श्वेता पुरोहित। हंस और डिम्भक द्वारा संन्यास की निन्दा तथा जनार्दन द्वारा संन्यास आश्रम का मण्डन
हंस और डिम्भक दुर्वासा ऋषि से बोले – ओ द्विज! यह तूने क्या करने का निश्चय किया है ? तेरा अन्तःकरण तो लेशमात्र ज्ञान से भी शून्य जान पड़ता है। विप्र ! तूने जिसका आश्रय लिया है, यह कौन-सा आश्रम है? गृहस्थाश्रम को त्यागकर तूने किस अभिलषित वस्तु की सिद्धि प्राप्त कर ली है; मुझे संदेह है कि ‘तू स्पष्ट ही मूर्तिमान् दम्भ है’, इसके सिवा इस त्याग में दूसरा कोई कारण नहीं है मूढ़ ! तू सदा इन सब लोगों का नाश करेगा और इसी में सुख मानेगा। इन सबका शिक्षक बना हुआ है, अतः अपने साथ इन्हें भी नरकमें गिरायेगा ।
मूढ़ ब्राह्मण! तू स्वयं तो नष्ट हो ही गया है, दूसरों का भी यत्नपूर्वक नाश करेगा। अहो! तुझ मन्दबुद्धि द्विजका कोई शासन क्यों नहीं करता है? जिसने तुझे ऐसी शिक्षा दी है, वह भी सर्वथा पापी है; इसमें संशय नहीं है। विप्र ! इस आश्रम को छोड़कर गृहस्थ हो जा और मनको संयम में रख । ब्रह्मन् ! पाँच महायज्ञों का अनुष्ठान कर और इसी के लिये निरन्तर प्रयत्नशील बना रह । तदनन्तर उत्तम स्वर्गलोक में जाकर सुखी हो जा; क्योंकि स्वर्गलोक में महान् सुख प्राप्त होता है। बाबाजी ! यही कल्याण का मार्ग है; यदि तुझे जीने की इच्छा हो तो यही कर।
धर्मात्मा ब्राह्मण जनार्दन ने उन दोनों की कही हई ऐसी बात सुनकर यति दुर्वासा की ओर देखा और अत्यन्त विनीत की भाँति उनके चरणों में प्रणाम करके अपने मित्रों से कहा- ‘राजाओ ! तुम दोनों की बुद्धि और तेज दोनों मंद हो गये हैं। मित्रो! ऐसी बात मुँह से न निकालो। ऐसा घोर अमङ्गलकारी वचन इहलोक और परलोक में भी सुनने योग्य नहीं है; कौन मन्दबुद्धि मानव यदि वह बन्धु-बान्धवों सहित जीवित रहना चाहता हो तो ऐसी बात कह सकता है? ये महात्मा तुम दोनों मन्दबुद्धि राजाओं के लिये सर्वथा कालरूप ही हैं! जान पड़ता है तुम्हारी शेष आयु भी आज समाप्त हो गयी। तुम दोनों ब्रह्मदण्डद्वारा मारे गये’।
‘ये सब-के-सब शुद्ध हृदयवाले यति (संन्यासी) हैं। इनका अन्तःकरण ज्ञान के तेज से प्रकाशित है। इन्होंने ज्ञानाग्नि के द्वारा अपनी सारी संचित कर्मराशि दग्ध कर.डाली है और ये अब अपने प्राणों का ही प्राणस्वरूप अग्नियों में होम करते हैं। ऐसे महात्माओं के प्रति तुम दोनों को छोड़कर दूसरा कौन मनुष्य बारम्बार ऐसी अनुचित बात कहने में समर्थ है? हमने सर्वथा समझ लिया, तुम दोनों की जीवनलीला यहीं समाप्त हो गयी।
नरेश्वरो ! मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने पूर्वकाल से ही चार आश्रमों का विधान किया है। उनके नाम इस प्रकार हैं – ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक (संन्यासी)। इनमें सबसे श्रेष्ठ यह चौथा आश्रम, जिसका नाम भिक्षु या संन्यास है, माना गया है। उस आश्रम में जिसकी महत्त्वपूर्ण बुद्धि है, वह महान् पुण्यात्मा बताया गया है। तुम दोनों ने भली भाँति विनीत पुरुष के समान कभी वृद्ध पुरुषों की उपासना या सेवा नहीं की है तथा तपस्वी मुनियों से ज्ञान नहीं प्राप्त किया है, यह बात स्पष्ट हो गयी; अन्यथा उस प्रकार सत्सङ्ग एवं ज्ञान प्राप्त करनेवाला कौन पुरुष ऐसी बात कह सकता है ? राजा हंस ! मैं प्राण रहते ऐसा घोर अनुचित शब्द नहीं सुन सकता; किंतु क्या करूँ ? मन्दात्मन् ! तू मेरा मित्र है, इसलिये कुछ करते नहीं
बनता।
ज्ञानं यदाप्तं भवता गुरुभ्य- स्तदत्र दुःखाय हि केवलं नृप।
ज्ञानं हि धर्मप्रभवं यथेष्टं बलाद्धि पापस्य विधातृरूपम् ॥
अर्थात्:
तूने गुरुजनों से जो ज्ञान प्राप्त किया था, वह तो यहाँ केवल दुःखका ही जनक हुआ। जो ज्ञान धर्माचरण से प्राप्त होता है, वही यथेष्ट फलकी प्राप्ति करानेवाला है। बल अथवा हठ से प्राप्त किया हुआ ज्ञान तो पापका ही विधायक होता है।
मैं तुम दोनों को छोड़कर चला जाऊँ या ऊँचे से पत्थरपर कूद पड़ें अथवा – घोर विष पी लूँ किंवा महासागरकी तरङ्गोंमें गिर जाऊँ। अथवा तुम सब के देखते-सुनते आत्महत्या कर लूँ।’ ऐसा कहकर जनार्दन उन दोनों राजाओंसे ‘ऐसी बात न कहो, न कहो’ यह कहता हुआ इस प्रकार विलाप करने लगा।
शेष अगले भाग में…
“जो ज्ञान धर्माचरण से प्राप्त होता है, वही यथेष्ट फलकी प्राप्ति करानेवाला है। बल अथवा हठ से प्राप्त किया हुआ ज्ञान तो पापका ही विधायक होता है।” जनार्दन का ये उपदेश आज के समय में कितना प्रासंगिक है. हमें इसका ध्यान रखना चाहिए।
जय श्री हरि 🙏🌷