श्नेता पुरोहित। यह मार्च १९६० की बात है। हम मुजफ्फर नगर के गाँव में कुछ पुनर्जन्म सम्बन्धी घटनाओं की सत्यता का पता लगाने की दृष्टि से गये हुए थे। एक दिन हम काली नदी के किनारे देव मन्दिरों के दर्शन करते हुए किसी संत के सत्संग की इच्छा से घूम रहे थे। अकस्मात् एक जगह एक तख्त पर विराजमान एक संतजीसे वार्तालापके क्रममें हमें पता चला कि उन्हें पूरी गीता कण्ठस्थ है। उन्होंने उपनिषदों का अध्ययन भी किया है। वह एक अच्छे योगाभ्यासी भी थे। उनका शुभ नाम स्वामी श्रीमदनानन्दजी सरस्वती था।
वह ऋषिकेश-हिमालय के कैलासवासी योगिराज पूज्यपाद स्वामी श्रीसत्यानन्दजी महाराज के विशेष शिष्यों में से एक थे। स्वामी श्रीमदनानन्दजी की अवस्था उस समय ७५ वर्षकी थी। वह एकाक्ष (काने) संत थे। उनके सत्संग और संसर्ग से हमें अपूर्व सुख और शान्तिका अनुभव हो रहा था। शास्त्रों-पुराणों और अध्यात्मचर्चाके प्रसंगमें श्रीस्वामीजीने कहा- :
हमारे सनातनधर्मके शास्त्र-पुराणोंकी सभी बातें अक्षर-अक्षर सत्य हैं; पर आजके पाश्चात्त्य सभ्यताकी चकाचौंधमें फँसे मनुष्य इन्हें माननेके लिये तैयार नहीं हैं। यह देशका बड़ा भारी दुर्भाग्य है। शास्त्र-पुराणोंकी बातें इतनी सत्य हैं कि मैं इसका प्रत्यक्ष जीता-जागता प्रमाण आपके सामने हूँ, पर आजके इस घोर अविश्वासके युगमें मेरी बातोंको कोई सत्य कैसे मानने लगा? किंतु एक आँखका न होना और मेरा जन्म होना- ये दोनों इस संदर्भमें पुष्ट प्रमाण हैं। हमें संतजीके श्रीमुखसे यह सुनकर बड़ा भारी आश्चर्य हुआ और हमने पूज्य संतजीसे निवेदन किया कि ‘महाराजजी ! शास्त्रोंकी बातें अक्षर-अक्षर सत्य हैं, इसके प्रत्यक्ष प्रमाण आप कैसे हैं? कृपाकर हमें अवश्य सुनाइये।
हमारे बार-बार विनय करनेपर श्रीसंतजी बोले- अच्छा तो ध्यानसे सुनिये। मैं बाबा होकर पोतेके रूपमें जन्म लेकर कैसे आया और मेरी माताने भगवान् श्रीआशुतोष शंकरजी महाराजकी पूजा-आराधनाके फलस्वरूप मुझे पुत्रके रूपमें कैसे पाया तथा दाह-संस्कारमें कमी रहनेके कारण मैं एक आँखवाला कैसे उत्पन्न हुआ-मैं अपने जीवनकी यह महान् आश्चर्यजनक बिलकुल सत्य घटना आपको ज्यों-की-त्यों सुनाता हूँ।
मेरा जन्म जिला कानपुर की तहसील देरापुर में संवत् १९४२ के लगभग हुआ था। मै जातिका दुबे ब्राह्मण था और मेरे पूज्य पिताजी का शुभ नाम पं० श्रीमधुरी दुबे अर्थात् पं० श्रीमथुरा प्रसाद दुबे था। मेरी पूज्या माताजीका शुभ नाम श्रीदुलारी देवी था और मेरे पूज्य बाबाजी का शुभ नाम श्रीपरमसुख दुबेजी था। मेरी पूजनीया माताजीके चार लड़कियाँ हुईं।
