कमलेश कमल । दो सामान्य से प्रश्न हैं: 1.भारत की सबसे बड़ी मस्ज़िद कौन सी है? 2. भारत का सबसे बड़ा मंदिर कौन सा है?? पहले प्रश्न का उत्तर तो लगभग हर सामान्य पढ़े लिखे आदमी को पता है, परंतु दूसरे प्रश्न का उत्तर बहुत कम लोग दे पाते हैं। इसका क्या कारण है?
इसका कारण है कि वर्षों से हमारे पाठ्यक्रम में यह तो पढ़ाया गया कि जामा मस्ज़िद भारत की सबसे बड़ी मस्ज़िद है, जो लगभग 6 एकड़ क्षेत्र में फैला है; परंतु यह नहीं पढ़ाया गया कि तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में स्थित श्रीरंगनाथस्वामी मंदिर भारत का सबसे बड़ा मंदिर है जो लगभग 156 एकड़ में फैला है। इसी तरह हमें यह तो पढ़ाया गया कि अकबर महान् था, लेकिन यह नहीं पढ़ाया गया कि राजा विक्रमादित्य, राणा कुम्भा आदि कितने महान् थे।
अयोध्या के पास ही स्थित लख़नऊ को नवाबों का शहर कहकर इतना प्रचारित-प्रसारित किया गया कि आज ठीक-ठाक पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी यह नहीं जानता कि यह श्रीराम के भाई लक्ष्मण का नगर है। तहज़ीब और भाईचारे के इस शहर की ऐतिहासिक सच्चाई है कि यह प्राचीन कोसल राज्य का हिस्सा रहा है। जब श्रीराम ने इसे अपने अनुज लक्ष्मण को समर्पित किया, तब इसका नाम लक्ष्मणावती हुआ। भाई-भाई के प्रेम का प्रतीक यही प्राचीन नगर लक्ष्मणावती आगे कालांतर में लखनपुर और फ़िर लखनऊ हो गया। यह विचारणीय है कि आज कितने प्रतिशत पढ़े-लिखे युवा इस तथ्य को जानते हैं!
नालंदा विश्वविद्यालय को जलाने वाले बख़्तियार ख़िलजी के नाम पर बख़्तियारपुर नामक शहर है– लेकिन उसे पराजित करने वाले असम के हिन्दू राजा के नाम का मूल पाठ्यक्रम में समुचित उल्लेख तक नहीं मिलता– इससे पता चलता है कि राष्ट्रीय अस्मिता बोध के विकास हेतु सरकारों द्वारा कभी ठोस प्रयास किया ही नहीं गया।
स्मरण आता है कि महज़ कुछ वर्ष पूर्व ही जब उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्राचीन नगरों के नाम से हुई इस घिनौने छेड़छाड़ को ठीक करने की मुहिम छेड़ी, तो इसका स्वागत करने की जगह एक तबके ने इसका विरोध किया। इसकी महत्ता को समझने के लिए जिस ऐतिहासिक दृष्टि और राष्ट्रीय अस्मिता बोध की आवश्यकता थी, उसका अभाव ही किञ्चित् इसका कारण था। हाँ, जब किसी भी सरकार द्वारा ऐसे कार्य किए जाते हैं, तब जनमानस भी इस ओर सचेष्ट हो जाता है। पिछले दिनों हमने देखा कि अकबर रोड को बदलकर विक्रमादित्य मार्ग और औरंगजेब रोड को बदलकर महाराणा प्रताप मार्ग बनाने की माँग भी उठने लगी।
सच है कि जो सनातनी गौरव और मूल्य अक्षुण्ण रह सके, उनके पीछे लोक-परंपरा है। सत्ता और सरकारों का उसमें किञ्चित् ही कोई योगदान है। धर्म ग्रंथों, साहित्यिक ग्रंथों और लोक-कथाओं, गीतों के माध्यम से हर पीढ़ी ने अपनी अगली पीढ़ी को सनातनी विरासत और ज्ञान की थाती को सौंपने का कार्य किया।
तात्त्विक विवेचन से यह उद्घाटित होता है कि अनेकानेक षड्यंत्रों, दुरभिसंधियों से सनातनी मान्यताओं पर कुठाराघात किया गया। एक ऐसा विषैला वातावरण निर्मित किया गया जिसमें सनातन से जुड़ी स्थापनाओं का मज़ाक उड़ाया गया। ऐसा लगने लगा मानो तिलक लगाना पिछड़ापन है, यज्ञ और हवन अवैज्ञानिक हैं। बिना किसी ठोस आधार के पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण करते हुए भारतीय संस्कृति की आधारभूत स्थापनाओं को नकारा जाने लगा।
