ओटीटी मंच : zee5
विपुल रेगे। भारत में एक दलित स्त्री और एक सामान्य स्त्री के बलात्कार में बड़ा अंतर है। यहाँ एक दलित स्त्री का बलात्कार अख़बारों और न्यूज़ चैनलों की सुर्खी बन जाता है लेकिन एक सामान्य स्त्री पर हुआ अत्याचार शाम की टीवी बहसों के योग्य नहीं समझा जाता। ज़ी5 पर प्रदर्शित हुई फिल्म ‘200 हल्ला हो’ उन महिलाओं पर आधारित है, जिन्होंने एक बलात्कारी गुंडे को न्यायालय में काटकर फेंक दिया था। हालांकि फिल्म देखने के बाद पता चला कि 200 महिलाओं की शौर्य गाथा को सफल कराने के लिए काल्पनिक दलित तथ्यों को डाला गया है।
सन 2004 में नागपुर के कस्तूरबा नगर की 200 महिलाओं ने एक गुंडे अक्कू यादव के आतंक से परेशान होकर न्यायालय में उसकी हत्या कर दी थी। अक्कू यादव पर कई महिलाओं के साथ यौन शोषण और बलात्कार के आरोप थे। स्थानीय पुलिस और नेताओं के साथ उसकी मिलीभगत थी। 13 अगस्त 2004 के दिन अक्कू को न्यायालय में पेश किया गया। यहीं पर अपने साथ घरेलु हथियार और लाल मिर्च लेकर आई महिलाओं ने अचानक अक्कू यादव पर हमला कर दिया।
लगभग दस मिनट में अक्कू के शरीर को मिर्ची झोंककर काट डाला गया था। नागपुर का ये केस देशभर में चर्चित हुआ था। इस केस ने देश की लचर न्यायिक प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया था। ये एक ऐसी सच्ची कहानी थी, जिसे फिल्म बनाकर सफल कराने के लिए दलित एंगल की आवश्यकता नहीं थी। निर्देशक सार्थक दासगुप्ता कैसे तय करेंगे कि कस्तूरबा नगर में सभी दलित महिलाएं ही रहती थी।
ये एक प्रेरक कथा थी, जिसे दलित का चोला पहनाकर लचर बना दिया गया। पूरी फिल्म में महिलाओं के शौर्य पर दलित का मुद्दा छाया रहता है। इस प्रकरण के लिए एक समिति गठित की जाती है, जिसका मुखिया एक सेवानिवृत्त दलित जज होता है। देश की दलगत राजनीति ने बलात्कार जैसे गंभीर मुद्दे को वर्गों में बाँट दिया है। इसी लकीर को फिल्म उद्योग पीट रहा है।
देश के नेताओं को लगता है कि दलित स्त्री को बलात्कार से अधिक पीड़ा होती है और सामान्य वर्ग की महिलाओं को कम होती है। एक अपराधी के आतंक और अत्याचार के विरुद्ध नागपुर की 200 महिलाएं शस्त्र उठाने का साहस करती हैं। वें उसी कोर्ट रुम में जाकर आततायी का वध करती हैं, जहाँ से उन्हें न्याय नहीं मिला था। ऐसी जीवंत कथा को भला दलित बैसाखियों की आवश्यकता क्यों होने लगी ?
इस फिल्म को देखते हुए लगता है कि एजेंडों के लक्ष्य अब फिल्मों से भी साधे जा रहे हैं। इस कथा पर कोई हॉलीवुड का निर्देशक फिल्म बनाता तो वास्तविक तथ्यों के साथ दर्शकों के सामने आता। मनोरंजन के लिए ज़िम्मेदार मंत्री महोदय को अब इस ओर ध्यान देना चाहिए। यदि फिल्मों के माध्यम से एजेंडे साधे जाने लगे हैं तो ये देश के नागरिकों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत ख़तरनाक है। क्या सरकार ध्यान देगी ?