अजय शर्मा काशी । ॐ सोह शिवनारायणाय नम:
बोले सियापति रामचंद्र जी की जय”।
शिवपुराण के सृष्टिखण्ड में भगवान शिव कहते है– मेरा (शिव) दर्शन होने पर जो फल प्राप्त होता है, वही फल आपका (विष्णु) दर्शन होने पर भी प्राप्त होगा। मैंने आज आपको यह वर दे दिया, यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है। मेरे हृदय में विष्णु हैं और विष्णु के हृदय में मैं हूँ जो इन दोनों में अन्तर नहीं समझता, वही मेरा मन है अर्थात् वही मुझे प्रिय है–
मद्दर्शने फलं यद्वत्तदेव तव दर्शने ।।५४।।
इति दत्तो वरस्तेद्य सत्यं सत्यं न संशयः।।
ममैव हृदये विष्णुर्विष्णोश्च हृदये ह्यहम् ।।५५।।
उभयोरंतरं यो वै न जानाति मनो मम ।।
स्कन्दपुराण में यही इस प्रकार कहा गया है– जिस प्रकार शिव हैं, उसी प्रकार विष्णु हैं और जैसे विष्णु हैं, वैसे ही शिव हैं। इन दोनों में तनिक भी अन्तर नहीं है–
यथा शिवस्तथा विष्णुर्यथा विष्णुस्तथा शिव:।
अन्तरं शिव विष्णोश्च मनागपि न विद्यते।।
भगवान् राम अर्थात् भगवान् बिन्दुमाधव अग्निबिंदु ऋषि से कहते हैं-
हे मुने ! सत्ययुग में मैं आदिमाधव के नाम से पूज्य हूँ, त्रेता में मुझे सर्वसिद्धिदायक अनन्तमाधव नाम से समझना चाहिए, द्वापर में परमार्थकर्ता मैं ही श्रीदमाधवसंज्ञक हूँ और कलियुग में कलिमलध्वंसी बिन्दुमाधव मुझे जानना चाहिए, कलियुग में मनुष्य लोग पापी होने से मुझे नहीं समझ सकते हैं–
कलौ कलिमलध्वंसी ज्ञेयोऽहं बिन्दुमाधवः।
कलौ कल्मषसम्पन्ना न मां विन्दन्ति मानवाः।। १२६
मेरी ही माया से मोहित जो लोग भेदवाद में तत्पर होकर मेरी भक्ति करते हुए विश्वेश्वर से द्वेष करते हैं। वे सब मेरे ही शत्रु हैं और वे अन्त में पिशाच पद के भागी होते हैं, फिर पिशाच योनि पाने पर कालभैरव की आज्ञा से तीस सहस्र वर्ष पर्यन्त दुःख सागर में रहकर अन्त में फिर विश्वेश्वर के ही अनुग्रह से मोक्ष को प्राप्त हो जाते है–
ममैव मायया मूढा भेदवादपरायणाः।
मम भक्तिं प्रकुर्वाणा ये विश्वेशं द्विषन्ति वै।। १२७
विद्विषो मम ते ज्ञेयाः पिशाचपदगामिनः।
पैशाचीं योनिमाप्यापि कालभैरवशासनात् ।। १२८
त्रिंशद्वर्षसहस्राणि उषित्वा दुःखसागरे।
विश्वेशानुग्रहादेव ततो मोक्षमवाप्नुयुः।।१२९
अतएव परमात्मा विश्वेश्वर पर द्वेष की बुद्धि न करें; क्योंकि जो पुरुष विश्वनाथ का द्वेषी होता है, उसका कोई प्रायश्चित भी नहीं हो सकता है और जो अधम लोग इस लोक में मन से भी विश्वेश्वर से द्वेष रखते हैं, वे मर जाने पर परलोक में भी निरन्तर अन्धतामिस्र नरक में वास करते हैं–
तस्माद्वेषो न कर्तव्यो विश्वेशे परमात्मनि।
विश्वेशद्वेषिणां पुंसां प्रायश्चित्तं यतो न हि।। १३०
मनसाऽपि हि विश्वेशं विद्विषन्तीह येऽधमाः।
अध्यासतेऽन्धतामिस्रं मृतास्तेऽन्यत्र सन्ततम्।।१३१
जो लोग शिव के निन्दक होते हैं अथवा शैव लोगों की निन्दा करते हैं, वे सब मेरे ही द्वेषी समझे जाने के योग्य हैं और वे घोर नरक में पतित होते है–
शिवनिन्दापरा ये च ये पाशुपतनिन्दकाः।
विद्विषो मम ते ज्ञेयाः पतन्तो नरकेऽशुचौ।।१३२
जो लोग विश्वेश्वर के निन्दक होते हैं, वे अट्ठाईस करोड़ नरकों में क्रमशः कल्प-कल्प भर वास करते हैं–
अष्टाविंशतिकोटीषु नरकेषु क्रमेण हि।
कल्पं कल्पं वसेयुस्ते ये विश्वेश्वरनिन्दकाः।।१३३
हे मुने ! मैं भी विश्वेश्वर की ही दया से मुक्तिदान में समर्थ हुआ हूँ, अतएव मेरे भक्तों को तो विशेष रूप से सर्व देव विश्वेश्वर की सेवा करनी चाहिये–
विश्वेशानुग्रहं प्राप्य मुनेऽहमपि मुक्तिदः।
मद्भक्तस्तद्विशेषेण सेव्यो विश्वेश्वरोऽनिशम्।। १३४
श्रीशिवमहापुराण में श्री शिव जी कहते है– जो मनुष्य रुद्र का भक्त होकर तुम्हारी (विष्णु) की निन्दा करेगा, उसका सारा पुण्य तत्काल भस्म हो जायगा। पुरुषोत्तम विष्णो! तुमसे द्वेष करने के कारण मेरी आज्ञा से उसको नरक में गिरना पडेगा। यह बात सत्य है, सत्य है। इसमें संशय नहीं है–
रुद्रभक्तो नरो यस्तु तव निन्दां करिष्यति।
तस्य पुण्यं च निखिलं द्रुतं भस्म भविष्यति॥
नरके पतनं तस्य त्वद्वेषात्पुरुषोत्तम्।
मदाज्ञया भवेद्विष्णो सत्यं सत्यं न संशयः॥
अर्थात् श्रीविष्णु =हरि तथा श्रीशिव=हर का सम्मिलित रूप हरिहर कहलाता है। इनको शंकरनारायण तथा शिवकेशव भी कहते हैं। विष्णु तथा शिव दोनों का सम्मिलित रूप होने के कारण हरिहर वैष्णव तथा शैव दोनों के लिये पूज्य हैं।