श्वेता पुरोहित। (ब्रह्मलीन स्वामी श्रीचिदानन्दजी महाराज, सिहोरनिवासी)
एक मदारी ने एक सर्प पकड़ा, उसे अपनी झंपोली में बन्द किया और झोंपड़ी में रख दिया। सर्प तो सुदामा के समान स्वभाव से ही ‘मिले तो खाय, नहीं तो सुख से पड़ा रहे।’ वह उस झेंपोली में आराम से पड़ा रहता था। रात होने पर एक महापुरुषार्थी चूहा पुरुषार्थ करने के लिये बाहर निकला। चूहे का यह स्वभाव होता है कि कपड़ा पाया तो उसे ही कुतर जाय, दिये की बत्ती खा जाय और जो मिले उसी को उठा ले जाय। उस चूहे की दृष्टि अँपोली पर पड़ी, उसने उसके ऊपर अपने पुरुषार्थ की आजमाइश की और देखते-देखते उसमें छेद कर के भीतर घुस गया। सर्पको तो बैठे-बैठे ही भोजन मिल गया और बाहर निकलने के लिये रास्ता भी प्राप्त हो गया। इसलिये आरामसे चूहे को खाकर वह उसके बनाये छेद के द्वारा बाहर निकल गया।
इस प्रकार कुछ लोग प्रारब्ध को बलवान् कहकर उसके समर्थन में उपर्युक्त दृष्टान्त-जैसे अनेकों दृष्टान्त पेश करते हैं और दूसरे लोग पुरुषार्थ को बलवान् बतलाते हैं तथा उसके समर्थनमें अनेक उदाहरण देते हैं। दोनों पक्षों के दृष्टान्त युक्तियुक्त तथा पुराण आदि सङ्ग्रन्थों के आधार पर होने के कारण साधारण आदमी घबरा जाता है और निर्णय नहीं कर पाता कि वस्तुतः सच क्या है?
इस-जैसी ही एक चर्चा मैंने सुनी थी। एक भाई कहता था कि स्वप्न सृष्टि बलवान् है और दूसरा कहता था- नहीं, जाग्रत्सृष्टि ही बलवान् है। यह विवाद उग्ररूप धारण कर रहा था, इतने में एक ज्ञानी पुरुष वहाँ आये और बोले- विवाद न करो, तुम दोनों ही ठीक हो और फिर इस प्रकार समझाया-
स्वप्न काल में स्वप्न सृष्टि बलवान् है; क्योंकि वहाँ जाग्रत् का कोई पदार्थ काम नहीं आता। स्वप्न के ज्वर को उतारने के लिये स्वप्न की ही दवा चाहिये, जाग्रत् की कोई दवा वहाँ काम नहीं आती। स्वप्न में आपरेशन करना हो तो जाग्रत्के छुरी-कैंची काम नहीं देती, बल्कि स्वप्नकी ही छुरी-कैंची चाहिये। इसलिये स्वप्न काल में स्वप्न सृष्टि बलवान् है। जाग्रत्कालमें भूख लगने पर स्वप्न के पकवान कुछ काम नहीं देते तथा जाग्रत्काल की बीमारी में जाग्रत्काल की ओषधि ही काम देती है। इसलिये जाग्रत्काल में जाग्रत्सृष्टि ही बलवान् है। सारांश यह है कि जाग्रत्काल में जाग्रत्सृष्टि बलवान् है और स्वप्नसृष्टि निर्बल है तथा स्वप्नकाल में स्वप्नसृष्टि बलवान् है और जाग्रत्सृष्टि निर्बल है। यही बात प्रारब्ध और पुरुषार्थ की है। अपने – अपने काल में दोनों बलवान् हैं और दूसरे के काल में दोनों निर्बल हैं।
