श्वेता पुरोहित। हंस और डिम्भक की कथा उभयपक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
वैशम्पायनजी कहते हैं – वे दोनों ओर की सेनाएँ वहाँ एक-दूसरी से मिल गयीं। वे ध्वज तथा अन्य
उपकरणों से सम्पन्न थीं। दोनों ही दलों में बड़े-बड़े परिघ सञ्चित थे। दोनों ही सेनाएँ गदा और शक्तियों से भरी-पूरी थीं। दोनों में भेरी और झाँझ की ध्वनि हो रही थी।
दोनों ही डिंडिम-घोष से व्याप्त थीं। दोनों ही दलों के सैनिकों ने बड़े-बड़े शस्त्र, शूल, खड्ग और श्रेष्ठ धनुष ले रखे थे। दोनों सेनाएँ एक-दूसरी को जीतने का उत्साह रखती थीं। दोनों भयंकर युद्ध करने लगीं। उनके धनुषों से छूटे हुए सहस्रों बाण देहधारियों के शरीरों को विदीर्ण करके दूर तक चले जाते थे। योद्धाओं की भुजाओं से छूटे हुए खड्ग शत्रु की छाती में घाव करके जब उछलते, तब उनके सिर काटकर आकाश में चले जाते । क्षत्रियों की भुजाओं द्वारा फेंके गये परिघ राजाओं तथा राक्षसों के अनुपम शरीर को तिल-तिल कर के काट डालते थे तथा एक-दूसरे के वध की इच्छा से गर्जना करनेवाले दैत्यों के भी टुकड़े-टुकड़े कर डालते थे।
दैत्य, राक्षस और राजा लोग सब ओर एक-दूसरे पर परिघों द्वारा प्रहार करते थे तथा अन्य महाबली वीर शिला पर तेज करके धनुष से छोड़े गये सर्पाकार बाणों द्वारा गहरा आघात करते थे। राजन् ! मतवाले हाथियों के समान पराक्रमी राक्षस और अन्य दानव धनुष से छोड़े गये महान् बाणोंद्वारा परस्पर चोट पहुँचाते थे।
वहाँ सब ओर हाथी हाथियों से, घोड़े घोड़ों से, रथ रथों से और सवार सवारों से भिड़ गये। पट्टिश, खड्ग, बाणसमूह, सायकों को भी काट गिराने वाले कुन्त, शक्ति, परिघ, प्रास और फरसों सहित महाभयंकर भिन्दिपाल आदि अस्त्र- शस्त्रों द्वारा सभी योद्धा रणभूमि में एक-दूसरे को मारने लगे! इधर-उधर दौड़ते और विकट गर्जना करते हुए राक्षस, दानव तथा क्षत्रिय शिला पर तेज कर धनुष से छोड़े गये बाणों द्वारा सब ओर परस्पर प्रहार करते थे। कोई बड़ी-बड़ी तलवारों से मारे जाकर पृथ्वी पर गिर पड़े। कितने ही महापराक्रमी वीरों के मस्तक गदाओं के आघात से चूर-चूर हो गये।
कितने ही परिघधारी योद्धाओं ने अपने परिघों द्वारा शत्रुओं की गर्दनें तोड़ डालीं, उन मारे शत्रुओं में से कुछ तो यमराज के राज्य में गये और कुछ स्वर्गलोक में जा पहुँचे। वे अपने मृत शरीर को देखते हुए अप्सराओं से जा मिले। कितने ही योद्धा परायों तथा अपनों को भी मारकर भ्रान्त-से हो गये थे।
इसी बीच में सहस्रों शङ्खों और भेरियों की ध्वनि होने लगी। सेना में सब ओर बहुत-से मृदङ्ग बजने लगे। सूर्य मध्याह्न काल में पहुँचकर जब घोर ताप देने लगे, उस समय विशाल एवं विकराल पेटवाले विकृताकार पिशाच और महाघोर राक्षस आकर बड़ी प्रसन्नता के साथ बहुत – सा रक्त पीने और केशयुक्त मांस खाने लगे। वहाँ ढेर-की-ढेर लाशें पड़ी थीं, खड्गों द्वारा गिराये हुए बिना सिरके धड़ एकत्र हो गये थे। वे शवका भक्षण करनेवाले पिशाच युद्धभूमि में परस्पर बहुत-से देश का विभाजन करके मृतकों के मांस खाते थे। तदनन्तर बहुत-से बाज, हिंसक जन्तु, कंक, गृध्र तथा अन्य पक्षी इधर-उधर से आकर अपनी चोंचों से मुर्दों को खींच- खींचकर खाने लगे।
उस युद्ध में सत्तासी हजार हाथी मारे गये तथा तीस करोड़ अच्छे घोड़ों का संहार हुआ। रथियों सहित एक लाख रथ नष्ट हुए तथा वहाँ तीस करोड़ शस्त्रधारी घुड़सवार गहरी चोट खाकर मारे गये थे।
सूर्य के मध्याह्नकाल में पहुँचते-पहुँचते कितने ही योद्धा घायल होकर रणभूमि से निकल गये और कितने ही प्यास से पीड़ित हो पुष्कर-सरोवर में घुस गये। कितने ही सैनिक पृथ्वीका आलिङ्गन करके पड़ गये और रणभूमिमें अपनेको भयभीत बताने लगे। कितने ही योद्धा केश खोले हुए रथोंको छोड़कर पृथ्वीपर गिर पड़ते थे । कितने ही घुड़सवार दाँतों से ओठ दबाये सामने मारे गये।
इस प्रकार पुष्करतीर्थ में अत्यन्त अद्भुत महान् युद्ध हुआ। पूर्वकाल में जिस प्रकार देवासुर-संग्राम हुआ था, वैसा ही वह भी था।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
आशा है कि आप यहाँ तक इस कथा में मेरे साथ बने हुए हैं
शेष अगले भाग में…