ध्यातव्य है कि ‘प्रश्न करना’ और ‘मजाक उड़ाना’ दो ऐसी क्रियाएँ हैं जिनमें वैपरीत्य है- ठीक ऐसे ही जैसे ‘तर्क करना’ और ‘कुतर्क करना’ विविध आयामों से विरोधी संक्रियाएँ हैं। प्रश्न करना और तर्क करना आधुनिकता-सूचक है, अग्रगामिता है, ज्ञान-पिपासा है, ज्ञान का संधान है। इसके विपरीत ‘मजाक उड़ाना’ और ‘कुतर्क करना’ पश्चगामिता है, बौद्धिक विकलांगता है, मानवीय संस्कृति की विकास यात्रा में पीछे छूटने का परिचायक है।
प्रश्न कोई भी कर सकता है। उसका स्वागत हो, न कि विरोध। जो समाज जितना बन्द होता है, वहाँ प्रश्न और तर्क करने की उतनी ही कम छूट होती है। सनातन संस्कृति तो शास्त्रार्थ की संस्कृति रही है, तर्क की विचारसरणी रही है।
किसी विश्वास में, मत में या किसी ग्रंथ में सब अच्छा ही है, यह सनातन की सोच नहीं है। नोट करें कि ग्रंथ का अक्षर-अक्षर पवित्र और दोषमुक्त हो…यह सनातनी भावना है ही नहीं। यहाँ तो वैभिन्न के सम्मान की परम्परा है।
वायुपुराण कहता है-
मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना कुंडे कुंडे नवं पय:,
जातौ जातौ नवाचारा: नवा वाणी मुखे मुखे।
अर्थात् जितने मनुष्य हैं, उतने ही विचार हैं। एक ही स्थान के अलग अलग कुँओं के पानी का स्वाद अलग-अलग होता है। एक ही संस्कार के लिए अलग-अलग जातियों में अलग-अलग रिवाज होता है तथा एक ही घटना का वर्णन हर व्यक्ति अपने ढंग से अलग-अलग करता है।
एक उदाहरण देखिए कि वेद को धर्म का मूल कहा गया है पर स्वयं गीता में लिखा है कि कुएँ की आवश्यकता तब तक है जब तक आदमी को पानी की प्यास है और सामने सरिता का प्रवाह नहीं है, पर प्यास बुझ जाने या सामने नदी लहरा रही हो तो कुएँ की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती– ठीक इसी तरह वेद की आवश्यकता भी तभी तक है जब तक जीवन के प्रयोजन की जिज्ञासा है, जब जीवन ब्रह्ममय हो जाए तब इसकी कोई आवश्यकता नहीं रहती।
सनातन संस्कृति में इतना वैभिन्य और इतना वैचित्र्य है कि कभी-कभी परस्पर विरोधी संकल्पनाओं से हमारा साक्षात्कार होता है और अपने आप में कोई ग़लत नहीं होता। यहाँ शास्त्राचार है तो लोकाचार भी है। यदि सनातन धर्म शुद्ध रूप से कोई पोथी-केंद्रित धर्म होता तो पशुयाग और गोमेध आज भी हो रहे होते। यह तो सर्वभूतों के हितों के रक्षण की व्यवस्था करने वाला एक सतत विकसनशील और कल्याणकारी धर्म है।
यहाँ आप तर्क कर सकते हैं, विरोध कर सकते हैं। त्याग को पकड़िए, भोग को पकड़िए… स्वतंत्रता है। लेकिन जो भी करें, गहराई में उतरकर करें, उथले न बनें। कुछ लोग गहराई में उतरकर अध्ययन नहीं करते, बस कुछ वैचारिक वमन करने, कुछ उद्धृत करने (Quote) के लिए 2-4 पंक्ति पढ़ लेते हैं, या गूगल कर लेते हैं। ऐसे लोगों को उद्धृत करने (Quote), पढ़ने(read), अध्ययन करने (study) और मनन करने (contemplation) के क्रम और अंतर को समझने की भी आवश्यकता है। छिछला ज्ञान कभी-कभी बड़ा शोर करता है, जिसके लिए हिंदी में मुहावरा बना- “थोथा चना बाजे घना।”
