मन थोड़ा उदास है! आज विनोद खन्ना इस दुनिया को छोड़कर चले गए! अनजाने में ही विनोद खन्ना से बचपन की मेरी कई-कई यादें जुड़ी हैं, जो अचानक से आज ताजी होती चली गई! करीब साढे नौ साल का था मैं, जब मेरे पिताजी ने मुझे मेरे घर से बहुत दूर पटना के एक हॉस्टल में डाल दिया था, पढ़ने के लिए। अपने गांव बरहेता (जिला समस्तीपुर) से मैं पहला लड़का था, जो इतनी दूर पढ़ने के लिए गया था। यह 1986 की बात है। पटना में अपनी मम्मी की मुझे बहुत याद आती थी और मैं अकसर गुमशुम रहा करता था। पढ़ाई-लिखाई में मैं औसत था, लेकिन मुझे कोर्स से इतर पढ़ने का बहुत शौक था, जो आज तक है। यह शौक मेरे अंदर मेरी नानी के कारण पनपा, जिनके पास मैं 3 साल की उम्र से लेकर 9 साल की उम्र तक पलता रहा। हर रात मेरी नानी एक कहानी सुनाती, तब मैं खाता और तब मैं सोता था।
पटना के स्कूल में एक छोटी पुस्तकालय थी,जिसमें चंदामामा, चंपक, नंदन आया करता था। मैं अपना अकेलापन इनकी कहानियों को पढ़कर दूर करता था। चंदामामा को जब भी पढ़ता, मेरी नानी हमेशा मेरे आसपास होने का ऐहसास कराती! हर महीने नए चंदामामा, चंपक, नंदन के आने का इंतजार रहता था। साइकिल पर अखबार वाला आता और इसे दे जाता था। पुस्तकालय में अखबार भी आता था।
उन दिनों अखबारों में खबरें छप रही थीं कि ओशो का आश्रम अमेरिका में नष्ट कर दिया गया है, ओशो को अमेरिका छोड़ना पड़ा है, रोनाल्ड रीगन की सरकार ने ओशो को देश निकाला दे दिया है, ओशो आश्रम छोड़कर विनोद खन्ना वापस मुंबई आ गए हैं। यह शायद 1986-87 के आसपास की घटना है। तब दूरदर्शन पर फिल्में आती थीं और हर रविवार को हॉस्टल में इसे दिखाया जाता था। विनोद खन्ना की भी कई फिल्में, खासकर अमिताभ बच्चन के साथ वाली, हमने दूरदर्शन पर देखी थी, इसलिए विनोद खन्ना के नाम और चेहरे से मैं वाकिफ था। मेरे मन में कौतूहल जगा कि यह ओशो कौंन हैं? विनोद खन्ना सबकुछ छोड़कर ओशो के पीछे क्यों गए? ओशो ने अमेरिका का क्या बिगाड़ा है? आदि।
उस समय अखबार में ओशो के बारे में खूब खबरें आती थी। मैंने पुस्तकाल के अखबार से ओशो और विनोद खन्ना से जुड़ी सारे खबरें ढूंढ़ कर पढ़ डाली। विनोद खन्ना द्वारा उंचाई पर पहुंच कर वैराग्य को अपनाने के भाव ने मेरे बाल मन को जकड़ लिया। राम, कृष्ण और युधिष्ठिर की कहानियां याद आने लगी कि ये लोग भी राजपुत्र होने के बावजूद दर-दर भटके। विनोद खन्ना ने जिस गुरु के लिए सबकुछ छोड़ा, वो आखिर कौंन हैं? यह सवाल मेरे मन को मथने लगा और ओशो के बारे में मेरी जिज्ञासा बढ़ती चली गई।
एक दिन मैंने अखबार वाले से पूछा कि ‘ओशो की कोई किताब है क्या?’
उसने कहा, ‘अभी तो नहीं है। लेकिन वो तो बहुत बेकार आदमी हैं। तुम क्यों पूछ रहे हो?’
अब तो मेरी जिज्ञासा और बढ़ गयी। मैंने कहा, ‘बेकार होते तो विनोद खन्ना सबकुछ छोड़कर उनके पीछे क्यों चले जाते, बोलिए?’
