सृष्टि के पहले भी था वो , सृष्टि के भी बाद रहेगा ;
धर्म सनातन सदा रहा है , धर्म सनातन सदा रहेगा ।
सारे मजहब ऐसे समझो , जैसे सागर की लहरें हैं ;
धर्म सनातन तो सागर है , उसमें लहराती लहरें हैं ।
यही ब्रह्म है , यही सत्य है , यही ज्ञान है , ये ही नश्वर ;
महाप्रलय के बाद भी रहता, इसी को जानो अपना ईश्वर ।
ईश कृपा को वे ही पाते , निस्पृह होकर सुकृत कर रहे ;
ईशकृपा से गुरु मिलता है , बाकी सारे भटक रहे ।
गुरु की कृपा उन्हें ही मिलती,श्रद्धा से जो श्रवण हैं करते ;
सच्चा ज्ञान उन्हें गुरु देता, श्रवण मनन निधिध्यासन करते।
अज्ञान का पर्दा हट जाता है , आत्मकृपा तब हो जाती है ;
माया सभी नष्ट हो जाती , केवल आत्मा रह जाती है ।
कुछ भी पाना शेष न रहता , तू ही सब कुछ हो जाता है ;
भवसागर के बंध टूटते , अगला जन्म नहीं होता है ।
तीनों काल नष्ट हो जाते , जैसे सपना कभी न होता ;
इसी तरह से जगत को जानो, ईश्वर का सपना ही होता ।
तू सब में है , सब तुझ में है , साफ-साफ दिख जाता है ;
मैं ही मैं हूं कोई न दूजा , स्पष्ट भान हो जाता है ।
ईश्वर का सपना है दुनिया , ईश्वर उसे चलाता है ;
ये सब माया का खेला है , अज्ञानी जीव फंस जाता है ।
इससे केवल वही निकलता ,गुरु की कृपा जो पा जाता है ;
दुख – दारिद्र कभी न रहता , परमानंद पा जाता है ।
जो भी चाहे पा सकता है , ज्ञान- मार्ग में चलना होगा ;
श्रवण मनन निधिध्यासन करके,आत्मसात सब करनाहोगा।
“श्री गुरुवे नमः”
रचनाकार : ब्रजेश सिंह सेंगर “विधिज्ञ”