अब इस बात को समझने के लिये एक दूसरा दृष्टान्त लीजिये। एक गृहस्थ के बँगले में एक अच्छा बगीचा है और उस बगीचे में एक ओर एक प्रकार के फूल बहुत बड़ी संख्या में हैं। उस गृहस्थ से मिलने के लिये सबेरे एक भाई आता है और उन दूध के फेन-जैसे सफेद फूलों को देखकर प्रसन्न हो जाता है। दस बजे एक दूसरा भाई आता है और वह गुलाबी रंगके फूलों को देखकर हर्षित हो जाता है, फिर एक तीसरा भाई बारह बजे आता है, उसे टेसू के फूल-जैसे लाल रंग के फूल दिखायी देते हैं और उसको वह दृश्य बहुत सुन्दर लगता है। उसके बाद वे तीनों साथ बैठकर बातें करने लगे। सबेरे आने वाला भाई बोला- ‘उस ओर के सफेद फूल बहुत सुन्दर लगते हैं।’ तब दस बजे आने वाले भाई ने कहा- ‘जान पड़ता है आपकी आँखें कमजोर हैं, फूल तो गुलाबी हैं और आप सफेद कह रहे हैं।’ इतने में तीसरा भाई बोल उठा- ‘आप दोनों को नेत्र- दोष हो गया। मालूम है फूल तो खासे लाल टेसू जैसे चटकीले हैं और आपलोग सफेद और गुलाबी बतला रहे हैं।’ इस प्रकार तीनों आदमी एक-दूसरे की दृष्टि को दोषी ठहराने लगे और विवाद बढ़ गया।
गृहस्वामी ने उनको शान्त कर के समझाया कि ‘भाइयो! आप तीनों ही सच कहते हैं। किसी की भी दृष्टि दूषित नहीं हुई है। ये एक ही फूल सबेरे सफेद रहते हैं, दस बजते-बजते गुलाबी रंग के हो जाते हैं और मध्याह्न होते-होते टेसूके जैसे लाल हो जाते हैं। समय-भेद से एक ही फूल विभिन्न रंग के दीख पड़ते हैं।’
इसी प्रकार समय-भेद से कर्म के भी तीन भेद किये जाते हैं। जैसे –
१. क्रियमाण कर्म – मनुष्य समझ होने के बाद से मृत्यु पर्यन्त ‘मैं कर्म करता हूँ’–इस प्रकार की बुद्धि रखकर जो-जो कर्म करता है, उसे ‘क्रियमाण कर्म’ कहते हैं। क्रियमाण शब्द ‘कृ’ (करना) धातु से कर्मणि प्रयोग में वर्तमानकालिक कृदन्त है। अतएव इसका अर्थ हुआ- वर्तमान काल में होने वाला कर्म। मनुष्य का जीवन काल ही वर्तमान काल है, इसलिये उसके जीवन काल में जो-जो कर्म होते हैं, वे सब क्रियमाण कर्म कहलाते हैं।
२. संचित कर्म – क्रियमाण कर्म तो रोज हुआ करते हैं, उनमें कुछ तो भोग लिये जाते हैं और शेष प्रतिदिन इकट्ठा होते रहते हैं और इस प्रकार चित्तरूपी गोदाम में एकत्रित हुए कर्मों को संचित कर्म कहते हैं। संचित शब्द ‘सम्’ उपसर्ग पूर्वक ‘चि’ (चयन यानी इकट्ठा करना) धातुसे भूत-कृदन्त में बनता है। इसका अर्थ ‘व्यवस्था पूर्वक इकट्ठा हुआ’ होता है। यदि हम प्रतिदिन एक-एक रुपया एक पेटी में छोड़ते जायँ और सालभर के बाद पेटी खोलें, तो उसमें जो रुपया निकलेगा, वह सब एक वर्ष का संचित रुपया कहलायेगा।
