श्वेता पुरोहित। गार्गी के लिखे हुए सूत्र वेद में स्थान पाए हैं। महिला होने के बावजूद उनके नाम के साथ ऋषि लगता है। वे ब्रह्मवादिनी इसलिए कहलाती हैं कि वे ब्रह्मविद्या की ज्ञाता थी।
बाल्यावस्था से ही गार्गी वेद आदि में रुचि रखती थीं। शीघ्र ही वे इसकी अद्भुत विद्वान हो गयीं, बहुत कम लोग थे जो सामने टिक़ सकते थे। उनके रचे सूत्र भी वेद में शामिल किए गए !
यह सब अज्ञात ही रह जाता यदि महाराजा विदेह (जनक) की सभा में विश्व के सबसे विद्वान व्यक्ति की परीक्षा हेतु शास्त्रार्थ आयोजित न होता !
यह संवाद लम्बे समय तक चलता रहा किंतु निर्णय नहीं हो पाया तब किसी ने महर्षि याज्ञवल्क्य को इसकी जानकारी दी।
वे अपने शिष्यों के साथ शास्त्रार्थ स्थल पर आये और अपने शिष्यों से कहा कि पुरस्कार के लिए रखी गयी गौ, स्वर्ण और सम्पत्ति को ले चलें। उपस्थित विद्वान विरोध करते हैं और शास्त्रार्थ शुरू हो जाता है। एक एक करके सारे विद्वान पराजित हो जाते हैं तब गार्गी समक्ष आती है।
‘गर्गवंश में वचक्नु नामक महर्षि की पुत्री ‘वाचकन्वी गार्गी’ पूछती है – “हे ऋषिवर! क्या आप अपने को सबसे बड़ा ज्ञानी मानते हैं, जो आपने गायों को हांकने के लिए अपने शिष्यों को आदेश दे दिया?”
याज्ञवल्क्य ने कहा कि देवी! मैं स्वयं को ज्ञानी नहीं मानता परन्तु इन गायों को देख मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है। गार्गी ने कहा कि आपको मोह हुआ, लेकिन यह उचित कारण नहीं है। अगर सभी सभासदों की आज्ञा हो तो मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहूंगी। अगर आप इनके संतोषजनक जवाब दे पाएं तो आप इन गायों को निश्चित ही ले जाएं।’
सभी ने गार्गी को आज्ञा दे दी। गार्गी का प्रश्न था, ‘हे ऋषिवर! जल के बारे में कहा जाता है कि हर पदार्थ इसमें घुलमिल जाता है तो यह जल किसमें जाकर मिल जाता है?’
गार्गी का यह पहला प्रश्न बहुत ही सरल था, लेकिन याज्ञवल्क्य प्रश्न में उलझकर क्रोधित हो गए।
बाद में उन्होंने आराम से और ठीक ही कह दिया कि जल अन्ततः वायु में ओतप्रोत हो जाता है। फिर गार्गी ने पूछ लिया कि वायु किसमें जाकर मिल जाती है और याज्ञवल्क्य का उत्तर था कि अंतरिक्ष लोक में।
पर गार्गी याज्ञवल्क्य के हर उत्तर को प्रश्न में बदलती गई और इस तरह गंधर्व लोक, आदित्य लोक, चन्द्रलोक, नक्षत्र लोक, देवलोक, इन्द्रलोक, प्रजापति लोक और ब्रह्मलोक तक जा पहुंची और अन्त में गार्गी ने फिर वही प्रश्न पूछ लिया कि यह ब्रह्मलोक किसमें जाकर मिल जाता है?
याज्ञवक्ल्य ने कहा, ‘गार्गी, माति प्राक्षीर्मा ते मूर्धा व्यापप्त्’।
अर्थात गार्गी, इतने प्रश्न मत करो, कहीं ऐसा न हो कि इससे तुम्हारा मस्तक फट जाए। अच्छा वक्ता वही होता है जिसे पता होता है कि कब बोलना और कब चुप रहना है और गार्गी अच्छी वक्ता थी इसीलिए क्रोधित याज्ञवल्क्य की बात चुपचाप सुनती रही।
दूसरे प्रश्न में गार्गी ने पूछा, ‘ऋषिवर सुनो। जिस प्रकार काशी या अयोध्या का राजा अपने एक साथ दो अचूक बाणों को धनुष पर चढ़ाकर अपने दुश्मन पर लक्ष्य साधता है, वैसे ही मैं आपसे दो प्रश्न पूछती हूं।’
याज्ञवल्क्य ने कहा- हे गार्गी, पूछो। गार्गी ने पूछा, ‘स्वर्गलोक से ऊपर जो कुछ भी है और पृथ्वी से नीचे जो कुछ भी है और इन दोनों के मध्य जो कुछ भी है, और जो हो चुका है और जो अभी होना है, ये दोनों किसमें ओतप्रोत हैं?’
अर्थात् सारा ब्रह्माण्ड किसके अधीन है?
