विपुल रेगे। ओटीटी पर अप्रैल माह में एक उत्कृष्ट फिल्म आकर चली गई। इसकी चर्चा मीडिया में भी नहीं हुई। आरक्षण समस्या पर बनी ‘हुड़दंग’ एक प्रभावी फिल्म है। ये फिल्म भारतीय सिस्टम पर उचित प्रश्न उठाती है और बताती है कि आरक्षण के विरुद्ध किया गया आंदोलन कैसे राजनीति की कुटिलता का शिकार हो गया। नब्बे के दशक की पृष्ठभूमि पर बनी ये फिल्म सिस्टम की कालिख को और गाढ़ा करके दिखाती है।
ओटीटी मंच : नेटफ्लिक्स
ये कहानी इलाहाबाद के विश्वविद्यालय से शुरु होती है। दद्दू ठाकुर नामक युवा राजनेता अपना भविष्य सिविल सेवा में बनाना चाहता है। राजनीति उसके लिए पार्ट टाइम जॉब है। उसकी एक प्रेमिका है, जो स्वयं आईएस की तैयारी कर रही है। इधर सरकार मंडल कमीशन लागू कर जातीय आरक्षण व्यवस्था लाना चाहती है। इस बात का पता चलते ही इलाहाबाद में सामान्य वर्ग के छात्र आंदोलन शुरु कर देते हैं। इस स्वस्फूर्त आंदोलन को राजनेताओं द्वारा कैप्चर कर लिया जाता है।
दद्दू ठाकुर का इस्तेमाल राजनीतिक लाभ के लिए किया जाता है। निर्देशक निखिल भट्ट की इस फिल्म में प्रभावी ढंग से दिखाया गया कि एक सच्ची मांग को लेकर शुरु किया आंदोलन नेताओं के लिए पार्लियामेंट में चढ़ने की सीढ़िया बन जाता है। नब्बे के दशक में एक बुरी व्यवस्था को स्थापित करने के लिए क्या-क्या जतन किये गए, उसकी झलक फिल्म में मिलती है। कहानी इलाहाबाद से बाहर जाकर राष्ट्रीय नहीं होती, इसलिए इस व्यवस्था को स्थापित करने वाले ‘केंद्रीय अपराधी’ बच जाते हैं।
दद्दू ठाकुर की भूमिका सनी कौशल ने निभाई है। उनके भीतर एक स्पार्क दिखाई देता है। सनी के भीतर दिवंगत सुशांत सिंह राजपूत की छवि झलकती है। वे एक स्वाभाविक अभिनेता हैं। झूलन यादव की भूमिका नुसरत भरुचा ने निभाई है। नुसरत ने अपनी पिछली फिल्मों से सिद्ध किया है कि वे एक मंझी हुई अभिनेत्री हैं। इस फिल्म में नुसरत और सनी का लव ट्रेक सहज और स्वाभाविक लगता है और दर्शकों को पसंद आता है। विजय सिंह हिन्दी फिल्मों के उभरते हुए अभिनेता हैं।
फिल्म में उन्होंने ‘लोहा सिंह’ की भूमिका निभाई है। जिस ढंग से आरक्षण विरोधी आंदोलन को कुचला गया था, उसमे से अन्याय की दुर्गन्ध आती है। फिल्म में बखूबी दिखाया गया है कि आरक्षण के विरुद्ध लड़ने वालों पर सरकार ने किस ढंग की क्रूरता दिखाई थी। आरक्षण आंदोलन पर बनी एक उत्कृष्ट फिल्म आती है और बिना शोर चली जाती है। भारत में मीडिया का दोगला रवैया इसके लिए जिम्मेदार है। वह ऐसी फिल्मों को दबा देता है, जिन्हे देखकर युवाओं में विमर्श हो, वे अपनी सरकार से प्रश्न पूछे। ये एक दर्शनीय फिल्म है और युवाओं को अवश्य देखनी चाहिए।
Kya research Kiya hai isme ,Google se copy paste Kiya hai tum logo ne . Film dekha bhi hai ?
Aur muh utha k 100 rs mangne lage na koi mehnat na he koi research .
Tera ye contant kahi bhi good par mil jayega