३. प्रारब्ध कर्म – चित्त में अनेक जन्मों के संचित कर्म ढेर-के-ढेर पड़े रहते हैं। वे जन्म-जन्मान्तरके संचित कर्म इतने अपार होते हैं कि सृष्टि के आरम्भ से प्रलय तक भोगने पर भी समाप्त नहीं होते। इनमें से मनुष्य के मरने के समय जो-जो कर्मफल देने के लिये परिपक्व होते हैं, वे अलग निकाल लिये जाते हैं और उन कर्मों का फल भोगने के लिये जीव को तदनुकूल देह धारण करना पड़ता है। प्रारब्ध शब्द ‘प्र’ और ‘आ’ उपसर्गपूर्वक ‘रभ्’ (शुरू करना) धातु का भूतकृदन्त रूप है। अतः इसका अर्थ हुआ —भूतकाल में हुए कर्म। अतएव प्रारब्ध कर्म वे हैं, जो गत जन्मों में किये गये हैं और जिनका फल इस जन्म में भोगना है। गत जन्मों के कर्मों को जहाँ ‘प्रारब्ध कर्म’ कहते हैं, वहाँ इस जन्म के क्रियमाण को बहुधा ‘अनारब्ध कर्म’ भी कहते हैं, यानी वर्तमान जन्म में होने वाले कर्म।
इस तरह काल भेद से कर्मके तीन प्रकार हुए। अब इन कर्मों का स्वरूप देखना है, जिससे इनके बला बल का पता लग सकेगा।
१. क्रियमाण कर्म
मनुष्य अपने जीवनकाल में कर्म करने में पूर्ण स्वतन्त्र है। तनिक भी पराधीन नहीं है। फिर भी इतना अवश्य है कि चित्त के ऊपर पड़े हुए संस्कार उसको तदनुरूप कर्म करने के लिये ललचाते हैं। यानी चित्त में जो अशुभ संस्कार होते हैं वे अशुभ कर्म करने के लिये ललचाते हैं, परंतु उस लालच में पड़ने या न पड़ने में मनुष्य पूर्ण स्वतन्त्र है। जिसका निश्चय दृढ़ होता है, वह मनुष्य प्रलोभनों से नहीं ललचाता और ढीले-ढाले निश्चयवाला मनुष्य ललचा जाता है तथा पराधीन बन जाता है।
इसको समझने के लिये एक छोटा-सा चुटकुला – दन्तकथा नहीं अपितु सच्ची घटना सुनी हुई है, उसे बताता हूँ। सौराष्ट्र के एक छोटे राज्य की पुराने जमाने की बात है। बन्दरगाह के अधिकार के विषय में अंग्रेजों के साथ एक शर्तनामा तैयार करना था और इस काम के लिये सरकारी कर्मचारी उस राज्य में आया था। दीवान को राज्य के हित के लिये उसमें कुछ छूट करानी थी। इसलिये उसने उस कर्मचारी को ललचाने की चेष्टा की और कहा – ‘इतना काम आप कर दें तो मैं इसके बदले दस हजार रुपये आपको दूँ।’ उस कर्मचारी ने निषेधात्मक सिर हिलाया। दीवान ने बीस हजार देने के लिये कहा, तिसपर भी वह कर्मचारी राजी न हुआ। बीस की जगह पचास हजार देने के लिये तैयार होने पर भी कोई फल न निकला। दीवान को तो किसी तरह काम बनाना था। इसलिये उसने एक मुश्त एक लाख देने के लिये कहा। दीवान के मन में आया कि अब तो वह कर्मचारी अवश्य झुकेगा और अपना काम बन जायगा, परंतु उस कर्मचारी ने दृढ़तापूर्वक नकारात्मक ही उत्तर दिया। दीवान के क्रोध का पार न रहा और वह गरजकर बोला-‘साहब! इतना देने वाला आपको कोई न मिलेगा, यह याद रखियेगा और फिर जैसी मर्जी हो वैसा कीजियेगा।’ उत्तर देते हुए उस कर्मचारी ने शान्ति से कहा —‘दीवान साहब! इतनी बड़ी रकम देने वाले आप तो मुझे मिल ही गये। बल्कि कुछ और माँगू तो आप मुझे दे सकते हैं, ऐसा मैं समझता हूँ, परंतु लिख रखिये कि अपनी टेक रखने में इतनी बड़ी रकम को – इतने बड़े प्रलोभन को ठोकर मारने वाला भी आपको दूसरा कोई न मिलेगा।’
