श्वेता पुरोहित। आचार्य श्रीगोविन्दरामजी शर्मा शास्त्रों में मनुष्य जीवनको ‘कर्मयोनि’ अथवा ‘साधनयोनि’ कहा गया है; क्योंकि इस जीवनमें उसे कर्म करनेकी स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है। पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि योनियाँ भोगयोनियाँ हैं, जिनमें कर्मों- की स्वतन्त्रता नहीं है। गीताके चौदहवें अध्यायमें कर्मोंके करनेमें हमारी त्रिगुणात्मक प्रकृतिको कारण बताया गया है। प्रत्येक मनुष्य सत्त्व, रज और तम प्रकृतिके इन तीनों गुणोंसे प्रभावित होकर कर्म करता है। सत्त्व गुणसे प्रेरित व्यक्ति श्रेष्ठ कर्म करता है तथा उसे सुख, ज्ञान और वैराग्य आदि निर्मल फलकी प्राप्ति होती है। वह जीवनमें सुखपूर्वक जीता है तथा अन्तमें स्वर्ग आदि उच्च लोकोंको प्राप्त करता है।
रजोगुणसे प्रेरित व्यक्ति नाना प्रकारकी कामनाओंके अधीन होकर मध्यम (सांसारिक) कर्म करता है तथा उसे दुःखोंकी प्राप्ति होती है। वह जीवनमें लोभके कारण अशान्त रहता है तथा अन्तमें पुनः मनुष्यलोकको प्राप्त करता है। तमोगुणसे प्रेरित व्यक्ति प्रमाद, मोह और अज्ञानके अधीन होकर निम्न कर्म करता है तथा उसे यातनाओंसे भरा निकृष्ट जीवन मिलता है। अन्तमें वह अधोगतिको अर्थात् कीट, पशु, वृक्ष आदि नीच योनियों तथा नरकोंको प्राप्त करता है। इन तीनों गुणोंसे अतीत (गुणातीत) व्यक्ति जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकारके दुःखोंसे मुक्त होकर परमानन्दको प्राप्त करता है तथा परमात्माके स्वरूपको प्राप्त कर लेता है।
अतः शास्त्रोंमें कर्मोंके महत्त्वपर बल दिया गया है; क्योंकि कर्म ही हमारे जीवनको श्रेष्ठ, साधारण और अधम बनाते हैं। स्थूल रूपमें कर्म तीन प्रकारके होते हैं- क्रियमाण कर्म, संचित कर्म तथा प्रारब्ध कर्म। जो कर्म हम वर्तमानमें कर रहे हैं, वे क्रियमाण कर्म कहलाते हैं, जो क्रियमाण कर्म हम कर चुके हैं, वे इकट्ठे होते हैं तथा संचित कर्म कहलाते हैं तथा जो संचित कर्म फल देनेके लिये पक गये हैं तथा हमारा भाग्य बनकर हमें भोगनेके लिये विवश कर रहे हैं, वे प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं।
हमारा वर्तमान जीवन पूर्वके कर्मोंका परिणाम है तथा इस जन्ममें हम जो कर्म कर रहे हैं, उनसे हमारा वर्तमान जीवन भी बनता है और भविष्यका भी; क्योंकि कुछ कर्म तात्कालिक फल देनेवाले होते हैं तथा कुछ कर्म समय पाकर कालान्तरमें फल देते हैं। कर्मोंसे ही हमारे शुद्ध-अशुद्ध संस्कार बनते हैं, जो पुनः हमें तदनुसार कर्म करनेके लिये प्रेरित करते हैं। इसलिये गीता कहती है-
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥
