Esther Earl बारह साल की थी, जब उसके परिवार को पता चला कि उसे थाइराइड कैंसर है। सोलह साल की उम्र में उसकी मौत हो गई। मरने से पहले वह एक किताब लिख गई ‘This Star Won’t Go Out’। इस किताब पर बाद में एक फिल्म बनाई गई ‘The Fault in Our Stars’। उसकी ये किताब मरने से पहले जीना सिखाती है। मौत सामने होती है तो मानसिकता बिलकुल बदल जाती है। मौत को सामने देखकर उसकी खिल्ली उड़ाकर जीना सिखाती है ये किताब। दिवंगत सुशांत सिंह राजपूत की फिल्म ‘दिल बेचारा’ इसी किताब और फिल्म से प्रेरित होकर बनाई गई है। इस फिल्म में हम आखिरी बार क्षितिज पर उस सितारे की आखिरी चमक देखते हैं, जो कुछ दिन पहले दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से अस्त हो गया।
कभी-कभी रील लाइफ, रियल लाइफ बन जाती है। सुशांत जानते भी नहीं होंगे कि ये उनकी आखिरी फिल्म साबित होगी। कहानी जमशेदपुर से शुरू होती है, जहाँ एक कैसर पीड़ित लड़की कीजी बासु रहती है। कीजी को हर वक्त सिलेंडर साथ में लेकर घूमना पड़ता है क्योंकि उसे सांस लेने में दिक्कत होती है।
कीजी नहीं जानती कि अभी वह और कितना जियेगी। उसकी थमी हुई ज़िंदगी में रफ्तार आ जाती है, जब वह राजकुमार जूनियर उर्फ़ मैनी से मिलती है। कीजी एक गायक अभिमन्यु प्रताप को बहुत पसंद करती है और जानना चाहती है कि उसने अपना एक गीत अधूरा क्यों छोड़ दिया। यही कीजी की एकमात्र इच्छा है। मौत धीमे-धीमे पास आ रही है और ख्वाहिशों का समुद्र सिकुड़कर दरिया बन गया है। कीजी का जीवन कुछ ऐसा ही है।
ये फिल्म देखते हुए महसूस हुआ कि सुशांत सिंह राजपूत वह कलाकार था, जिसमे अपने बूते फिल्म खींचने की ताकत थी। और सुपरस्टार्स की तरह उसे हिट होने के लिए तीन-तीन आइटम नंबर्स की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। वह एक नैसर्गिक कलाकार था। ‘दिल बेचारा’ में सुशांत को देखना सुखद अनुभव रहा। मैनी के किरदार में वे जान फूंक देते हैं।
ये ऐसा किरदार था, जो फिल्म आगे चलने के साथ-साथ और जटिल हो जाता है। मैनी के किरदार में विभिन्न शेड्स हैं। इसे निभाना बच्चों का खेल नहीं था। सुशांत अपने किरदारों को एक हल्का सा पर्सनल टच देते हैं, यहाँ भी आपको मैनी के किरदार में सुशांत की छुअन का अहसास होगा।
फिल्म कैंसर के रोगियों के जीवन के ताने-बाने को नज़दीक से दिखाती है। उनकी ज़िंदगी की परेशानियों को दिखाती है। ये कैंसर की शोक कथा है तो इसमें मैनी और कीजी के प्रेम के सौंधे फूल भी खिले हैं। निर्देशक मुकेश छाबड़ा का प्रयास सराहनीय है। उन्होंने पश्चिम की एक दुःखद कथा को भारतीयता में पिरोकर मनोरंजक शैली में प्रस्तुत किया है।
कैंसर के रोगियों की कथा है तो ऐसा नहीं है कि कहानी एंगेजिंग नहीं है। फिल्म आपको आखिर तक पकड़ कर रखती है। एक अलग विषय पर फिल्म बनाना बॉक्स ऑफिस पर बड़ा जोखिम होता है। जोखिम होता है यदि फिल्म में चार एक्शन सीन और दो आइटम नंबर न डाले जाए। फिर ऐसी फिल्म देखना भी कौन चाहेगा, जिसमे रोना-धोना मचा हो। ये सोच फिल्म उद्योग के अधिकांश निर्माताओं की बन गई है। इस सोच को मुकेश छाबड़ा ने एक स्वस्थ फिल्म बनाकर आईना दिखा दिया है।
इस फिल्म में ए आर रहमान का संगीत न होता तो, इस दुःखद कथा के पड़ावों पर फूल न खिल पाते। कैसी विडंबना है कि कई वर्ष से संगीत में धार खो चुके रहमान ‘दिल बेचारा’ से पुनः सुरीले हो उठते हैं और उनकी ये मेलोडी सुशांत की आखिरी सलामी के ट्रम्पेट बन जाते हैं।
अमिताभ भट्टाचार्य की सरस लेखनी के स्पर्श से रहमान की मेलोडी फिर जाग उठी है। लीजिये पेश है साल के सबसे सुरीले गीत, जो सुशांत के विदाई गीत बन जाते हैं। रहमान की मेलोडी का गोंद इस दुखद कथा से हमे चिपकाए रखता है। ‘तुम ना हुए मेरे तो क्या’ स्वयं रहमान ने गाया है और इस फिल्म का हाइलाइट गीत बनकर उभरता है।
सुशांत सिंह राजपूत फिल्म उद्योग के आधार स्तम्भ बन सकते थे लेकिन नियति जितना समय देती है, बस उतनी ही देर कठपुतली नाच सकती है। कठपुतली का निर्देशक कभी भी धागा खीँच देता है और यात्रा समाप्त हो जाती है। ऐसा नहीं है कि ‘दिल बेचारा’ सुशांत की मौत के बाद ख़ास बन गई।
वे आज होते तो भी ये फिल्म दर्शकों के दिल पर राज करती और कर रही है। फिल्म को जबरदस्त तारीफें मिल रही हैं। इसकी रेटिंग नौ के आसपास बनी हुई है। इस फिल्म की धुआंधार सफलता ने प्रमाणित कर दिया कि सुशांत कल के सुपर सितारे हो सकते थे, यदि ज़िंदगी ने उन्हें थोड़ी मोहलत दी होती तो।