याज्ञवल्क्य ने कहा – ‘एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गी।’ यानी कोई अक्षर, अविनाशी तत्व है जिसके प्रशासन में, अनुशासन में सभी कुछ ओतप्रोत है।
गार्गी ने पूछा कि यह सारा ब्रह्माण्ड किसके अधीन है तो याज्ञवल्क्य का उत्तर था – अक्षरतत्व के! इस बार याज्ञवल्क्य ने अक्षरतत्व के बारे में विस्तार से समझाया।
गार्गी अपने प्रश्नों के जवाब से इतनी प्रभावित हुई कि जनक की राजसभा में उसने याज्ञवल्क्य को परम ब्रह्मिष्ठ मान लिया। इसके बाद गार्गी ने याज्ञवल्क्य की प्रशंसा कर अपनी बात खत्म की तो सभी ने माना कि गार्गी में जरा भी अहंकार नहीं है।
गार्गी ने याज्ञवल्क्य को प्रणाम किया और सभा से विदा ली। गार्गी का उद्देश्य ऋषि याज्ञवल्क्य को हराना नहीं था। जैसे कि पहले ही कहा गया है कि गार्गी वेदज्ञ और ब्रह्माज्ञानी थी तो वे सभी प्रश्नों के जवाब जानती थी।
यहाँ इस कहानी को बताने का तात्पर्य यह है कि अर्जुन की ही तरह गार्गी के प्रश्नों के कारण ‘बृहदारण्यक उपनिषद्’ की ऋचाओं का निर्माण हुआ।
प्रस्तुत है गार्गी और याज्ञवल्क्य के मध्य हुई प्रश्न उत्तर संवाद रूप में:
गार्गी : ऐसा माना जाता है, स्वयं को जानने के लिए आत्मविद्या के लिए ब्रह्मचर्य अनिवार्य है परन्तु आप ब्रह्मचारी तो नहीं। आपकी तो स्वयं दो दो पत्नियां हैं, ऐसे में नहीं लगता कि आप एक अनुचित उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं?
याज्ञवल्क्य : ब्रह्मचारी कौन होता हैं गार्गी? (जवाब में यज्ञवल्क्य पूछते हैं)।
गार्गी : जो परमसत्य की खोज में लीन रहे।
याज्ञवल्क्य : तो ये क्यों लगता हैं, गृहस्थ परम सत्य की खोज नहीं कर सकता।
गार्गी : जो स्वतन्त्र हैं वही केवल सत्य की खोज कर सकता। विवाह तो बंधन हैं।
याज्ञवल्क्य : विवाह बन्धन हैं?
गार्गी : निसंदेह।
याज्ञवल्क्य– कैसे?
गार्गी : विवाह में व्यक्ति को औरों का ध्यान रखना पड़ता हैं। निरंतर मन किसी न किसी चिंता में लीन रहता हैं, और संतान होने पर उसकी चिंता अलग। ऐसे में मन सत्य को खोजने के लिए मुक्त कहां से हैं? तो निसंदेह विवाह बन्धन हैं महर्षि।
याज्ञवल्क्य : किसी की चिंता करना बन्धन हैं या प्रेम?
गार्गी : प्रेम भी तो बन्धन हैं महर्षि?
याज्ञवल्क्य : प्रेम सच्चा हो तो मुक्त कर देता हैं। केवल जब प्रेम में स्वार्थ प्रबल होता हैं तो वह बन्धन बन जाता हैं। समस्या प्रेम नहीं स्वार्थ हैं।
गार्गी : प्रेम सदा स्वार्थ ही होता हैं महर्षि।
याज्ञवल्क्य : प्रेम से आशाएं जुड़ने लगाती हैं, इच्छाएं जुड़ने लगती हैँ तब स्वार्थ का जन्म होता हैं। ऐसा प्रेम अवश्य बन्धन बन जाता हैं। जिस प्रेम में अपेक्षाएं न हो इच्छाएं न हों, जो प्रेम केवल देना जनता हो वही प्रेम मुक्त करता हैं।
गार्गी : सुनने में तो आपके शब्द प्रभावित कर रहे हैं महर्षि। परन्तु क्या आप इस प्रेम का कोई उदहारण दे सकते हैं?
याज्ञवल्क्य : नेत्र खोलो और देखो समस्त जगत निःस्वार्थ प्रेम का प्रमाण हैं। ये प्रकृति निःस्वार्थता का सबसे महान उदहारण हैं। सूर्य की किरणें, ऊष्मा, उसका प्रकाश इस पृथ्वी पर पड़ता हैं तो जीवन उत्पन्न होता हैं। ये पृथ्वी सूर्य से कुछ नहीं माँगती है। वो तो केवल सूर्य के प्रेम में खिलना जानती हैं और सूर्य भी अपना इस पृथ्वी पर वर्चस्व स्थापित करने का प्रयत्न नहीं करता हैं। ना ही पृथ्वी से कुछ मांगता हैं। स्वयं को जलाकर समस्त संसार को जीवन देता हैं। ये निःस्वार्थ प्रेम हैं गार्गी! प्रकृति और पुरुष की लीला और जीवन उनके सच्चे प्रेम का फल हैं। हम सभी उसी निःस्वार्थता से उसी प्रेम से जन्मे हैँ और सत्य को खोजने में कैसी बाधा।
इन उत्तरों को सुन गार्गी पूर्णतः संतुष्ट हो जाती और कहती हैं, ‘मैं पराजय स्वीकार करती हूं’। तब याज्ञवल्क्य कहते हैं गार्गी तुम इसी प्रकार प्रश्न पूछने से संकोच न करो, क्योंकि प्रश्न पूछे जाते हैँ तो ही उत्तर सामने आते हैं। जिनसे यह संसार लाभान्वित होता हैं।
इन विदुषी महिलाओं के बारे में लिखने का उद्देश्य मात्र इतना है कि हम अपनी बालिकाओं को गार्गी, मैत्रेयी, लीलावती और अनुसुइया के स्तर तक जाने के लिये प्रेरित करें।
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।। मनुस्मृति ३/५६