कर्मका स्वरूप भी जानना चाहिये और अकर्मका स्वरूप भी जानना चाहिये तथा विकर्मका स्वरूप भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्मकी गति गहन है। (गीता ४।१७) व्यक्ति जब प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़कर ममता और कामनासहित क्रिया करता है तो वह क्रिया ‘कर्म’ बनकर फल देनेवाली हो जाती है। जब वह निष्कामभावसे फलकी अपेक्षा न करते हुए कर्म करता है तो वह कर्म ‘अकर्म’ बनकर रह जाता है तथा फल देनेवाला नहीं होता है। इसके अतिरिक्त शास्त्र-विरुद्ध अथवा निषिद्ध आचरण ‘विकर्म’ कहलाते हैं। सकाम कर्म हमें अपनी प्रकृतिके अनुसार शुभ-अशुभ कर्मोंसे बाँधते हैं, निष्काम कर्मोंसे हम बँधते नहीं हैं तथा विकर्म हमें निश्चय ही अवनतिके गर्तमें ले जाते हैं।
प्रत्येक जीव अपने पूर्वजन्मके संचित कर्मोंका फल वर्तमान समयमें भोगता है। उन्हींके अनुसार ही उसका प्रारब्ध बना करता है। अगर उसके वर्तमानमें किये जानेवाले कर्म अर्थात् क्रियमाण कर्म श्रेष्ठ नहीं हैं तो उनका परिणाम उसे दुःखों, चिन्ताओं, अशान्तिके रूपमें भोगना पड़ेगा। कर्मोंसे बननेवाली गतिको स्पष्ट करने के लिये एक सुन्दर दृष्टान्त दिया जाता है।
एक धनी व्यक्ति बहुत सत्संगप्रेमी तथा सन्तोंकी सेवा करनेवाला था। उसके घरपर साधु-महात्मा आते रहते थे तथा वह अपनी श्रद्धा-भावनाके अनुसार उनकी सेवा किया करता था। वह उनके आवास, भोजन, वस्त्र आदिका पूरा प्रबन्ध करता था। ईश्वरकी कृपासे उसके पास अन्न, धन, वस्त्र, नौकर-चाकर, मकान आदि प्रचुर मात्रामें थे।
इन सब सुविधाओंसे सम्पन्न होते हुए भी वह अनासक्त रहता था तथा सत्संगको ही विशेष महत्त्व देता था। वह इस बातको अच्छी तरहसे जानता था कि यह सब उसके पूर्वजन्मके शुभ कर्मोंका ही परिणाम है तथा वह अब जो शुभ कर्म करेगा, उससे उसका अगला जन्म उत्तम होगा। अतः वह धनका सदुपयोग अधिक- से-अधिक परोपकार, परमार्थ एवं सदाचार-सम्बन्धी कामोंके लिये करता था। हमारे विचारों एवं आचरणका हमारी संतानपर भी वैसा ही प्रभाव पड़ता है।
धनी व्यक्ति के एक लड़की थी, जो उसीके समान उत्तम विचारोंवाली हुई। युवावस्था होनेपर उस लड़कीका विवाह एक धनाढ्य परिवारमें हुआ, किंतु वह परिवार आर्थिक दृष्टिसे सम्पन्न होनेपर भी सत्संग-प्रेमी नहीं था।
एक दिन वह लड़की अपने ससुरालमें सासके पास बैठी थी कि उसी समय बाहरसे किसी साधुने आवाज लगायी कि देवी ! कुछ खाने को मिल जाय। सासने बहू को कहा-तू जाकर भिखारी से कह दे कि यहाँ कुछ नहीं है, आगे जाओ। बहूने सासकी आज्ञाके अनुसार बाहर आकर साधुको कहा-बाबा! आगे जाओ, यहाँ कुछ नहीं है। साधुने पूछा—तो फिर बेटी! तुम लोग क्या खाते हो ? बहूने उत्तर दिया—बाबा! हम बासी भोजन खा रहे हैं। साधुने पुनः पूछा- जब बासी भोजन समाप्त हो जायगा तो फिर तुम क्या खाओगे ? बहूने प्रत्युत्तरमें कहा- तो फिर हम आपकी तरह दर-दरकी भीख माँगेंगे।