पर लड़का कोई नहीं हुआ। माताजी पुत्र न होनेके कारण बड़ी चिन्तित रहा करती थीं और पुत्र-प्राप्तिके लिये साधु-संतोंकी सेवा तथा भगवान्से अहर्निश प्रार्थना किया करती थीं। किसीके बतानेके अनुसार उन्होंने पुत्र-प्राप्तिके लिये आशुतोष भगवान् श्रीशंकरजी महाराजकी शरण ली। हमारे गाँवके बाहर पं० श्रीकनौजीलाल मिश्रजीका बनवाया हुआ भगवान् श्रीशंकरजीका एक मन्दिर था, जो बीरपहलवानके नामसे प्रसिद्ध था। उसमें जाकर उन्होंने श्रीशंकरजीकी पूजा-आराधना आरम्भ कर दी।
माताजी प्रातःकाल और सायंकाल दोनों समय श्रीशंकर-मन्दिरपर जातीं और बड़े ही प्रेमसे श्रीशंकरजीका पूजन-भजन करतीं, दीपक जलातीं और श्रीशंकरजीसे पुत्र-प्राप्तिके लिये करुण प्रार्थना करतीं। आशुतोष शंकर भगवान् तो बड़े ही दयालु-कृपालु हैं। उन्होंने मेरी माताजीकी प्रार्थनाको तत्काल सुना। जहाँ शास्त्रानुसार चलकर श्रीशंकरजीका पूजन करनेसे श्रीशंकर भगवान् प्रसन्न हुए और उनकी कृपासे पुत्र- प्राप्तिका शुभ अवसर आया, वहीं अकस्मात् एक कार्य शास्त्रविरुद्ध हो जानेसे एक घोर अनर्थ भी हो गया। बात यह हुई कि इसी बीचमें अकस्मात् हमारे पूज्य बाबा श्रीपरमसुख दुबेजीका स्वर्गवास हो गया। उनकी आयु उस समय लगभग ९० वर्षकी थी और वह प्राचीन ढंगके पण्डित थे। नीचेतकका अंगरखा |
पहना करते थे और हाथमें लाठी लेकर चलते थे। बाबाजीका शरीर पूरा होनेपर उन्हें मृतकघाटमें ले जाया गया। हमारे उधर यह एक प्रथा है और यह शास्त्रानुकूल भी है कि सूर्यास्त हो रहा हो तो उस समय मुर्दा नहीं फूंका जाता। उसे पाप माना जाता है। इसलिये सब सूर्यास्तसे पहले ही मुर्दा फूँक लेते हैं। पर हमारे घरवालोंने अज्ञानवश यह कर्म कर डाला और सूर्यास्तके समय ही उनका दाह-संस्कार कर दिया, जो एकदम शास्त्रके विरुद्ध था और वहाँकी प्रथाके भी विरुद्ध था।
हमारे पूज्य बाबाजीका शास्त्रविरुद्ध दाहकर्म-संस्कार करनेका घोरतर दुष्परिणाम यह हुआ कि उन्हीं बाबाको मुझ पोतेके रूपमें आकर उसे आजतक भोगना पड़ रहा है और वही मैं आज आपके सामने उपस्थित हूँ। मैं जन्मान्तरमें एक आँखसे भी हाथ धो बैठा।
एक दिन रात्रिमें मेरी माताजीको बाबाजीने स्वप्नमें दर्शन देकर कहा कि तुम लोगोंने हमारा दाहकर्म सूर्यास्तके समय कर दिया, इसलिये हमारा क्रिया-कर्म भ्रष्ट हो गया। शंकर-पूजनसे तुम्हारे पुत्र उत्पन्न होगा और हम ही तुम्हारी कोखसे पुत्र बनकर जन्म लेंगे; परंतु सूर्यास्तके समय हमारा दाहकर्म करनेके कारण हमारा एक नेत्र विनष्ट हो गया। इसलिये हम तुम्हारे एक नेत्रवाले (काने) पुत्र होंगे।
माताजीने यह स्वप्न देखा और उन्हें इससे बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने बाबाजीकी यह भविष्यवाणी की बात सबको सुना दी। स्वप्नकी बातें वास्तवमें सत्य निकलीं और कुछ दिनों पश्चात् ही मेरी माताको गर्भ रहा और बाबाजीकी स्वप्नकी भविष्यवाणीके अनुसार मैं एक आँखवाला पुत्र उत्पन्न हुआ।
मैं ही अपना बाबा हूँ। मैंने ये पूर्वजन्मकी बातें कैसे बतायीं?