यहाँ समझने की बात इतनी ही है कि प्रलोभन के वश में होने-न-होने के विषय में मनुष्य पूर्णतया स्वतन्त्र है और उसका आधार उसके निश्चय के बल पर होता है। इसलिये यह बात निश्चय हो गयी कि वर्तमान जीवन में कर्म करने में पुरुष सब प्रकार से स्वतन्त्र है। शुभ पुरुषार्थ करके स्वर्ग प्राप्त करना हो तो यह उसके हाथ में ही है और अशुभ कर्म करके नरक में जाना हो तो इसके लिये भी वह स्वतन्त्र है तथा ईश्वर का भजन करके ज्ञान प्राप्त कर मुक्ति पानी हो तो इसके लिये भी वह स्वतन्त्र है। क्या करे और क्या न करे—यह पुरुष के हाथ की बात है और अपना मार्ग निश्चित करने में पुरुष शतप्रतिशत स्वतन्त्र है। सार यह है कि वर्तमान जीवन में पुरुषार्थ परम बलवान् है और प्रारब्ध या दूसरी कोई सत्ता उसके मार्ग को नहीं रोक सकती।
२. प्रारब्ध कर्म
अब प्रारब्ध कर्म का स्वभाव देखिये। जिन-जिन कर्मों का फल भोगने के लिये जीवने उनके उपयुक्त शरीर धारण किया, उन-उन कर्मों का फल उसे उस शरीर से भोगना ही पड़ता है। इससे बचने का कोई रास्ता नहीं है; क्योंकि भोग के सिवा दूसरी किसी रीति से प्रारब्ध का नाश नहीं हो सकता। यह बात भली भाँति समझने की है और इसे हम एक-दो सीधे दृष्टान्तों से समझें।
भादों के महीने के कृष्णपक्ष में राँधण छठ, शीतला सप्तमी और जन्माष्टमी के त्योहार एक साथ आते हैं। (गुजरात में शीतला जी के लिये इस दिन रसोई बनायी जाती है और दूसरे दिन ठण्डी खायी जाती है। इस रसोई बनाने के दिनको ‘राँधण छठ’ कहते हैं। राजस्थान में यह त्योहार ‘बासेड़ा’ के नाम से चैत्र कृष्णपक्ष में मनाया जाता है।)
एक गृहस्थ को पैसे की कमी के कारण राँधण छठ के दिन क्षणिक वैराग्य उपजा, इसलिये उसने गृहिणी से कह दिया कि कल शीतला सप्तमी के लिये मोटी रोटी तथा साग के सिवा और कुछ भी नहीं बनाना है। गृहिणी ने वैसा ही किया। सप्तमी के दिन उसकी थाली में ठण्डी रोटी डाल दी। उसको तो उस दिन माल उड़ाने की आदत थी, इसलिये उसे इससे दुःख हुआ और अप्रसन्न मन से उसने पत्नी से कहा- ‘आज खुशी के दिन ऐसा भोजन?’ तब पत्नी ने उसको समझाते हुए कहा कि ‘ऐसी रसोई बनाने के लिये तो आपने ही आज्ञा दी थी और अब खाने के समय घबराते क्यों हैं? यह तो ठीक नहीं है।
आपकी ही आज्ञा के अनुसार सब किया गया है, इसलिये आपको कुछ भी बोले-चाले बिना थालीमें जो कुछ परोसा गया है, उसे आनन्द से खा लेना चाहिये। अप्रसन्न होकर भोजन करेंगे तो भी तो इसीसे काम चलाना पड़ेगा। अप्रसन्न होनेसे कुछ बढ़िया भोजन तो थाली में आ नहीं जायगा। इसलिये जो प्राप्त है, उसी को आनन्द से खा लीजिये। कल के फलाहार में जो कहियेगा, वह बना दूँगी और परसों पारणा के दिन भी आपके पसन्द की रसोई तैयार करके परोस दूँगी; परंतु आज तो जो प्राप्त है उसी से काम चलाना है, इसमें कोई फेर-फार नहीं हो सकता।’ इसी प्रकार जिस-जिस कर्मका फल भोगने के लिये जीव ने यह देह धारण की है, इस देह से उसे उस-उस कर्मफल को भोगना ही पड़ेगा। इसी से देह का एक अर्थसूचक नाम ‘भोगायतन’ भी है। अर्थात् गत जन्मों के शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने का स्थान। जीव का वर्तमान देह से जिस-जिस सुख- दु:ख का भोग निर्मित हो चुका है, उस-उस को इस देह से भोगे बिना छुटकारा नहीं है। भावी जीवन का निर्माण तो जीव अपनी इच्छा के अनुसार कर सकता है, परंतु निर्माण हो चुके भोग में रंच मात्र भी फेरफार नहीं हो सकता।
इस विषय को और भी अधिक समझने के लिये एक दूसरा दृष्टान्त लीजिये। एक बहुत ही छोटा राज्य है। राजा को किसी कारणवश ऐसी इच्छा हो जाती है कि इस साल एक बाजरे के सिवा दूसरा कुछ बोना ही नहीं है, इसी प्रकार बाड़ी में भी साग-सब्जी के सिवा और कुछ भी नहीं बोना है। राजा ने अपने राज्य में यह आज्ञा निकाल दी।
इससे उस वर्ष वहाँ बाजरा और साग-भाजी के सिवा और कुछ भी पैदा नहीं हुआ। कुछ समय तक राजा को अपने अहंकार के कारण यह बात अच्छी लगी, परंतु प्रतिदिन बाजरे की रोटी और साग खाते-खाते वह भी ऊब गया। उसका समग्र परिवार और सारी प्रजा भी त्राहि- त्राहि पुकारने लगी, पर अब उपाय क्या है? अगले वर्ष तक हँसकर या रोकर इसी से काम चलाना है।
दूसरी कुछ वस्तु आकाश से उतर तो सकती नहीं, परंतु इस दु:ख से राजा और प्रजा दोनों में विवेक जाग्रत् हो गया और निश्चय किया गया कि अगले वर्ष फिर गत वर्ष-जैसा मूर्खतापूर्ण कदम नहीं उठाया जायगा और ऐसा निश्चय किया कि इस साल सभी प्रकार के अनाज बोये जायँगे, दलहन बोयेंगे, जाड़े में गेहूं, चना और गन्ना भी बोयेंगे, जिससे भाँति-भाँति की खानेकी वस्तुएँ मिलेंगी और राजा-प्रजा सभी सुखसे रह सकेंगे।
इसी प्रकार जीव के लिये भी जिन सुख-दु:खादि भोगों का निर्माण हो चुका है, उनको भोगने पर ही छुटकारा मिल सकता है, बचने का कोई उपाय है ही नहीं। परंतु दुःख आ पड़ने पर यदि विवेक उत्पन्न हो जाय तो भविष्य का निर्माण करने के लिये स्वतन्त्र होने के कारण वह सुखमय भविष्य का निर्माण कर सकता है। और अधिक समझने के लिये एक तीसरा दृष्टान्त लीजिये।
बरसात के प्रारम्भ में बड़े-बड़े रसीले जामुन खाने को मिलते हैं, यह सोचकर एक आदमी ने जामुन उगाने का निश्चय किया और बरसात में एक बीज बो दिया। बीजसे अंकुर निकलकर बढ़ने लगा, समय आने पर वह एक बड़ा पेड़ हो गया और उसमें जामुन भी फले। उसने तृप्तिपर्यन्त प्रतिदिन खूब आनन्द से जामुन खाये।