लड़कीसे उचित उत्तर सुनकर साधु तो वहाँसे चला गया, पर सास बहू और साधुका यह वार्तालाप सुन रही थी। बहूके भीतर आते ही उसने उसे आड़े हाथों लिया और कहा कि ऐ नीच संस्कारोंवाली लड़की ! तू हमारे घर अच्छे-से-अच्छा खाना खाते हुए भी बाहर हमार अपयश करती है। बता, हमने तुझे कब बासी खान दिया, जो तुमने भिखारीको कहा कि हम बासी खान खा रहे हैं और जब यह भी नहीं मिलेगा तो तुम्हारी तरह भीख माँगते फिरेंगे? इतना कहकर सास क्रोधम आग-बबूला होकर बहूको अपशब्द बोलने लगी। बहूने सास को शान्त करके समझाने का बहुत प्रयास किया किंतु सास कहाँ सुननेवाली थी। उसने आवेशमें आकर सम्पूर्ण घरको कलह का मैदान बना डाला और अपने कमरे में जाकर लेट गयी।
बहू बेचारी मन-मसोसकन बैठी रही और भयभीत-भाव से गृह-कार्य करने लगी सायंकाल जब ससुर घर में आया और उसने कोप-भवन में अपनी पत्नी को देखा और एक ओर मुरझाई-सी बैठी बहूको देखा तो समझ गया कि आज घरमें जरून कोई विशेष बात हुई है। उसने अपनी पत्नीसे पूछा- क्या बात है ? तब पत्नीने जले-कटे शब्दोंमें कहा- यह सब आपकी सुशील बहूकी करतूत है। घरमें सबसे अच्छा खाते-पीते-पहनते हुए भी बाहर हमारा अपयश करती फिर रही है कि हम बासी खाते हैं तथा जब यह भी नहीं मिलेगा तो भीख माँगेंगे। ससुर यद्यपि सत्संग- प्रेमी नहीं था, किंतु समझदार और धैर्यवान् था।
उसने पत्नीसे कहा कि ऐसा कहनेमें उसका कोई प्रयोजन होगा ? परंतु पत्नी तो कुछ भी सुनना नहीं चाहती थी उसने मुँह फुलाये हुए कहा- अपनी बहूसे ही पूछ ल क्या बात है ? ससुरने बहूसे प्यारसे पूछा- बेटी ! आज्ज घरमें क्या बात हुई पूरी तरहसे बताओ ? तब बहूने सिन झुकाये हुए अति विनम्रतापूर्वक समस्त वृत्तान्त सुना हुए कहा कि पिताजी ! आज एक साधु भिखारीने दरवाजेपर आकर भोजनकी माँग की तो माताजीने मुझस कहा कि जाओ, भिखारी से कह दो कि घरमें कुछ नह है। मैंने इनकी आज्ञा मानकर उस साधु को यही शब्ट कहे कि यहाँ कुछ नहीं है। तब उस भिखारीने पूछा कि तुम क्या खा रहे हो? मैंने उत्तर में कहा- हम बार्स भोजन खा रहे हैं। पुनः उसने पूछा- बासी भोजन समाप्त हो जाने पर क्या खाओगे ? तब मैंने कहा कि बाबा! फिर आपकी तरह ही भीख माँगते फिरेंगे।
यह सारी बात सुनकर ससुरने बहूसे पुनः पूछा- बेटी ! तुम्हें कब खानेको बासी भोजन मिला है ? बहूने कहा- पिताजी ! न तो मुझे अपने माता-पिताके घर तथा न ही आपके घरमें किसी सुख-सामग्रीका अभाव रहा है। मेरा जीवन सदैव ही सुख-वैभवमें ही बीता है, किंतु प्रश्न यह है पिताजी ! कि यह सब हमें क्यों प्राप्त है ? भगवान्की सृष्टिमें अनेक प्राणी हैं, जिनको भरपेट भोजन नहीं मिलता है, पहननेको वस्त्र नहीं हैं, रहनेको मकान नहीं है, जबकि हमें भगवान्ने सब कुछ दिया है।
यह अन्तर क्यों है ? भगवान् तो किसीके साथ भेदभाव नहीं करते। उनकी दृष्टिमें सभी समान हैं। मैं समझती हूँ यह सब हमारे पूर्वजन्मके कर्मोंका ही सुपरिणाम है। पूर्वजन्मके शुभ कर्मोंसे ही हमें सब प्रकारके सुख प्राप्त हैं। वास्तवमें इसीका नाम बासी भोजन है। अगर हम वर्तमानमें भजन-सत्संग, साधु-महात्माओंकी सेवा, दान, पुण्य आदि नहीं करेंगे तो आगेके लिये यह आशा रखना कि हमें सुख-सम्पत्तिके सामान मिलेंगे, यह असम्भव बात है। यदि हम चाहते हैं कि भविष्यमें भी हमें सब प्रकारके सुख उपलब्ध हों तो अभीसे उसीके अनुकूल दान-पुण्य, कथा-कीर्तन तथा परमार्थके कार्य करने चाहिये तथा अपने धन एवं अमूल्य समयका श्रेष्ठ उपयोग करना चाहिये।