जहाँ शास्त्रविरुद्ध सूर्यास्तके समय दाहकर्म करनेके कारण बाबा को मुझ पौत्र के रूप में आकर एक आँखसे हाथ धोकर आजतक कष्ट उठाना पड़ रहा है, वहीं जीवनभर मेरी माता को भी मेरी एक आँख न होनेका संताप बना रहा। जब मैं कुछ बड़ा हुआ और बोलने लगा, तब मैं सबके सामने स्वतः ही बाबा होनेका प्रत्यक्ष प्रमाण देने लगा। मैं सबको बताने लगा कि यह मेरी लाठी है, जिसे मैं पूर्वजन्ममें बूढ़ा होनेके कारण लेकर चला करता था। यह मेरा अँगरखा है, जिसे मैं पहना करता था।
अमुक आदमी हमारे रिश्तेदार हैं, उन्हें बुलाओ। ये सब बातें बताने पर मेरी माता ने इसपर कोई ध्यान नहीं दिया और इसे भूत-प्रेत की बीमारी समझकर मेरी सेवा और देख-भाल करना बहुत कम कर दिया। लेकिन आगे चलकर मैं बड़ी-बड़ी विचित्र बातें बतलाने लगा और पूर्वजन्ममें जब मैं बाबा था, उस समयके अपने गाड़े हुए रुपये बताकर और सबके सामने उखाड़कर दिखाये। यह देखकर सब आश्चर्यचकित रह गये और बरबस सबको एक स्वरसे यह स्वीकार करना पड़ा कि वास्तवमें बाबा ही पौत्रके रूपमें जन्म लेकर आये हैं। बहुत दिनोंतक मैंने इसी प्रकार अपने पूर्वजन्मकी सभी बातें बता-बताकर और प्रमाण दे- देकर सबको चमत्कृत कर दिया, किंतु बादमें माताजीने मेरे कान बिंधवा दिये, जिससे मैं सब भूल-भाल गया और फिर मुझे कुछ याद नहीं रहा।
शास्त्र-विरुद्ध, सनातनधर्मविरुद्ध दाहकर्म होनेके कारण मुझे अपनी आँखसे हाथ धोना पड़ा और मेरे घरवालोंको भी इस बात से बड़ा घोर दुःख हुआ, किंतु आशुतोष भगवान् भोलेनाथ की आराधना के फलस्वरूप मेरी माताजी की पुत्र-प्राप्ति की लालसा तो पूरी ही हो गयी थी। मैं बहुत दिनोंतक घरपर रहा। बाद में पहलवानी करता रहा और नौकरी भी की।
अन्तमें सब कुछ छोड़-छाड़कर ऋषिकेशके स्वर्गीय महान् योगिराज संत पूज्यपाद १००८ श्रीस्वामी श्रीसत्यानन्द सरस्वतीजी महाराजकी शरण में चला गया और उन्हीं से संन्यासकी दीक्षा ग्रहण कर ली। मेरी माताजी ने मेरा नाम मदन रखा था, मैंने पूज्य गुरुजी महाराज को अपना वही नाम बताया, तब पूज्य गुरुजी महाराज ने संन्यास के समय हमारा वही नाम मदनकी जगह ‘मदनानन्द सरस्वती’ रख दिया और मुझे उन्हीं श्रीगुरुदेवने कृपाकर गीता-उपनिषद् आदि सब पढ़ाये।
वे अपने आश्रममें बहुतसी गायें रखा करते थे। मुझे उन गायोंकी सेवा करनेका भी परम सौभाग्य प्राप्त हुआ और उन्होंने हमें कुछ योगाभ्यास भी सिखाया। इस प्रकार उन्होंने मुझे परमार्थ-पथका पथिक बना दिया। मुझे अपने जीवनकी सभी सत्य घटनाओंसे यह स्पष्ट हो गया और पूर्ण निश्चय हो गया कि शास्त्रों-पुराणोंमें जो श्रीशंकर-आराधना, विष्णु-आराधना आदिके फल बताये गये हैं, वे बिलकुल ही सत्य हैं। मेरी माताजीने शंकर-आराधनासे मुझे पुत्ररूपमें प्राप्त किया- यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
शास्त्र-पुराणोंमें जो बातें लिखी हैं और उनके करनेका महान् पुण्यफल लिखा है तथा शास्त्रविरुद्ध कर्म करनेका जो भयंकर दुष्परिणाम लिखा है, उनकी सत्यता का भी हमने अपने जीवनमें भलीभाँति अनुभव कर लिया। सूर्यास्त के समय शास्त्र विरुद्ध दाह कर्म करने के कारण मुझे एक आँखसे हाथ धोना पड़ा। शास्त्र-पुराणोंमें जो पुनर्जन्मकी हजारों घटनाएँ भरी पड़ी हैं किंतु जिन्हें आजके लोग माननेको तैयार नहीं, वे सभी बातें अक्षर-अक्षर सत्य हैं – मैंने यह प्रत्यक्ष अनुभव किया है, जो तुम्हें सप्रमाण बतला दिया।’
यह है एक वीतराग संन्यासी के जीवन की महान् आश्चर्यजनक सत्य घटना, जो मैंने आपके सामने रखी है और जिससे हमारे शास्त्रोंकी, पुराणोंकी सभी बातें सत्य सिद्ध होती हैं। यह घटना, ‘शास्त्रानुसार चलनेमें ही हमारा वास्तविक सच्चा कल्याण है और शास्त्र विरुद्ध चलने से घोर अधःपतनकी सम्भावना है,’ को डंकेकी चोटः सत्य प्रमाणित करती है। आशा है, पाठक इस सत्य घटनासे शिक्षा लेकर शास्त्र-पुराणोंकी अद्भुत महत्ताको स्वीकार करेंगे और शास्त्रानुसार चलकर अपना, अपने कुलका, जातिका तथा देशका कल्याण करेंगे।