लाओत्से ने कहा है: एक कदम से हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। दो कदम की जरूरत भी किसे है? एक बार में एक ही कदम उठता है। एक-एक कदम उठाते-उठाते हजारो मील की यात्रा पूरी हो जाती है। लेकिन एक कदम उठाना आ जाये! मनुष्य के साथ एक नये तत्त्व का सूत्रपात होता है, मनुष्य के साथ परमात्मा एक नया कदम लेता है।
प्रकृति है अचेतन विकास, परमात्मा है सचेतन विकास, मनुष्य है मध्य की कड़ी, और तुम्हारे हाथ में है। तुम जैसे द्वार पर खड़े हो, डयोढ़ी पर खड़े हो..पीछे पूरी प्रकृति है, आगे परमात्मा है! तुम द्वार के मध्य में खड़े हो। तुम अगर जरा ही आलस्य करो तो तुम पीछे हट जाओगे। क्योंकि एक बात ख्याल रखना, जगत में कोई भी चीज थिर नहीं है। अगर तुम आगे न बढ़े तो पीछे हटना पड़ेगा। रुकना यहां होता ही नहीं। कोई रुकना चाहे तो रुक नहीं सकता। रुकना असंभव है! चलना ही होगा!
जीवन गति है। अगर आगे न गये, पीछे फेंक दिये जाओगे। अगर ऊपर न उठे, नीचे गिरा दिये जाओगे। यह मत सोचना की जहां हैं कम-से-कम वहीं बने रहेंगे। ऐसी कोई घटना होती नहीं। कोई भी वहां नहीं हो सकता जहां है। अगर तुम वहां भी रहना चाहो जहां हो, तो भी आगे बढ़ने की कोशिश करते रहना। अगर अपनी ही जगह खड़े रहना हो तो भी आगे बढ़ने की सतत चेष्टा जारी रखनी जरूरी है। तो अपनी ही जगह पर दौड़ते रहना है..जागिंग; मगर रुकना मत। रुके कि प्रवाह तुम्हें नीचे ले जायेगा।
तुमने कभी तीव्र नदी की धार में खड़े होकर देखा है? ..कि अगर तुम्हें अपनी ही जगह पर खड़े रहना हो तो भी संघर्ष करना पड़ता है; तो भी तुम्हें धार से लड़ना पड़ता है। अपनी ही जगह खड़ा रहना हो तो भी, क्योंकि रेत भागी जा रही है, धार बही जा रही है। अगर तुम सिर्फ खड़े रहे तो नदी तुम्हें ले जायेगी। रुकने पर भरोसा मत करना; रुकना होता ही नहीं अस्तित्व में।
अस्तित्व तो सतत प्रक्रिया है, गति है, गत्यात्मकता है। एक-एक क्षण या तो तुम आगे जा रहे हो या पीछे जा रहे हो। यह भरोसा मत करना कि कम-से-कम वहीं खड़े हैं। ऐसा होता ही नहीं। डयोढ़ी पर खड़े हो, अगर पीछे देखते रहे तो प्रकृति तुम्हें खींच लेगी। अतीत को भूलना जरूरी है। बरातियों के साथ कब तक बने रहोगे? माना कि दूल्हा बरात में होता है, लेकिन बरात के आगे होता है, घोड़े पर सवार होता है, बरात से अलग होता है।
माना कि बरात दूल्हे की है; लेकिन दूल्हा बरात का हिस्सा नहीं है। दूल्हा बराती नहीं है; दूल्हा पृथक है। बरात दूल्हे के साथ आई है; दूल्हा बरात के साथ नहीं आया है। दूल्हे को आगे जाना है। बरात का काम तो पूरा हो जायेगा, जैसे ही दूल्हा आगे गया! बरात की यात्रा तो दूल्हा और दुल्हन के मिलने पर पूरी हो जायेगी; दूल्हे की यात्रा शुरू होगी।
यह प्रकृति तुम्हें इस द्वार तक ले आई..वह बरात है; उसकी यात्रा पूरी हो गई। तुम लौट कर धन्यवाद दे दो। दूर तक उसने साथ दिया। काफी दूर तुम्हें ले आई। तुम्हें वहां तक ले आई जहां तुम अपने पैरों पर खड़े होने में समर्थ हो सको। बरातियों को धन्यवाद दे दो। इतने दूर आये, यह भी क्या कम है! यहां तक ले आये, यह भी अनुग्रह है। लेकिन तुम्हारी यात्रा वहीं शुरू होती है जहां बरात की यात्रा पूरी होती है। ‘लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात। दुलहा-दुलहिन मिल गए, फीकी पड़ी बरात।।’
ओशो
गूंगे केरी सरकरा