ससुरने पूछा बेटी ! भिक्षा माँगने का क्या अर्थ हुआ ? बहूने कहा- जिसने इस जीवनमें शुभ एवं श्रेष्ठ कर्म नहीं किये, उसको जैसा प्रारब्धके अनुसार मिलेगा, उसपर ही गुजर करना पड़ेगा। जैसे भिखारीको जो कुछ भी भिक्षामें मिल जाय, उसको उसीपर सन्तुष्ट रहना पड़ता है। बहूकी विवेक एवं ज्ञानभरी बातें सुनकर ससुर बहुत आश्चर्यचकित हुआ। उसका विवेक जाग्रत् हो गया तथा उसे ज्ञान एवं वैराग्य हो गया। उसने बहूसे कहा-पुत्री ! अमुक कमरेमें जो गेहूँ, चने एवं जौ मिश्रित हैं, कलसे उसको पिसवाकर भिखारियों एवं अतिथियोंको भोजन करवाया करो। वस्तुतः वह गेहूँ आदि पुराना था तथा उसमें घुन भी लगे हुए थे।
ससुर धनाढ्य तो थे ही। घरमें किसी बातकी कमी भी नहीं थी। ससुरजीके कहे अनुसार बहूने वैसा ही किया और उसी आटेकी रोटी बनाकर ससुरजीके आगे परोसी । चने एवं जौमिश्रित रोटी जब सेठजी खाने लगे तो वह रोटी उनके गले नहीं उतरती थी। उस समय उन्होंने बहूसे पूछा- बेटी ! आज कौनसे आटेकी रोटी बनायी है, जिसके खानेसे गला लकड़ीके समान खुश्क हो रहा है ? यह सुनकर बहूने पूर्ववत् नम्रतासे कहा- पिताजी ! उसी गेहूँकी रोटी आज घरमें बनायी है, जिसको आपने भिखारियोंमें बाँटनेको कहा था।
बहूसे यह उत्तर पाकर सेठ विस्मित हो उससे पूछने लगा कि ‘ऐसा क्यों ?’ तब बहूने कहा- पिताजी ! इसमें हैरान होनेकी बात नहीं; क्योंकि इस जन्ममें जिस प्रकारका अन्न दान किया जायगा, वैसा ही अन्न हमें भविष्यमें मिलेगा। मैंने आपको दिखानेके लिये ही ऐसा किया है। पिताजी ! इस समय यदि आपको यह भोजन पसन्द नहीं है तो क्या आगे चलकर परलोकमें यह भोजन आपको रुचिकर लगेगा ? अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बहूने कहा कि जिस प्रकार के श्रेष्ठ क्रियमाण कर्म इस समय में हम करेंगे, वैसा ही फल हमें अगले जन्म में मिलेगा।
बहूकी यह बात सेठजी के हृदयमें अच्छी तरह बैठ गयी और उन्होंने अच्छे गेहूँका आटा पिसवाकर तथा अच्छा भोजन बनवाकर घरके सामने अन्न-क्षेत्र शुरू कर दिया।
इस दृष्टान्त का यही तात्पर्य है कि प्रत्येक मनुष्य को वर्तमानमें श्रेष्ठ एवं उत्तम कर्म करने चाहिये; क्योंकि वर्तमानके क्रियमाण कर्म ही संचित होकर हमारा प्रारब्ध बनानेवाले हैं। हमारा दुःखित वर्तमान यह विचार करनेके लिये बाध्य करता है कि यह सब हमारे ही किये हुए कर्मोंका फल है। जीवको मनुष्य-जन्ममें जो कर्मोंकी स्वतन्त्रता मिली है, उसका सदुपयोग करते हुए वर्तमानके प्रारब्धको भोगते हुए भविष्य के लिये सुन्दर जीवनका सर्जन करना चाहिये। हम अपने शुभ कर्मोंद्वारा आवागमनसे मुक्त हो सकते हैं तथा वर्तमानको भी श्रेष्ठ एवं सुखी बना सकते हैं।