माना जाता है कि योग्य व्यक्ति से प्रश्न करना उत्तम मानसिक स्वास्थ्य का संकेतक है। ऐसे में, प्रश्नकर्ता को भी चाहिए कि सही व्यक्ति से सही समय पर और सही रीति से प्रश्न करे।
धर्म और अध्यात्म से संबंधित प्रश्न को किसी से भी पूछ देना ऐसा ही है जैसे भौतिकी का प्रश्न किसी गड़ेरिए से करना। यहाँ तक कि धर्म के मामले में भी कोई विद्वान् सभी मामले का जानकार नहीं हो सकता। यहाँ कुछ बातें प्रतीकात्मक हैं, कुछ गूढ़ दार्शनिक, कुछ मिथकीय, कुछ विभिन्न साधना पद्धतियों से सम्बद्ध, कुछ जन-श्रुतियाँ तो कुछ प्रक्षिप्त। ऐसे में अत्यधिक सावधानी और समझदारी की अपेक्षा की जानी चाहिए।
स्पष्टता के लिए एक महत्त्वपूर्ण तथ्य द्रष्टव्य है कि सनातन सत्य और ऋत का सहज, सरल और सुमिलित गठबंधन है। यह सृष्टि के साथ तादात्म्य या सहकार का धर्म है अर्थात् यह मनुष्य और प्रकृति को अविलग देखती है। इसके जितने भी अनुष्ठान हैं, वे इस तादात्म्य के साधन हैं।
प्रकृति से सहकार देखिए कि ऋतुचक्र के साथ ही यज्ञ का विधान दिखता है– आग्रयणेष्टि (मार्गशीर्ष या नवंबर में शरद ऋतु की समाप्ति के बाद), चैत्र में फसल पकने पर चैत्री या शूलगव, श्रावण में श्रावणी, आश्विन में श्राद्ध यज्ञ, वर्षा में चातुर्मास्य होते थे। इसके अतिरिक्त प्रति अमावस्या और पूर्णिमा को दर्श पौर्णमास्य इष्टि का विधान हमें सनातनी परम्परा में दिखता है। महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि ऋतुओं के मोड़ के साथ यज्ञ को जोड़ने का अर्थ था यज्ञ को ऋत के रूप में देखना।
यज्ञ आदि सनातनी परंपराओं पर प्रश्न करने के पहले हमें पहले समझना होगा कि ये वास्तव में क्या हैं, इनका प्रयोजन क्या है, इनकी उपयोगिता क्या रही है। यज्ञ और उपासना को क्रमशः सनातन का बाह्य और आभ्यन्तरिक पक्ष समझा जा सकता है। यज्ञ-संस्था वैदिक काल में सामाजिक संस्था थी, जिसमें समाज की संहत इकाई परिलक्षित होती थी और किञ्चित् इसलिए यज्ञ का विकास ब्रह्म के साक्षात्कार में हुआ।
भाषिक इतिहास को देखें, तो प्रारम्भ में ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ था मंत्र और मंत्र बोलने वाला। अब यज्ञ में भी मंत्र ही उच्चरित होते थे तो क्रमागत रूप से यज्ञ ‘ब्रह्म’ हुआ और समूची सृष्टि ही यज्ञ की भावना से भावित हुई।
मंत्र शब्द का व्युत्पत्ति के आधार पर अर्थ है– मनन का साधन। मंत्र के द्वारा जो उपस्थिति भावित हो, वही उपस्थिति यज्ञ के लिए वास्तविक उपस्थिति है। इस अर्थ में यज्ञ संयोजक है– प्रकाश और अप्रकाश का, अग्नि और सोम का, आत्मा और अनात्मा का, देव और मनुज का।
हमें जानना चाहिए कि जो मंत्र पढ़ता था, वह देवता की शक्ति का आवाहन करता था, इसलिए वह भी ‘ब्रह्मा’ कहलाया। इसलिए आज भी यज्ञोपवीत, विवाह आदि संस्कारों में मंत्र पढ़ने वाले को ‘ब्रह्मा’ कहा जाता है। वहाँ कोई यह कह कर मज़ाक उड़ाने लगे कि कोई व्यक्ति स्वयं ‘ब्रह्मा'(ईश्वर) कैसे हो गया, तो यह उसके ज्ञान की सीमा कही जाएगी, न कि सनातन की।
जो लोग यज्ञ को केवल अग्नि से जोड़कर देखते हैं, उन्हें ऐतरेय ब्राह्मण का संदर्भ देखना चाहिए जिसमें कहा गया है कि बाहर की अग्नि तो प्रतीकमात्र है, वस्तुतः अग्नि तो अपने भीतर है– “आत्मन्येव हिता भवन्ति।”
