रावण के दस सिर थे, वे दिखाई देते थे इसलिए राम जी ने युद्ध जीत लिया लेकिन हमारे सिस्टम के अनगिनत सिर हैं जो दिखाई ही नहीं देते। पंकज त्रिपाठी की फिल्म ‘कागज़’ का ये संवाद इस फिल्म का निचोड़ है। भारत के सिस्टम को विश्व का सबसे बड़ा दलदल कहा जा सकता है, जिसकी कालिख की गहनता का अनुमान कभी लगाया नहीं जा सकेगा।
भारत में सिस्टम सरकारों से अधिक शक्तिशाली होता है। वह एक जीवित व्यक्ति को कागज़ों में मार सकता है। सिस्टम की कागज़ पर लगी मोहर इतनी गाढ़ी होती है कि न्याय के मंदिरों की उम्मीद भी उसे मिटा नहीं सकती है। निर्देशक सतीश कौशिक की ये फिल्म उस लाल बिहारी के जीवन पर आधारित है, जिसको उसके रिश्तेदारों ने जमीन हड़पने के लिए कागज़ में मृतक घोषित करवा दिया था।
लाल बिहारी ने स्वयं को जीवित घोषित करवाने के लिए अठारह वर्ष तक लड़ाई लड़ी। कई हादसे सहे, तब जाकर सिस्टम ने गलती मानी। पिछले कुछ वर्षों में बहुत से ख्यात लोगों पर बॉयोपिक बनाए गए लेकिन एक आम आदमी की बॉयोपिक बनाने की ज़रुरत नहीं समझी गई थी। सतीश कौशिक एक सिद्धहस्त निर्देशक हैं।
उन्होंने लाल बिहारी की कहानी को सुंदर ढंग से परदे पर प्रस्तुत किया है। ये एक पीड़ादायक कथा थी। इसे उसी पीड़ा के साथ फिल्माया जाता तो दर्शकों के हाथ कुछ न लगता। ये मनोरंजन विहीन ट्रेजडी कथा बनकर रह जाती। निर्देशक ने लाल बिहारी की पीड़ा को ‘कॉमिक टच’ दिया है। हास्य के मिश्रण के साथ दर्शक ट्रेजडी सह जाता है। फिल्म में लाल बिहारी का नाम ‘भरत लाल’ रखा गया है।
इस नाम को लेकर एक संवाद बोला गया है ‘भारत का एक लाल और वह भी मरा हुआ।’ निर्देशक की एक बात सराहनीय है कि इस कहानी के सहारे उन्होंने कोई राजनीतिक निशाना नहीं साधा। फिल्म का कथानक भारतीय सिस्टम और आम आदमी के युद्ध का है। फिल्म में राजनीतिज्ञ दिखाए गए हैं लेकिन उनका दायरा सीमित रखा गया है। फिल्म कुछ दृश्य बहुत प्रभावशाली होकर उभरते हैं।
जैसे भरत लाल न्याय पाने के लिए मृतकों की पार्टी बनाता है। वह अमेठी में राजीव गाँधी के विरुद्ध चुनाव लड़ता है। उसके जनसंपर्क के दौरान पोस्टर लगाने का दृश्य बड़ा रोचक है। एक और दृश्य में भरत लाल विधानसभा में पर्चे फेंककर बताने की कोशिश करता है कि वह जीवित है। उसे विधानसभा में बुरी तरह पीटा जाता है। निर्देशक ने यहाँ एक सांकेतिक दृश्य रचा है। भरत लाल को बुरी तरह मारा गया है। उसकी पेंट तक उतार ली गई है।
फटे कपड़ों में वह विधानसभा भवन के सामने खड़ा है। निर्देशक बता रहा है कि सिस्टम ने भारत के आम आदमी को न केवल प्रताड़ित किया है अपितु उसके वस्त्र तक उतार लिए हैं। निर्देशक ने प्रयास किया है कि इस गंभीर कथा को लेकर ट्रीटमेंट हल्का-फुल्का ही रहे। कुछ दृश्यों में निर्देशक भावविहिल कर जाते हैं। अभिनय की बात करें तो पंकज त्रिपाठी ने पूरा मजमा लूट लिया है। उनकी तगड़ी प्रेजेंस में कोई और कलाकार उभर ही नहीं पाता है।
पंकज परफ़ॉर्मर हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। ‘कागज़’ उनकी फिल्म यात्रा में बोल्ड लेटर्स से लिखी जाएगी। ऐसा लगता है हम ‘संजीव कुमार युग’ की पुनरावृत्ति देख रहे हैं। इस फिल्म में पंकज के सिवा कोई दुसरा अभिनेता होता तो ये फ्लॉप हो गई होती। त्रिपाठी जी और निर्देशक सतीश कौशिक इस फिल्म के असली सितारें हैं। फिल्म में सतीश कौशिक, एम मोनल गज्जर, मीता वशिष्ठ, अमर उपाध्याय, नेहा चौहान, संदीपा धर, ब्रिजेंद्र काला ने अच्छा अभिनय दिखाया है।
इनमे मोनल गज्जर प्रभावित करती हैं। हालांकि फिल्म में आइटम सांग डालने की आवश्यकता नहीं थी। जहाँ पंकज त्रिपाठी जैसा निष्णात अभिनेता हो, वहां ऐसी स्तरहीन कारगुज़ारियों से बचना चाहिए। निर्देशक को फिल्म में लाल बिहारी का सही व्यवसाय दिखाना चाहिए था। वे कृषक थे लेकिन निर्देशक ने उन्हें बैंड-बाजे वाला बताया है। ऐसा करने से फिल्म की वास्तविकता बहुत सीमा तक प्रभावित होती है।
कुछ कमियों और ढेर सारी अच्छाइयों वाली इस फिल्म को पंकज त्रिपाठी के लिए देखा जाना चाहिए। इस फिल्म का प्रोडक्शन सलमान खान फिल्म्स ने किया है। संभवतः उनके प्रोडक्शन से पहली बार कोई ऐसी फिल्म निकली है, जो सार्थक कही जा सकती है।
हालाँकि इस सुंदर फिल्म के लिए नब्बे प्रतिशत क्रेडिट निर्देशक की सूझबूझ को जाता है। फिल्म के अंत में पंकज त्रिपाठी लाल बिहारी के साथ साइकिल चलाते दिखाई देते हैं। इस दृश्य में आप ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि पंकज त्रिपाठी ने ‘लाल बिहारी’ के व्यक्तित्व को कैसे आत्मसात कर लिया है।
बहुत सुन्दर
बहुत धन्यवाद