मनीष ठाकुर। रजत शर्मा के जनता की अदालत प्रोग्राम का मैं कायल रहा हूं. लगभग 25 साल में शायद ही कोई शो हो जो मैने बारिकी से नहीं देखी हो। मेरा लगातार मानना है कि हिंदुस्तान में हिंदी और अंग्रेजी का कोई भी पत्रकार रजत शर्मा से बेहतर इंटरव्यू नहीं लेता। मैं उनके चैनल का प्रशंसक कभी नही रहा लेकिन हमेशा माना कि एक पत्रकार को साक्षात्कार का सलिका रजत शर्मा से सिखना चाहिए। 25 साल में महज दो से तीन बार मैने पाया कि उन पर अदालत में पेश उनका अभियुक्त हावी हो गया। वर्ना वो तो गेस्ट को कभी मिसरी की घोली तो कभी मिरची की घोली पिला कर मारते और फिर जिंदा करते हैं।
टीवी पर शर्मा का पत्रकार न कभी अहंकार में दिखता है न सतही नॉलेज वाला मक्खनबाज लगता है। लेकिन उन्हें पसीने पोछने को मजबूर किया एक बार खुशवंत सिंह, फिर रामजेठमलानी और सुब्रमण्यम स्वामी ने। आज उसमें अमित शाह का नाम जोड़ सकता हूं। रजत शर्मा कोशिश करते रहे अपने लाजवाब तरीके से पत्रकारिता की घुट्टी शाह को पिलाने की और इस प्रयास मे वे कई बार हांफते नजर आये। कोई अमित शाह को तड़ीपार या बनिया कह कर नजरअंदाज कर सकता है लेकिन घंटेभर के साक्षात्कार को देखकर एहसास हुआ कि उन्हे नजरअंदाज करने वाले वही भूल करेंगे जो गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री के साथ कर चुके हैं। शाह की सख्ती और उनका नैतिक बल लगातार रजत शर्मा को बौना साबित कर रहा था।
रजत लगातार जनता के नाम पर सवाल कर रहे थे कि आम आदमी के पास पैसे नहीं और कोई करोड़ो के साथ पकड़ा जा रहा है। जवाब “तो पकड़ा जाना गलत है क्या? आप चिंता न कीजिए कोई यह सोच ले कि उसने अपना पूरा पैसा बैंक में जमाकर काला से सफ़ेद कर लिया है तो वह भूल कर रहा है। दरअसल सरकार की हर एकाउंट पर नजर है, रजत जी आप अपना काला धन छूपा कर तो देखिए”। अमित शाह के इस सवाल ने फिर रजत जी को सकते में डाल दिया। वो कहते नजर आए हमारे पास कहां है, हम तो आप से मांग लेगें।
रजत शर्मा के एक-एक सवाल पर शाह का जवाब साबित कर रहा था कि उन्हें जितने हल्के में लिया जा रहा है वो बुद्धिजिवियों की वही भूल है जो वो गुजरात के एक मुख्यमंत्री के साथ वे कर चुके हैं। सच है कि नोटबंदी से परेशानी बेहिसाब है, लगातार है, लेकिन यदि सरकार यह भरोसा दिलाने में सफल हो गई कि अपना कालाधन बैंक में जमाकर चुके लोग चैन की नींद नहीं सो सकेंगे, कर चोरों से हासिल 50 से 75 प्रतिशत पैसा सरकार अपनी योजनाओं मे लगाएगी तो कोई भूंकप की भले ही भविष्वाणी कर ले लेकिन भविष्यवक्ता नहीं बन सकता। नोटबंदी का फैसला किसी तानाशाही या कम्यूनिस्ट सरकार के लिए तो संभव है एक विशाल लोकतांत्रिक व्यवस्था में दुस्साहस का फैसला है। लेकिन वो ले लिया गया है।
इंतजार इस बात का है कि चुनावी व्यवस्था में यह फैसला कौन सा रंग दिखाता है? अमित शाहकी बॉडी लैंग्वेज ने मुझे कभी प्रभावित नहीं किया। कई बार वे कहाँ से कहाँ पहुंच गए? लेकिन लगता है इसी बॉडी लैंग्वेज की पत्रकारिता पर भरोसा बड़ी भूल होगी। जौ नैतिक बल इस युगल जोड़ी में दिख रहा है उसे नजरअंदाज करने के लिए हम बस आंख ही मूंद सकते है। लेकिन वक्त का इंतजार तो कर ही सकते हैं। रजत जी भी करेंगे।