस्थ और संन्यास धर्म को स्वीकार किया है। भगवा यानि गेरुआ रंग केवल इनकी ही शोभा होती थी। बाकी देवताओं का परिधान पीत पट अर्थात पीला रंग बताया गया।
सर्वतोभद्र केश मुंडन भी इनका ही आचार था। बाद में बौद्धों ने इसी वेशभूषा को अपनाया। सनातन समाज में अनधिकारी लोगों में संन्यासी कहलाने, भगवा ओढ़ने और शिखा विहीन मुंडन कराने की बाढ़ आ गई। वृत्ति बदली नहीं, वेश बदल गया।
कबीर ने इन्हें देखकर कब का ये कहा हुआ है, “मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा” गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी जमकर चुटकी ली है,
नारि मुई गृह संपति नासी।
मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी।।
लेकिन विमर्श का केन्द्र विंदु यह है कि आदिकाल से बुद्ध पर्यन्त राजा का ही संन्यासी होना श्रेयस्कर पाया गया है। किसी संन्यासी के राजा होने का उदाहरण नहीं है। साथ ही ऐसा होना महा विनाश का सूचक भी है। विलोम वृत्ति है, जैसे स्नातक उत्तीर्ण होकर प्राइमरी में दाखिला लेना। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय राजनीति में नारद मोह कथित मुनीश्वरों के सिर पर प्रेत बाधा की तरह दुःख दे रहा है। जोगी इसके ताजा उदाहरण हैं ।
राजा से सन्यस्त व्यक्ति आर्द्र होगा और दयालु होगा किंतु संन्यासी से शासक बनने वाला क्रूर होगा। जोगी का बुल्डोजर क्या है? शासन की बागडोर किसी सद्गृहस्थ परिवारी के हाथ होना ही कल्याणकारी होता है क्योंकि राजा में वात्सल्य आदि का भाव इसी से आता है।
संन्यासी असली हुआ तो वह राजसत्ता की ओर कदम ही नहीं बढ़ाएगा और नकली हुआ तो भगवा गुदड़ी में इतनी महत्वाकांक्षा, लोकैषणा और भौतिक विमोह को छिपा कर रखेगा कि व्यवस्था उसका ग्रास बनती रहेगी और उसके असल रूप को पहचानना भी दुश्कर होगा। आखिर साधु जो ठहरा वह!
डॉक्टर बी एन सिंह (वाराणसी)
आरएसएस के विचारक और प्रचारक रहे पर अब आलोचक हैं
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