इस तरह स्पष्ट है कि यज्ञ बाहरी वस्तु का अग्नि में प्रक्षेप मात्र नहीं है अपितु इसमें तो यजमान स्वयं अपने को अर्पित करता है विभिन्न प्रतीकात्मक अनुष्ठानों से। गीता में तो जप को सबसे बड़ा यज्ञ कहा गया है और साक्षात् श्रीकृष्ण का स्वरूप कहा गया है– “यज्ञानां जपयज्ञोस्मि।”
इतना ही नहीं, पढ़ना-पढ़ाना भी यज्ञ है जिसे ब्रह्मयज्ञ या ऋषियज्ञ कहा गया जिसके अंतर्गत स्वाध्याय, मंत्र, निदिध्यासन आदि है–
“अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ: पितृयज्ञस्तु तर्पणम्।
होमो दैवो बलिभौरतो नृयज्ञोतिथिपूजनम्।।”
प्रारंभ में देवता के निमित्त प्रिय अन्न या भोज्य पदार्थ अर्पित किया जाता था और अर्पण करते समय उसका मंत्र द्वारा आवाहन किया जाता था या कहें कि मंत्रोच्चारण के साथ देवता की उपस्थिति भावित होती थी। मंत्र का नाम ‘ब्रह्म’ इस कारण ही हुआ कि वह देवशक्ति का वर्धन करता था– “यस्य ब्रह्म वर्धनं” (इन्द्रसूक्त, ऋग्वेद)
सनातन धर्म पर कोई भी टिप्पणी करने के पहले यह जानना चाहिए कि इसके चार प्रमुख अंग हैं–
वेद, स्मृति, सदाचार और आत्मानुकूलता–
“वेदः स्मृति: सदाचार: स्वस्य च प्रियमात्मन:।
एतच्चतुर्विधं प्राहु: साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ।। मनुस्मृति (2/12)” इसका अर्थ है कि शास्त्र का ज्ञान कोई ठहरा हुआ ज्ञान नहीं है, यह वेद से परिभाषित है, स्मृति सदाचार से और सदाचार अपनी अनुकूलता से। इससे स्पष्ट होता है कि शास्त्र हमारे यहाँ कोई जड़ वस्तु नहीं, अपितु निरंतर जीवन में उतरते रहने वाला एवं स्मृति और अनुकूलता से समृद्ध होने वाला मनुष्य का निरंतर अनुभव है। यहाँ ज्ञान आचरण में उतरे बिना अधिक मूल्य का नहीं माना जाता।
इसी तरह हिंदू जीवन दर्शन की तीन मूल स्थापनाओं जन्मांतरवाद, कर्मवाद और आनृण्य को समझे बिना बहुत सी बातें समझ नहीं आएँगी, जैसे गणित या भौतिकी के कुछ सूत्रों को समझे बिना उनके प्रश्न हल नहीं हो सकते। ऐसे में धैर्य के साथ जानने-समझने की कोशिश होनी चाहिए।
उदाहरण के लिए भक्ति का मार्ग आपको पसंद नहीं आता तो इस पर प्रश्न करने के पहले देखिए कि सनातन इस बारे में क्या कहता है– आपको पता चलेगा कि बाह्य पूजा सरल लोगों का मार्ग है। जो बाह्य पूजा में आडम्बर देखते हैं, उनके लिए अलग विधान है। वे ज्ञान मार्ग पकड़ें, योग मार्ग पकड़ें, कर्म मार्ग पकड़ें, जप करें, निराकार का ध्यान करें, समाहित चिता से प्राणों का प्राणों में होम करें, कुंडलिनी साधें, सनातन-प्रवाही सत्य को अपने जीवन की सच्चाई और सिधाई में उतारें। जिन्हें तीर्थयात्रा से परेशानी है उन्हें जानना चाहिए कि सनातन में तीर्थ क्या है और उसके कितने प्रकार हैं। तीर्थ वह है जहाँ से आप पार उतरते हैं। गुरु भी तीर्थ हैं और शास्त्र भी तीर्थ हैं। आप अच्छी पुस्तकों का अध्ययन करें। मतलब यह कि सनातन बहुविधता को नष्ट नहीं करता, उसको सम्मान देता है, सार्थकता देता है।
तथ्य यह है कि किसी पुरातन प्रथा, श्लोक, मान्यता आदि का सीधे मज़ाक उड़ाना अल्हड़ता, फूहड़ता, हीनभावना, गुस्सा आदि में से किसी एक या अनेक का परिचायक हो सकता है, लेकिन अगर बड़ी और भारी कुल्हाड़ी उठाने का अभ्यास और सामर्थ्य नहीं, तो इसे उठाने वाला स्वयं घायल होगा, यह तय है। ध्यान दें कि Philosophy के foolish use (दर्शन का मूर्खतापूर्ण प्रयोग) और logic के illogical use (तर्क का अतार्किक उपयोग) ने इस देश का बेड़ा गर्क किया है
