श्वेता पुरोहित। पूर्व समय की बात है, अरुण नामक एक महान् पराक्रमी दैत्य था। उसने देवताओं पर विजय प्राप्त करने की इच्छा से हिमालय पर जाकर पद्मयोनि ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिये हजारों वर्षोंतक कठोर तपस्या की। ब्रह्माजी ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती गायत्री के साथ उसे दर्शन दिया और इच्छानुसार वर माँगने के लिये कहा। अरुण ने कभी न मरने का वर माँगा।
अरुण की बात सुनकर ब्रह्माजी ने उसे समझाते हुए कहा- ‘संसार में जन्म लेनेवाला निश्चय ही मृत्यु को प्राप्त होता है। जब मेरी भी आयु निर्धारित है, फिर मैं तुम्हें न मरने का वर कैसे दे सकता हूँ ? अतः तुम कोई दूसरा वर माँगो, जो मैं तुम्हें दे सकूँ।’ अरुण ने कहा— ‘प्रभो! फिर मुझे अस्त्र-शस्त्र, स्त्री-पुरुष, पशु, देव, दानव किसी के भी हाथसे न मरने का वर प्रदान करें।’ ब्रह्माजी ‘तथास्तु’ कहकर ब्रह्मलोक चले गये।
वर पाने के बाद अरुण ने विशाल दानवी सेना के साथ इन्द्र की पुरी अमरावती को घेर लिया। बात-की- बात में अरुणने समस्त देवताओं को परास्त कर दिया। उसने तपस्या के प्रभाव से अनेक रूप बना लिये और सूर्य, चन्द्रमा, यम, वायु तथा अग्निके अधिकारों को पृथक्- पृथक् अपने हाथों में लेकर वह स्वयं सबका शासन करने लगा। अपने-अपने स्थान से च्युत होकर देवता दीन अवस्था में भगवान् शंकर की शरणमें गये, किंतु ब्रह्मा के वरदान के आगे वे भी कुछ करने में असमर्थ हो गये। उसी समय आकाशवाणी हुई—‘देवताओ ! तुम लोग भगवती की उपासना करो और किसी भी उपाय से अरुण दैत्य को गायत्री-जप से विरत करने की चेष्टा करो।’
देवताओं के कहने पर देवगुरु बृहस्पति दैत्यराज अरुण को गायत्री-जप से विरत करने के उद्देश्य से उसके पास गये और बोले- जो देवी हम लोगों की आराध्या हैं।
उन्हीं की तो तुम भी आराधना कर रहे हो, फिर तो तुम हमारे ही पक्षधर हुए। बृहस्पति की यह बात सुनकर देवमाया से मोहित होकर अरुणने गायत्री-जप करना छोड़ दिया। इधर देवताओं की उपासना से प्रसन्न होकर भगवतीने उन्हें भ्रामरी देवीके रूपमें दर्शन दिया। उस समय उनके कमनीय विग्रह से करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश फैल रहा था। उनके सभी अंग दिव्य अलंकारोंसे अलंकृत थे। उनकी मुट्ठी अद्भुत भ्रमरों से भरी थी। वे करुणामयी देवी वर तथा अभय मुद्रा धारण किये हुए थीं। नाना प्रकार के भ्रमरों से युक्त पुष्पों की माला उनकी छवि बढ़ा रही थी। भगवती का दर्शन प्राप्त करके सभी देवता परम प्रसन्न हुए। देवीने कहा-‘देवताओ! अब तुमलोग निर्भय हो जाओ और यहाँ आनेका कारण बताओ। अपने भक्तों के कष्टोंका निवारण करना मेरा प्रथम कर्तव्य है।’ ब्रह्मादि देवताओं ने उनकी नाना प्रकार से स्तुति की। तदनन्तर देवताओं ने भ्रामरी देवीसे अपने दुःखका कारण बताया और अरुण दैत्यके वध के लिये प्रार्थना की।
देवताओं की आर्तवाणी सुनकर भगवती भ्रामरी ने अपने हस्तगत भ्रमरों को प्रेरित किया। उन असंख्य भ्रमरों से त्रिलोकी व्याप्त हो गयी। उस समय उन भ्रमरोंके कारण पृथ्वीपर अन्धकार छा गया। सब ओर केवल भ्रमर-ही-भ्रमर दृष्टिगोचर होने लगे। उन सम्पूर्ण भ्रमरों ने जाकर तुरंत सेना सहित अरुण दैत्य को छेद डाला। किसी भी अस्त्र-शस्त्र से उन विचित्र भ्रमरों का निवारण न किया जा सका। सभी दैत्योंके प्राण उन भ्रमरोंके काटने से प्रयाण कर गये। अरुण भी अपने सहायकों के साथ मृत्युको प्राप्त हुआ। अरुण की मृत्यु के साथ देवताओं के संकट का निवारण हुआ। देवताओं का कार्य सम्पन्न करके भगवती भ्रामरी वहीं अन्तर्धान हो गयीं।
श्रीभ्रामरी देवी की जय