फिल्म बनाना इश्क करने की तरह है। किसी फिल्म निर्देशक का ये इश्क दर्शक को हमेशा समझ में आ जाए, जरुरी नहीं है। कोई पेंटिंग दिल के बेहद करीब होती है लेकिन बाज़ार में उसका खरीदार नहीं मिलता। शुजीत सिरकार की ‘गुलाबो-सिताबो’ ऐसी ही अब्स्ट्रक्ट पेंटिंग है, जो शायद उनके ड्राइंगरूम में ही रखी रह जाएगी। अच्छा ही हुआ कि कोरोना काल में ‘गुलाबो-सिताबो’ थियेटर में रिलीज होते-होते रह गई। ये थियेटर में रिलीज होती, तब भी चार दिन से अधिक टिक नहीं सकती थी। एक पुरातन हवेली के इर्द-गिर्द घूमती ये कहानी इक्कीसवीं सदी में कही गई है लेकिन उसका ट्रीटमेंट अंग्रेज़ो के जमाने का है।
लखनऊ की पुरानी गली में खड़ी ‘फातिमा मंज़िल’ का मकान मालिक मिर्जा 78 का है और उसकी बीवी फ़ातिमा उससे पंद्रह साल बड़ी है। मिर्ज़ा को इश्क बीवी से कभी रहा नहीं। वह तो इस हवेली से इश्क करता है, जिसके लिए उसने फातिमा से शादी की थी। बीते समय के साथ हवेली जर्जर हो गई है और कुछ किरायेदारों के दम से मिर्जा के घर की गाड़ी दौड़ रही है। नया एंगल ये है कि मिर्जा हवेली बेचना चाहता है और इस बीच पुरातत्व विभाग की नज़र में ये हवेली आ जाती है। इस झालमेल में किरायेदार बांके का लालच ये है कि पुरातत्व विभाग की मदद कर अपने लिए एक नया मकान जुगाड़ना है। कहानी इसी भागमभाग में चलती हुई एक नीरस अंत पर समाप्त होती है।
शुजीत सिरकार अत्यंत मेधावी फिल्म निर्देशक माने जाते हैं। उनके खाते में ‘मद्रास कैफे’ और ‘विकी डोनर’ जैसी फ़िल्में शुमार की जाती है। ‘मद्रास कैफे’ उनके कॅरियर की सबसे बड़ी और उत्कृष्ट फिल्म मानी जाती है। फिल्म ‘अक्टूबर’ के फ्लॉप होने के बाद उनकी लय पूरी तरह बिगड़ चुकी है। ये बात ‘गुलाबो-सिताबो’ में दृष्टिगोचर होती है। शुजीत की असीमित प्रतिभा को उनका ‘इश्क’ लीलता जा रहा है। एक कलाकार अपने रचना कर्म को करते हुए भूल जाए कि उसका क्रिएशन और लोगों के लिए होता है, सिर्फ उसके खुद के लिए नहीं, तो उस कलाकार के लिए ये भ्रम की स्थिति हो जाती है। शुजीत का सिनेमा इश्क उन्हें इतना परिष्कृत कर चुका है कि उनका क्रिएशन एक आम दर्शक को मनोरंजन नहीं दे रहा है।
इस फिल्म में कुछ अच्छा है तो कलाकारों का अविस्मरणीय अभिनय। अमिताभ बच्चन, आयुष्यमान खुराना, विजय राज, बृजेन्द्र काला के परफॉर्मेंस देखने लायक हैं। अमिताभ उम्र के इस दौर में अभिनय का शहद बन चुके हैं। लालची मिर्जा का किरदार उन्होंने गहराई में निभाया है। आयुष्यमान हमेशा की तरह भरोसेमंद रहे हैं। वे सहजता से अपने किरदार में ढल जाते हैं, यही उनके अभिनय की सबसे बड़ी खूबसूरती है। विजय राज ने अपना किरदार तन्मयता से निभाया है। एक तरह से इस फिल्म को ‘अभिनय केंद्रित’ कहा जा सकता है। लेकिन पटकथा बोझिल हो तो अविस्मरणीय अभिनय काम नहीं आते। फिल्म का ‘कैची’ न होना और उदासी भरा क्लाइमैक्स दो प्रमुख गलतियां रही हैं।
दर्शक मनोरंजन के लिए फ़िल्में देखता है लेकिन शुजीत जैसे फिल्मकार अपनी फिल्मों से वास्तविकता दिखाना चाहते हैं। और समस्या ये है कि दर्शक वास्तविकता देखने के लिए फिल्मों का रुख नहीं करता, उसे तो विशुद्ध मनोरंजन चाहिए, जो ‘गुलाबो-सिताबो’ में कही नहीं मिलता। मानते हैं आपने एक उम्दा फिल्म बनाने का प्रयास किया है लेकिन वह दर्शक को गुदगुदा नहीं पाती तो आपके प्रयास निष्फल ही कहलाएंगे। तकनीकी रूप से भी शुजीत कई बार भटके हैं। इक्कीसवीं सदी में लखनऊ का ये मोहल्ला साठ से सत्तर के दशक का दिखाई देता है। यदि फिल्म से ‘मोबाइल’ निकाल दिया जाए तो पता भी न चले कि शुजीत लखनऊ के किस कालखंड की कहानी कहना चाहते हैं।
ओटीटी प्लेटफॉर्म एक नीरस मंच है। इसमें न पब्लिक रिव्यू हैं, न दर्शकों की सीटियां हैं, न बुरी फिल्म को बिंदास गाली देते हुए दर्शक हैं। यहाँ सब कुछ नेपथ्य में चला गया है। यहाँ फिल्म देखते हुए ‘फिल्म’ जैसा फ़ील ही नहीं होता। कोरोना काल में फिल्म उद्योग बड़े आर्थिक संकट में चला गया है। इस संकट से उबरने के लिए अत्यंत मनोरंजक फिल्मों का निर्माण होना चाहिए।
ओटीटी प्लेटफॉर्म पर शुजीत सिरकार जाए या रोहित शेट्टी, उनकी फिल्मों का हश्र मूलतः यही होने वाला है। दरअसल ये प्लेटफॉर्म अब हिंदुत्व विरोधी गर्म नीली फिल्मों के लिए ख्यात हो चुका है, यहाँ मैन स्ट्रीम सिनेमा का चल पाना फिलहाल तो बहुत मुश्किल है। ‘गुलाबो-सिताबो’ एक सामान्य सफलता दे सकेगी, या शायद वह भी नहीं। शुजीत अपनी ‘बैलगाड़ी’ ओटीटी के भव्य मंच पर ले गए थे, सो परिणाम ऐसा ही आना तय था।