उसने कहा, ‘तभी तो विनोद खन्ना बर्बाद हो गया। ‘खैर, मुझे क्या? कल ला दूंगा।’ और यह भी कहा कि ‘मेरा नाम मत लेना, छुपकर पढ़ना।’
मुझे याद है वह कल होकर ‘ओशो टाइम्स’ लेकर आया। बड़ी-सी ओशो टाइम्स होती थी, जिसकी कीमत तब 5 रुपये थी। जब मैं घर से हॉस्टल आता था तो पिताजी मुझे एक-एक रुपए के 100 नोटों की गड्डी देते थे और मैं खुश हो जाता था। उस हॉस्टल में और किसी बच्चे के पास इतने पैसे नहीं होते थे, इसलिए कुछ साथी मुझे ‘बुश कंपनी’ कह कर बुलाते थे। बुश तब टीवी कंपनी हुआ करती थी, जिसका विज्ञापन दूरदर्शन पर आता था। वह 1987 में क्रिकेट वर्ल्ड कप के एक प्रायोजकों में भी था। बच्चों में बुश कंपनी का बड़ा क्रेज था। क्रिकेट वर्ल्ड कप का बुखार मुझ पर ऐसा चढ़ा कि मैं भी हॉस्टल में क्रिकेट, कबड्डी, सितोलिया, अट्ठा-गोटी, कंचा आदि खेलों की प्रतियोगिता कराने लगा और जीतने वाले दोस्तों को पेंसिल, कैडबरी चॉकलेट आदि ईनाम में देने लगा। इसलिए सब दोस्त मुझे ‘बुश कंपनी’ कहते थे।
हां तो, पैसे मेरे पास होते थे। पांच रुपए देकर मैंने उससे ‘ओशो टाइम्स’ खरीद लिया। तब मैं मुश्किल से 10-11 साल का था। मैं चंदामामा, नंदन, चंपक तो सबके सामने पढ़ता और ओशो टाइम्स छुपकर। हालांकि आज तक नहीं समझ पाया कि मैं छुपकर क्यों पढ़ता था? शायद इसलिए कि उस अखबार वाले हॉकर ने मुझे डरा दिया था। और मेरे स्कूल के प्रिंसिपल बहुत ज्यादा मारते थे। बेंत से देह लाल कर देते थे। इसलिए डर के मारे मैं ‘ओशो टाइम्स’ को छुपाकर पढ़ता था!
फिर ओशो के एक-एक शब्द ने भीतर इतने सारे प्रश्न पैदा कर दिए कि मैं अखबार वाले से पुराने ‘ओशो टाइम्स’ भी मंगवा कर पढ़ने लगा कि शायद उसमें कहीं जवाब हो! वह रद्दी वाले के यहां से पुराना ‘ओशो टाइम्स’ लाकर दे देता था और मुझसे पूरे पैसे लेता था। इस तरह से ओशो को जानने-समझने की शुरुआत हुई। बहुत दिनों तक वो सारे ‘ओशो टाइम्स’ मेरे पास पड़े रहे। मैं उसे अपने घर भी ले गया। फिर जब 1990 में ओशो का निर्वाण हुआ तो उस समय मैं पटना के हॉस्टल से निकल कर उदयपुर पढ़ने के लिए पहुंच चुका था। मैं उस रोज बहुत उदास था। खबर पढ़ी कि उनकी मृत्यु अमेरिकी सरकार द्वार दिए गए थेलियम नामक जहर से हुई तो मेरे अंदर अमेरिका के प्रति वितृष्णा का भाव उत्पन्न हो गया!
लेकिन ओशो इस पृथ्वी से जाकर भी मेरे लिए सदा से मौजूद हैं!उनके शब्द और उसकी वाणी मेरे अंदर हमेशा गूंजती रहती हैं! बड़ा होने के साथ-साथ फिर मैं ओशो के ध्यान शिविरों में भी जाने लगा और ध्यान विधियों को लेकर भी कई प्रयोग किए। फिर 1998 में मैंने संन्यास ले लिया। संयोग देखिए, यह वह समय था, जब विनोद खन्ना राजनीति में प्रवेश कर रहे थे! मुझे ओशो के पुणे आश्रम से नाम मिला- ‘स्वामी देव मुकाम’। अर्थात ऐसा व्यक्तित्व जिसके अंदर देवता वास करते हों! अपने संन्यास का नाम देखकर मैं जोर से हंसा और आज तक हंस ही रहा हूं!
