कमलेश कमल. पुष्प के सुवास का पता भ्रमर को कौन देता है? आम्र-मंजरियों का ठिकाना कोयल को कैसे मिलता है? साइबेरिया के प्रवासी पक्षी सहस्त्र-योजन दूर भरतपुर की अनुकूल पारिस्थितिकी को कैसे जान जाते हैं? चाँदनी का पता चकोर को और बादल का पता मोर को कैसे चलता है?
सिद्ध पुरुष की सिद्धि हो, साधक की साधना हो, चिकित्सक का उपचार-कौशल हो या कलाकार की कला हो; जिन्हें जानना चाहिए, जान ही लेते हैं। क्या आपने ग़ौर किया है कि जहाँ मद्य निषेध है, वहाँ भी पीने वालों को पता चल ही जाता है कि मदिरा कहाँ से मिल सकती है।
उपर्युक्त उदाहरणों के आलोक में देखें, तो यह स्पष्ट है कि अगर आपमें रचनात्मक क्षमता है, सर्जनात्मक सामर्थ्य है, तो इसका पता सुधीजनों को लग ही जाता है। दुनिया आपको ढूंढ ही लेगी। इसके विज्ञापन की आवश्यकता नहीं है, वरन् आवश्यकता है सतत साधना की। साधना पथ के राही, विज्ञापन के विश्वासी नहीं होते, कर्म के अभ्यासी होते हैं, कर्म-विलासी होते हैं।
यह एक तथ्य है कि सर्जनात्मकता का परिक्षेत्र सदा ही आम जनों के लिए रहस्यपूर्ण और आकर्षक रहा है। कोई कैसे अच्छा लिख लेता है या कोई कैसे अच्छी कलाकृतियों को जन्म दे देता है- यह कौतुहल तो यूँ ही बना रहता है। फ़िर भी, यह समझा जा सकता है कि इस सूचना-आक्रांत समय में बौद्धिक-कार्य व्यापार में लगे लोग भी अपने उत्पाद का विज्ञापन करते हैं…आख़िर प्रसिद्धि के नशे को सबसे अधिक असरदार यूँ ही नहीं माना गया है। पर, इस पर विचार अवश्य होना चाहिए कि ये विज्ञापन कितने प्रभावी होते हैं! क्या इस तरह प्राप्त लोकप्रियता टिकती भी है?
एक बार ठाकुर जी (रामकृष्ण परमहंस) ने युवा नरेन (विवेकानंद) से कहा- नरेन ज़रा पास के पुकुर (तालाब) को देख कर आओ। नरेन जब वहाँ गए तो वहाँ एक कमल का फूल खिला था और उसपर भौंरें मंडरा रहे थे। ठाकुर जी ने नरेन से कहा- “कमल का फूल भौरों को बुलाने नहीं जाता, भौरों को स्वतः पता चल जाता है। इसी तरह, जिसमें बात होती है उसका पता लोगों को चल ही जाता है।”
इसमें कोई अत्युक्ति नहीं कि बिना सिद्धि के प्रचार के बल पर अर्जित लोकप्रियता कभी स्थाई नहीं होती। कुछ समय के लिए लोग आपके पास आ सकते हैं, पर जैसे ही उन्हें पता चल जाएगा कि आपमें वह बात नहीं, वह गुरुता नहीं…वे आपसे छिटककर दूर हो जाएँगे। मानव व्यवहार के इस नियम का कोई अपवाद नहीं है।
यहाँ बौद्धिक-विज्ञापन के मनोवैज्ञानिक कारण को भी देख लेना समीचीन होगा- यह हर संवेदनशील व्यक्ति और विशेषकर लेखकों के साथ होता है कि जीवनानुभव, विचार आदि से जूझते हुए या उनमें अंतर्भुक्त मौन को सुनते-गुणते वह अनेक यात्राएँ कर जाता है। ऐसे में वह उन यात्रिक अनुभवों को शब्दों में पिरोकर पेश करना चाहता है..। इसी अनुभव के वैशिष्ट्य को अतिरंजित कर जब वह बहुप्रचारित करने लगता है, तब उसकी आगे की यात्रा प्रभावित हो जाती है और कभी-कभी तो प्रगति भी रुक जाती है। सयानी समझ के धनी और भोगे हुए यथार्थ से संपृक्त वरिष्ठ जन, गुरुजन इसलिए हमें आगाह करते हैं कि कर्मविलासी बनो, प्रसिद्धिविलासी नहीं।
निष्कर्षतः कह सकते हैं कि कलमकारों, रचनाकारों को अपनी उदग्र रचनाधर्मिता के नित-पोषण पर ही श्रम करना चाहिए, और शीघ्र प्रसिद्धि के हथकंडों जैसे अनुपयोगी कर्म से बचना चाहिए। ऐसा कर्म हो जिससे हमारे अंतःकरण का आयतन बढ़े और रचनात्मक कौशल का परिष्कार होता रहे।