अज्ञानता की भट्ठी में जब तर्क पकता है, तो यह या तो फूहड़ होता है या विषैला। जब पहले से ही कुछ उत्तर सोच लिया गया हो या उद्देश्य ही किसी को तंग करना हो, तब प्रबल संभावना है कि बुद्धि की भट्ठी से विषैला धुँआ ही निकलेगा। दिक़्क़त यह भी है कि ऐसे तर्क देने वाले को इसका अंदाज़ा नहीं होता कि उसने क्या एकांगी, घटिया, अधकचरा या कचरा सोचा या उगला है। उसे तो लगता है कि उसने कोई तोप का गोला दाग दिया है।
एक तथ्य यह भी है कि धार्मिक ही नहीं किसी भी विषय की मीमांसा; अध्यवसाय, वैचारिकी और तार्किकता का एक न्यूनतम स्तर और गाम्भीर्य की अपेक्षा रखती है। क्या 9वीं कक्षा की भौतिकी में light chapter में अर्जित ज्ञान के स्तर पर मोतियाबिंद का ऑपरेशन किया जा सकता है? (स्मरण रहे वहाँ भी इसकी चंद पंक्तियों में चर्चा और निदान है, जिसे आगे कोई नेत्र-रोग विशेषज्ञ (ophthalmologist) अपने MBBS के वर्षों को सफलतापूर्वक पूर्ण करने के बाद 2-3 वर्ष और देकर सीखता है। यही बात सामाजिक विज्ञान में है, भाषा-विज्ञान में है और अध्यात्म तथा धर्म के परिक्षेत्र में भी है।
मन्तव्य यह कि वैचारिकी के जगत् में आगे बढ़ने के लिए अध्ययन की ही सीढ़ियों से ही गुजरना होता है। अध्यवसाय को व्रत बनाना होता है। इनमें बाधक तत्त्व जैसे- काम, लोभ, क्रोध, ईर्ष्या, हीनभावना आदि अज्ञान से ही उपजते हैं, जिनसे मुक्ति के लिए ज्ञान से बड़ा कोई यज्ञ नहीं।
“न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।”
धर्म से संबंधित बकवास बातें जो आपको दिखती हैं, उनपर पढ़िए। मिलावट है, प्रक्षिप्त है या क्या है– जानने समझने के लिए पढ़िए। उनकी कमी निकालने, उसे छिन्न-भिन्न करने के लिए ही पढ़िए लेकिन ख़ूब पढ़िए। और लोगों को भी आपसे पहले यह लगा होगा, आप अकेले इतने तार्किक पैदा नहीं हुए हैं। जो महान् तार्किक आपसे पहले हुए, उन्होंने भी पढ़कर ही इसे जाना या काटा; facebook या व्हाट्सअप पर ओछे वाग्विलास से नहीं। तो ढूँढिए! उनमें कुछ ठीक होंगी और कुछ सच ही बकवास होंगी। लेकिन यह तय मानिए कि आप स्वयं संशय में नहीं रहेंगे, और आँख बंद कर हवा में तीर नहीं मारेंगे। आपका मन दर्पण की तरह साफ हो जाएगा।
भारत में सूचना क्रांति और सोशल मीडिया के प्रसार से शिक्षण, चिंतन और लेखन के क्षेत्र में दूरगामी पर सुखद परिवर्तन हुए। अब तक अकादमिक और मीडिया समूहों में वामपंथियों का वर्चस्व था और जो लेखन और जो सूचनाएँ इस विषैले वामपंथी तंत्र से परोसी जाती थीं, उसे पढ़कर-मानकर ही युवा आगे बढ़ जाते थे।
मन में शंकाओं के बादल उमड़ते-घुमड़ते हुए भी उनके पास कोई विकल्प नहीं होता था। सोशल मीडिया और सूचना क्रांति ने उनके पास यह विकल्प दिया कि न केवल विभिन्न स्रोतों से सूचनाएँ एकत्रित कर सके, अपितु अपने मनोभावों की बेबाक अभिव्यक्ति भी कर सके। आज की पीढ़ी उन तमाम नैरेटिव पर प्रश्न करती है, जो कल तक लोग सोच कर रह जाते थे। आज की पीढ़ी कहती है कि भारत की सबसे बड़ी मस्ज़िद कौन है अगर आरंभ से ही पाठ्यपुस्तकों का हिस्सा है, तो भारत का सबसे बड़ा मंदिर कौन है यह पाठ्यक्रम का हिस्सा क्यों नहीं??