राजकिशोर सिन्हा। इस सृष्टि प्रक्रिया के दो चिरन्तन अङ्गों स्त्री और पुरुष के परस्पर संयोग से ही सृष्टि सम्भव हुई है। इन दोनों अङ्गों के समुचित सहयोग एवं अवदान से ही किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति का निर्माण होता है। वैदिक ज्ञान-विज्ञान, सभ्यता-संस्कृति, धर्म-दर्शन, सामाजिक और नैतिक व्यवस्था के निर्माण में भी स्त्री ऋषियों की महनीय भूमिका रही है अतः इन्हें ‘ब्रह्मवादिनी’ के महिमामय अभिधान से भी मण्डित किया गया है। ऋग्वेद में कुल 10472 मन्त्र हैं, जो क्षीण कलेवर के होते हुए भी अपने शिव-संकल्प और दृढ़ इच्छा शक्ति का पाथेय लेकर शिलाखण्डों को पार करती हुई पुरुष ऋषियों की मन्त्र-धारा से मिल गई हैं जिनसे यह वेदोदधि आपूर्यमाण और अचलप्रतिष्ठ हुआ है।
तप, प्रतिभा, मेधा और अंतर्दृष्टि आत्मा के धर्म हैं, शरीर के नहीं। अतः ये दिव्य गुण स्त्री और पुरुष का भेद नहीं करते। भेद सामाजिक व्यवस्थाओं, परिवेश और नियमों में होता है। यही कारण है कि मन्त्रद्रष्टा पुरुष ऋषियों के समान स्त्री ऋषियाँ भी हुई हैं, भले ही यह संख्या पुरुष ऋषियों की तुलना में अत्यल्प है।
स्त्री ऋषियों के सन्दर्भ में ऋषित्व की वही अवधारणा है जो पुरुष ऋषियों के संबंध में है। इन ऋषियों ने भी तपोबल से मंन्त्रों का साक्षात्कार कर ऋषि पद को प्राप्त किया था। विश्ववारा, अपाला, घोषा, जुहू, वागाम्भृणी, अदिति आदि के सूक्तों में भी चिन्तन और दर्शन की ही प्रौढ़ता परिलक्षित होती है जो अत्रि, विश्वामित्र, वशिष्ठ आदि ऋषियों के सूक्तों में है।
इनके लिए प्रयुक्त द्वितीय अभिधान है – ‘ब्रह्मवादिनी’। ऋग्वेदिक मन्त्र ऋषियों के तपोजन्य ज्ञान की सत्य अभिव्यक्ति हैं। जीवन और जगत का साक्षात्कार जिस रूप में हुआ है, उसी रूप में सत्य की सहज अकृत्रिम निश्छल प्रस्तुति इन मन्त्रों में हुई है। यह सत्य इस लोक का भी हो सकता है और परलोक का भी। आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार के सत्य ही इस परिधि में आते हैं। इस ‘सत्य-ब्रह्म’ या ‘मन्त्र-ब्रह्म’ की वक्ता ऋषि ही यहाँ
ब्रह्मवादिनी कही गई हैं। अतः परम ब्रह्म के साथ तादात्म्य की अनुभूति करनेवाली वागाम्भृणी ब्रह्मवादिनी हैं तो अस्मिता की तलाश करती हुई रोमशा और सौभाग्य के अभिमान से भरी हुई इन्द्राणी भी ब्रह्मवादिनी कही गई हैं। ब्रह्मवादिनी की इस ऋग्वेदिक अवधारणा के साथ ही स्त्री ऋषियों के अवदान और उनके जीवन दर्शन का यथार्थ मूल्यांकन सम्भव है।
ब्रह्मवादिनियों के मंन्त्रों में जीवन के किसी न किसी सत्य की अभिव्यक्ति है। ये मानव मन के उस पक्ष को उन्मीलित करते हैं जो मानव होने के नाते देश-काल की सीमा से परे शाश्वत और चिरन्तन हैं, जिनमें श्लीलता या अश्लीलता का प्रश्न नहीं है, इन्हें हम मानव मन का एक सच्चा दर्पण कह सकते हैं। आज से लगभग 12 से 15 हजार वर्ष पूर्व अभिव्यक्त ये मन्त्र परत-दर-परत मानव मन को खोलते हुए आज भी उतने ही सत्य और प्रासंगिक हैं जितने कि अपने सृष्टि काल में थे।
जो वृक्ष आकाश में जितना ऊँचा उठता है, उसकी जड़ें धरती में उतनी ही गहरी समाई होती हैं। आइये, आज हम देखें उन ऋषिकाओं के नाम:
- रोमशा
- लोपामुद्रा
- नद्य:
- अदिति
- विश्ववारा आत्रेयी
- शश्वती आँगिरसी
- अपाला आत्रेयी
- सिकता-निवावरी
- शिखण्डिनीद्वय
- यमी वैवस्वती
- वसुक्रपत्नी
- घोषा काक्षीवती
- अगस्त्यस्वसा
- सूर्या सावित्री
- इन्द्राणी
- उर्वशी
- दक्षिणा
- सरमा
- जुहू ब्रह्मजाया
- वागाम्भृणी
- रात्रि भारद्वाजी
- गोधा
- श्रद्धा कामायनी
- इन्द्रमातर:
- शची पौलोमी
- सार्पराज्ञी
इनमें से कुछ ऋषिकाएँ ऐसी हैं जिनका मात्र एक ही मन्त्र प्राप्त होता है। जैसे – रोमशा, शश्वती, वसुक्रपत्नी एवं अगस्त्यस्वसा। गोधा के नाम से 1.1/2 एवं लोपामुद्रा के नाम से 2 मन्त्र संकलित हैं। सम्पूर्ण सूक्त की द्रष्टाओं में विश्ववारा, अपाला, शिखण्डिनीद्वय, यमी, घोषा, अदिति, सूर्या, दक्षिणा, जुहू, वागाम्भृणी, रात्रि भारद्वाजी, इन्द्राणी, श्रद्धा, शची पौलोमी, सार्पराज्ञी, लाक्षा, मेधा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। स्त्री ऋषियों में सबसे छोटा सूक्त सार्पराज्ञी का है जिसमें मात्र तीन ही मन्त्र हैं। सबसे बड़ा सूक्त सूर्यासावित्री का है जिसमें 47 मन्त्र हैं।
संकलन : राजकिशोर सिन्हा