पर रोज- रोज जामुन खाने से वह उकता गया और जामुन से उसको अरुचि पैदा हो गयी। वह सोचने लगा कि इस पेड़ पर यदि आम लगते तो ठीक था। उसने बहुतों से पूछा, परंतु इसका उपाय किसी ने उसको नहीं बताया, बल्कि उलटे लोग मजाक करने लगे। एक विचारवान् पुरुष ने उसको समझाया कि ‘भाई, जामुन के पेड़पर तो जामुन ही लगता है, दूसरा कोई फल नहीं लगता। इसलिये आम खाने हों तो आम का पेड़ लगाओ, उसपर फल लगें तब सुख से आम खाना, तबतक तो जामुन के सिवा दूसरा कुछ मिलनेवाला नहीं है।’
इसी प्रकार जो भोग इस देह के लिये निर्माण हो गया है, जबतक इस देह में जीव है तबतक उसको भोग लेने पर ही छुट्टी मिल सकती है। भविष्य का निर्माण करना तो उसके हाथ की बात है और अपनी इच्छा के अनुसार करने में वह स्वतन्त्र है। अर्थात् आम बोना चाहे तो आम बो सकता है और बबूल बोना चाहे तो भी उसको कोई रोक नहीं सकता, परंतु भूतकाल को किसी प्रकार बदल नहीं सकता। बबूल के पेड़ पर लाख प्रयत्न करने पर भी आम नहीं लग सकता।
अब यह बात इतनी विस्तार पूर्वक क्यों समझायी गयी है, इसपर विचार करना है। मनुष्य को जब यह पक्का निश्चय हो जाता है कि मुझे जिस दुःख का भोग प्राप्त होता है, वह मेरे ही अपने विचार पूर्वक किये हुए कर्मों का फल है तो फिर अपने ही किये कर्मों का फल भोगने में मुझे घबराना क्यों चाहिये? जैसे सुखभोग मेरे ही कर्मों का फल है, वैसे ही दु:खभोग भी मेरे ही किये कर्मों का फल है-तब फिर सुख आने पर हम क्यों भूल जायँ ? और दुःख पड़ने पर मुरझायें क्यों? और फिर सुख-दु:ख सदा रहने वाले तो हैं नहीं, वे तो क्षण-क्षण में बदला करते हैं, फिर सुख और दु:ख दोनों में हम समान भाव क्यों न रखें? आखिरकार सुख और दु:ख दोनों ही तो अपनी ही कृति है न? तब फिर एकके लिये राग और दूसरे के लिये द्वेष किसलिये? इस प्रकार विचार करते-करते सुख-दु:ख में समता आ जाती है। इस प्रकार की समता आ जाय तो समझ लीजिये कि मोक्ष का द्वार ही खुल गया। श्रीभगवान् कहते हैं—
‘इहैव तैर्जितः सर्गों येषां साम्ये स्थितं मनः । ’
अर्थात् जिन मनुष्यों के मन में सुख-दु:ख के भोग में समता आ गयी है, उन्होंने तो इहैव अर्थात् इसी जन्म में या इस शरीर से ही संसार को जीत लिया। अर्थात् जन्म-मरण के बन्धन से वे मुक्त हो गये—जीवन्मुक्त की दशा को प्राप्त हो गये। इतना महान् है प्रारब्ध के रहस्य को जानने का फल।
३. संचित कर्म
यह कर्म का अक्षय भण्डार है। भोगने से कभी समाप्त होनेवाला नहीं है, फिर कर्मका एक सर्वमान्य नियम यह है कि –
‘नाभुक्तं क्षीयते कर्म कोटिकल्पशतैरपि’
अर्थात् कोई भी कर्म करोड़ों कल्प बीतने पर भी बिना भोगे नाश को प्राप्त नहीं होता। तब फिर जीव की मुक्ति की आशा ही क्या? कर्म का भण्डार अक्षय है और उसको भोगते-भोगते जीव अनादि कालसे चौरासी लाख योनियों में शरीर धारण करता चला आ रहा है तो भी यह कर्मभण्डार आज भी अक्षयरूप में भरा ही हुआ है। तब तो जीव की मुक्ति का कोई साधन ही नहीं रहा। श्रीभगवान् कहते हैं कि जीव को निराश होने की कोई जरूरत नहीं। इसका भी रास्ता मैंने सोच रखा है
