श्वेता पुरोहित। शाल्वदेश में ब्रह्मदत्त नाम से प्रसिद्ध एक श्रेष्ठ राजा राज्य करते थे। उनका हृदय बड़ा ही पवित्र था। वे सम्पूर्ण भूतों पर दयाभाव बनाये रखते थे। सदा पञ्चयज्ञ का अनुष्ठान करते तथा मन और इन्द्रियों को वश में रखते थे। वे ब्रह्मवेत्ता और वेदवेत्ता थे तथा सदा यज्ञ के अनुष्ठान में लगे रहते थे। राजा ब्रह्मदत्त सबके लिये कल्याणकारी थे।
उनके रूप और उदारता आदि गुणों से सम्पन्न दो पत्नियाँ थीं, उनमें सारे गुण होने पर भी उन दोनों के कोई संतान नहीं हुई । जैसे स्वर्ग में इन्द्र शची के साथ आनन्दपूर्वक रहते हैं, उसी प्रकार राजा ब्रह्मदत्त उन दोनों पत्नियों के साथ सदा आनन्दमग्र रहते थे।
राजा के एक श्रेष्ठ ब्राह्मण मित्र थे, जिनका नाम था मित्रसह। वे महान् योगी तथा वेद और वेदान्त के अनुशीलन में तत्पर रहनेवाले थे। वे ब्राह्मणशिरोमणि भी राजा के ही समान संतानहीन थे। राजा ने अपनी दोनों पत्नियों के साथ रहकर पुत्र-प्राप्ति के उद्देश्य से एकाग्रचित्त हो दस वर्षां तक शूलधारी भगवान् शङ्कर की आराधना की।
ब्राह्मण मित्रसह ने पुत्र के लिये वैष्णवयाग का अनुष्ठान किया। राजा ब्रह्मदत्त के द्वारा पूजित हुए नीललोहित भगवान् शङ्कर ने स्वप्न में उन्हें अपने दिव्य रूपका दर्शन कराया और कहा- ‘उत्तम व्रतका पालन करनेवाले नरेश ! तुम्हारा कल्याण हो! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, तुम कोई वर माँगो । राजा ने मुसकराते हुए-से भगवान् विश्वनाथ से यह बात कही- ‘प्रभो! मेरे दो पुत्र हों।’ तब ‘तथास्तु’ (ऐसा ही हो) यह कहकर वृषभध्वज भगवान् शङ्कर अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् राजाकी नींद खुल गयी।
विद्वान् मित्रसह ने भी अविनाशी जगदीश्वर भगवान् केशवकी पाँच वर्षोंतक बड़े भक्तिभाव से आराधना की। उन ब्राह्मण से पूजित हो देवाधिदेव जनार्दन हरि ने उन्हें अपने ही-जैसा एक पुत्र प्रदान किया।
राजा की उन दोनों पत्नियों ने भगवान् शंकर के तेज से गर्भ धारण किया और ब्राह्मण की पत्नी ने वैष्णव तेज को ही गर्भ के रूप में धारण किया। राजा की उन दो रानियों ने भगवान् शंकर की कृपाणसे प्राप्त हुए दो महापराक्रमी पुत्रोंञको क्रमशः जन्म दिया था। ब्रह्मदत्त ने उन दोनों पुत्रों के नाम-कर्म आदि सारे संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न किये और ब्राह्मणों को बहुत धन दिया।
विनयशील हृदयवाले ब्राह्मण मित्रसह ने भी एक पुत्र प्राप्त किया, जिसके रूप में मानो साक्षात् जगन्नाथ श्री हरि ही उनके घर में आ गये हों। ब्राह्मण ने भी पुत्र के जातकर्म आदि सभी संस्कार पूर्ण किये। वे दोनों राजकुमार और यह ब्राह्मणपुत्र तीनों ही समवयस्क थे। उन्होंने सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करके आन्वीक्षिकी विद्या (वेदान्त आदि) का अनुशीलन करनेके पश्चात् धनुर्वेद तथा सम्पूर्ण अस्त्रोंके ज्ञानमें निपुणता प्राप्त की। ज्येष्ठ राजकुमारका नाम हंस था और उससे छोटा डिम्भक नामसे प्रसिद्ध हुआ। ब्राह्मणपुत्रका नाम जनार्दन रखा गया था। वे सभी कुमार एक-दूसरे के प्रति मित्रभाव रखते थे।
हंस और डिम्भक भाई थे। इसके अलावा और कुछ नहीं.
इनकी कथा का अगले भागों में और विस्तार से वर्णन किया जाएगा।
भगवान हरि और हर कि जय
हर हर महादे