विपुल रेगे। भारत की तमाम भाषाओं के फिल्म उद्योग देश के प्रख्यात लोगों पर बॉयोपिक बनाते आए हैं। इनमे सबसे लचर बॉयोपिक हमारे हिन्दी फिल्म उद्योग से डिलीवर होते हैं। प्रभावशाली हस्तियों पर फिल्म बनाने से पहले एक व्यापक दृष्टिकोण चाहिए होता है। व्यक्ति से संबंधित कालखंडों का विस्तृत अध्ययन आवश्यक होता है। मुख्य कलाकार का अपने किरदार के लिए पूर्ण समर्पण चाहिए होता है। तब कहीं जाकर सिल्वर स्क्रीन पर उस व्यक्ति का वास्तविक बिंब उभर पाता है। हालाँकि शुक्रवार को रिलीज ‘मैं अटल हूँ’ में हमें ये मापदंड दिखाई नहीं देते। निर्देशक रवि जाधव की फिल्म उथले पानी तैरती है। ये अटल बिहारी वाजपेयी के बिंब को तो उभारती है लेकिन जीवंतता और गहनता का कहीं दर्शन नहीं होता।
‘मैं अटल हूं’
कलाकार : पंकज त्रिपाठी, पीयूष मिश्रा, एकता कौल, दयाशंकर पांडेय
निर्देशक : रवि जाधव
निर्माता : विनोद भानुशाली, संदीप सिंह
‘मैं अटल हूँ’ सारंग दर्शने की मराठी किताब अटलजी: कविहृदयाच्या राष्ट्रनेत्याची चरित कहाणी से निकली है। अटल बिहारी वाजपेयी के जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंगों को शामिल किया गया है। उनके बचपन में पिता से मिले संस्कार, भारतीय जनसंघ की ओर झुकाव, देश की सक्रिय राजनीति में प्रवेश, भाजपा का जन्म और उसका संघर्ष, अटल जी का प्रधानमंत्री काल अलग-अलग सीक्वेंस के माध्यम से दिखाए गए हैं। पंकज त्रिपाठी ने अटल जी का किरदार निभाया है। लालकृष्ण आडवाणी का किरदार राजा रमेश कुमार सेवक ने निभाया है। अटल जी के पिता की भूमिका पियूष मिश्रा को दी गई है।
अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में युवा दर्शकों को इसमें अच्छी जानकारियां मिलती है।अटल जी को लेकर एक युवा दर्शक का सामान्य ज्ञान बढ़ाने के लिहाज़ से इसे एक सामान्य फिल्म कहा जा सकता है। इसमें सबसे बड़ी कमी ठहराव और गहराई की है। दृश्यों में गहराई न होने के कारण इनमे इमोशनल वेल्यू नहीं मिलती। रवि जाधव ने एक भागती फिल्म बनाई है। अटल जी के जीवन के एक प्रसंग से दूसरे प्रसंग की ओर भागने की जल्दबाज़ी में वे गहराई पर ध्यान देना भूल जाते हैं। कारगिल युद्ध, आडवाणी से मित्रता और परमाणु परीक्षण जैसे महत्वपूर्ण घटनाक्रमों पर ठीक से काम नहीं किया गया।
अटल जी के अध्यायों में कोई कनेक्शन नहीं दिखाई देता। फिल्म टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी अनुभव होती है। देश के पूर्व प्रधानमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के नींव पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी निर्विवाद रुप से एक अत्यंत लोकप्रिय व्यक्तित्व रहे हैं। आज भी उनके स्तर का राजनीतिज्ञ भारतीय मेधा के पास नहीं है। ऐसे व्यक्तित्व पर जो डिलीवर होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। फिल्म पार्ट्स में अच्छी लगती है लेकिन संपूर्ण प्रभाव में चूक जाती है। सुषमा स्वराज का किरदार तो मज़ाक बनाकर रख दिया गया है।
अभिनय
फिल्म पूर्ण रुप से मुख्य कलाकार पंकज त्रिपाठी के अभिनय पर केंद्रित और निर्भर थी। पंकज एक शानदार अभिनेता हैं और डूबकर अभिनय करने के लिए जाने जाते हैं लेकिन अटल जी के किरदार में वे ठीक से प्रवेश नहीं कर सके। पंकज ने अटल जी की भाव-भंगिमाओं को तो अच्छी तरह कॉपी किया लेकिन उनकी असीमित ऊर्जा को परदे पर नहीं दिखा सके हैं। वे इस किरदार को करते हुए अनमने से लगे हैं।
जब किसी बॉयोपिक का मुख्य अभिनेता ही समर्पित नहीं होगा तो समझा जा सकता है कि फिल्म निष्प्रभावी सिद्ध होगी। लालकृष्ण आडवाणी की भूमिका के लिए बहुत ही औसत कलाकार राजा रमेश कुमार सेवक का चयन किया गया। उन्हें तो अभिनय ही नहीं आता। यही कारण है कि आडवाणी के साथ वाले महवत्पूर्ण दृश्यों में पंकज त्रिपाठी बुझे-बुझे से दिखाई पड़े।
राजा रमेश कुमार के चलते मित्रता के दृश्यों में केमेस्ट्री उभर नहीं सकी। यही हाल सुषमा स्वराज के किरदार का भी हुआ। मुझे इस फिल्म में शुरु से लेकर आखिरी तक ‘मिस्कास्टिंग’ दिखाई पड़ती है। अटल जी के बचपन का किरदार निभाने वाला बालक मराठी एक्सेंट में संवाद बोलता है, जबकि अटल जी ठेठ ग्वालियर का लहजा बोलते थे। ऐसी छोटी-छोटी गलतियां फिल्म को वास्तविकता से बहुत दूर ले जाकर पटक देती है।
निर्देशन
‘मैं अटल हूँ’ का जहाज डुबाने में पूरा दारोमदार फिल्म निर्देशक रवि जाधव का रहा है। गहराई में जाकर फिल्म बनाने वाले निर्देशक मोती चुन लाते हैं लेकिन जाधव उथले पानी में जाकर मछलियां पकड़ लाए। दर्शक फिल्म से इमोशनली टच नहीं होता। निर्देशक ने सोचा कि केवल पंकज त्रिपाठी को लेकर काम बन जाएगा इसलिए उन्होंने अन्य किरदारों के लिए बहुत औसत कलाकार चुन लिए। अटल जी के जीवन के महत्वपूर्ण अध्यायों को फुटेज नहीं दिया गया।
ये एक भागती-दौड़ती फिल्म है, जो ‘डाक्यू-ड्रामा’ प्रतीत होती है। अभिनय, स्क्रीनप्ले और निर्देशन के लिहाज़ से ये बहुत कमज़ोर है लेकिन दर्शकों को अटल बिहारी वाजपेयी के जीवन को लेकर कुछ जानकारियां दे देती है। रिलीज के पहले दिन फिल्म ने मात्र एक करोड़ का कलेक्शन उठाया है। इस समय देश पर एक लोकप्रिय व्यक्तित्व की विराट छाया पड़ी हुई है। ये छाया इतनी विराट है कि इसकी डार्कनेस में लोकप्रिय राजनीतिक व्यक्तित्व विलुप्त हो चुके हैं। भारत के लंबे चौड़े राष्ट्रीय पटल पर एकाधिकार और दमनकारी शक्तियों का आधिपत्य दिखाई देता है। ऐसे में अतीत के किसी लोकप्रिय राजनेता पर बनी फिल्म कौन देखने जाएगा।