सन्यास का मरून रोब और ओशो की माला मेरे शरीर पर देखकर मेरे पिताजी ने मम्मी से कहा कि बेटा पागल हो गया है। मेरे पिताजी का भी मानना था कि ओशो सही आदमी नहीं हैं। यह बात मेरी मम्मी ने मुझे बतायी। मैंने मम्मी को ओशो का मीरा पर दिया प्रवचन सुनाया, क्योंकि मेरी मां का नाम भी मीरा है। मैंने सोचा, इसी बहाने मेरी मां अपने नाम के वास्तविक अर्थ के करीब शायद पहुंच जाए। मेरी मां सुनती रही। बाद मंे उसने पिताजी से कहा कि ओशो कितना सुंदर प्रवचन देते हैं! कितनी सही बात कहते हैं! अब पिताजी क्या कहते भला?
मैं करीब 13-14 साल की उम्र में ही प्रेम में पड़ गया था। मेरा प्रेम पत्नी के रूप में मेरे साथ है। वह श्वेता है। श्वेता ने भी जब मुझे ओशो को पढ़ते देखा तो कहा ‘क्यों बुरे आदमी को पढ़ते हो?’
मैंने कहा कि ‘किसने कहा कि ओशो बुरे हैं?’
उसने कहा, ‘मेरी नानी ने कहा है।’
उनकी नानी की कही बात उसके लिए अटल लकीर थी, लेकिन ओशो के मामले में वह बाद में बदली। श्वेता के मना करने पर भी मैं ओशो को पढ़ता रहा तो उसने एक बार मेरे हाथ से ओशो की पुस्तक लेकर फाड़ दी। काफी झंझावातों को झेल कर जब मेरी उसकी शादी हुई तो उसने सबसे पहले मेरे छोटे भाई अमरदीप के साथ मिलकर घर के रैक में रखे सारे ओशो टाइम्स को कबाड़ी के हाथ बेच डाला था। बाद में मैंने ओशो के कुछ प्रवचन उसे सुनाए तो वह मेरे साथ हो ली। फिर उसने मुझे ओशो को पढ़ने और सुनने की पूरी आजादी दी। आज तो वह मेरे पुस्तकों के ढेर में से ओशो की पुस्तकों को भी उसी तरह झाड़-पोंछ कर रखती है, जैसे अन्य पुस्तकों को।
यही सच है कि मेरे अंदर ओशो की यह प्यास विनोद खन्ना के कारण जगी, जिन्होंने ओशो के कारण ऊंचाई पर पहुंच कर सबकुछ त्याग दिया था, बुद्ध की तरह और फिर दुनिया में लौटे जोरबा की तरह! ओशो की एक लाइन की शिक्षा है–‘जोरबा-द-बुद्धा।’ अर्थात संसार में रहकर भी संसार से विरक्त रहना, ठीक कमल की तरह! अर्थात बाहर जोरबा की तरह संपन्न और भीतर बुद्ध की तरह शांत! अर्थात हर क्षण-हर जगह साक्षीभाव दशा में जीना!
मेरी पत्नी श्वेता ने सात-आठ साल की उम्र में दूरदर्शन पर विनोद खन्ना की एक फिल्म देखी थी- ‘इम्तिहान’ और उस बालमन ने सोचा कि इसी से शादी करुंगी! देखो न, उसके अबोध मन में भी पहली छाप विनोद खन्ना की ही पड़ी! तो कहीं न कहीं विनोद खन्ना, ओशो-मेरे-श्वेता के मन के वो तार हैं,जो अनजाने में ही हमसे जुड़ते चले गए! आज जब उनके जाने की खबर सुनी तो वह तार एकाएक से झंझनाने लगा! इस तार से उदासी का राग बज रहा है!
हां, जीवन में पहली बार जिस हीरो को मैंने प्रत्यक्ष देखा था वह भी विनोद खन्ना ही थे! कितना सारा संयोग है? और सब संयोग मधुर है! अपनों-सा ऐहसास और अपनों के जाने का दुख, कुछ ऐसा! हालांकि हम सब जानते हैं कि एक दिन तो हम सभी को जाना है! स्वामी विनोद भारती आपने जीवन को संपूर्णता में जीया- सिनेमा-संन्यास-सियासत! यही तो ओशो का संदेश है-‘जोरबा-द-बुद्धा।’
बहुत सुंदर लेख।