‘ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा । ‘
श्रीभगवान् कहते हैं कि अर्जुन! जैसे लौकिक अग्नि लकड़ीके ढेर-के-ढेरको क्षणभर में जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार ज्ञानरूपी अग्नि भी कर्म के महान्-से-महान् भण्डार को भी क्षणभर में जला डालती है। घास की चाहे जितनी बड़ी राशि हो, मीलों तक फैली हो, तथापि दियासलाई की एक ही बत्ती जलाने पर क्षणमात्र में भस्मसात् हो जाती है। इसी प्रकार अनेक जन्मों के शुभाशुभ कर्म ज्ञानाग्नि की एक ही चिनगारी पड़ते ही जलकर भस्म हो जाते हैं।
जब देखो, प्रारब्ध कर्म तो भोग लेने पर अपने-आप नाश को प्राप्त हो जाएगा, इसमें कुछ हेर-फेर होने वाला नहीं। संचित की राशि ज्ञानाग्नि से भस्म हो जाती है, इससे फिर जीव को दूसरा देह धारण करनेका कोई कारण ही नहीं रहा। अत: सहज ही मुक्ति मिल गयी; क्योंकि जीव को शरीर धारण करना पड़ता है अपने कर्मों का फल भोगने के लिये, परंतु जब कर्म ही न रहा तो फिर क्या और किसका फल भोगने के लिये जीव को देह धारण करना पड़ेगा अर्थात् ज्ञान होने के बाद जीव को शरीर धारण नहीं करना पड़ता।
श्रुतिने जीवकी मुक्तिका यह साधन बताया है। वह कहती है-
‘ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः।’
अर्थात् ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती। इसका कारण यह है कि कर्म के इस अक्षय भण्डार का नाश करनेके लिये दूसरा कोई साधन ही नहीं है। वह केवल ज्ञान से ही भस्मसात् होता है। जबतक कर्म हैं तबतक उनको भोगने के लिये शरीर धारण करना ही पड़ता है, फिर कर्म तो अक्षय हैं और बढ़ते ही जाते हैं, अतएव इस चक्कर से छूटने का कोई दूसरा मार्ग नहीं है, यह श्रुति का तात्पर्य है।
अब कर्म का बलाबल आसानी से समझा जा सकता है:
(१) वर्तमान जन्म में जीव पुरुषार्थ करने में सब प्रकार से स्वतन्त्र है, उसको कोई रोक नहीं सकता।
(२) जिस-जिस कर्म का फल भोगने के लिये जीव ने यह शरीर धारण किया है, उन-उन निर्माण हो चुके हुए सुख-दुःखों को इस वर्तमान शरीरसे भोगना ही पड़ेगा। भविष्यका निर्माण तो वह अपनी इच्छा के अनुसार कर सकता है, परंतु भूतकाल के निर्माण को वह बदल नहीं सकता।
(३) संचित कर्म का भण्डार अक्षय है, वह भोग के द्वारा समाप्त होने वाला नहीं है। इसलिये यदि जन्म-मरण के जंजाल से छूटना है तो जिस प्रकार हो सके तत्त्वज्ञान प्राप्त करना चाहिये। जिससे ज्ञानरूपी अग्नि से सारे संचित कर्म जलकर भस्म हो जायँगे और जीव को पुन: शरीर धारण करना नहीं पड़ेगा।