गुरू पूर्णिमा की आप सभी को ढेर सारी शुभकामनाएं। यह मेरे दीक्षा की तस्वीर है। 28 मार्च 1998 को मैं ओशो के नवसंन्यास में दीक्षित हुआ था। मैं किसी जिज्ञासु की भांति अपने उम्र के 10वें साल (1986) में ही गुरु को ढूंढने लगा था। उस साल के आसपास विनोद खन्ना के ओशो संन्यासी बनने, अमेरिका में रजनीशपुरम को नष्ट करने, और फिर 21 देशों द्वारा ओशो को वीजा न देने की अखबार में छप रही छिटपुट घटना मुझे ओशो की ओर मोड़ रही थी। उस वक्त पटना के एक हॉस्टल में रहकर मैं पढ़ाई कर रहा था। हॉस्टल में अखबार वाला प्रतिदिन सुबह अखबार देने आता था। मैंने एक दिन उससे ओशो के बारे में पूछा। उसने कहा, ‘मैं उनके बारे में कुछ नहीं जानता। हां उनकी एक पत्रिका आती है। कहोगे तो ला दूंगा।’ मैंने हां कह दिया।
उस जमाने में लंबे साइज़ में ‘ओशो टाइम्स’ आता था। उसकी कीमत उस जमाने में ५₹ थी। पहला अंक जब वह मुझे दे गया। उस दिन पहली बार मैंने पत्रिका के कवर पर ओशो को देखा, और उनकी आंखों में खोता चला गया। एक ही रात में पूरा अंक पढ़ डाला। फिर तो हर महीने अखबार वाले का इंतजार करता कि किस दिन वह मुझे ‘ओशो टाइम्स’ दे जाएगा।
हॉस्टल का नियम बहुत कड़ा था। वहां के पुस्तकालय में नंदन, चंपक, चंदामामा- सब आता था। बाहर से कुछ भी खरीदने की मनाही थी। मैं चोरी-छुपे ‘ओशो टाइम्स’ मंगवाता, और चोरी-छिपे पढ़ता।
मेरी यह चोरी छिपे पढ़ने की आदत 1989 में जाकर खुली, और फिर उस स्कूल के प्रिंसिपल ने छाती पर लात रखकर बेंत से मेरी ऐसी ठुकाई की कि मैं उस रात जमीन पर लेटे-लेटे ही कराहता रहा था। अगले दिन सुबह मैं हॉस्टल की दीवार फांद कर भाग गया। मैं पहला बच्चा था जो उस हॉस्टल से भागने में कामयाब रहा था। बचपन से मैं विद्रोही स्वभाव का था, ओशो ने उस स्वभाव की अग्नि में और घी डाल दिया था। मैं बदलता जा रहा था।
1989 में मैं ऑल इंडिया स्कॉलरशिप परीक्षा में सफल हो गया, और सरकारी खर्चे पर पढ़ाई के लिए उदयपुर (राजस्थान) चला गया। ओशो भी मेरे अंदर यात्रा करते रहे। फिर BHU में Hons करने पहुंचा। यहां से मैंने ओशो को पढ़ने के साथ उनकी ध्यान विधियों में डुबकी लगाना आरंभ किया। बनारस के मनमौजी स्वभाव ने इसमें मेरी मदद की। 1998 में मैंने पटना के ही एक ध्यान शिविर में संन्यास ले लिया। मेरी मां डर गयी कि मैं संसार से विरक्त होता जा रहा हूं। परंतु ओशो तो संसार में रहकर संसार से परे जाने की यात्रा कराने वाले नाविक हैं। मेरी मां का डर दूर हो गया, जब मैंने प्रेम विवाह किया।
ओशो की ध्यान विधियों ने मुझे निरंतर साक्षीभाव दशा में पहुंचा दिया, और फिर ध्यान साधना मेरे लिए कुछ घंटे का अभ्यास नहीं, बल्कि मेरी सांसों के साथ ही चलने लगा। मेरे जीवन से सपने हमेशा के लिए विदा हो गये। याद नहीं आता कि दशकों से नींद में मुझे कभी कोई सपना आया हो। कल्पना की उड़ान समाप्त हो गयी और मस्तिष्क हमेशा के लिए शांत हो गया। शायद इसीलिए 8वीं कक्षा में कहानी प्रतियोगिता जीतने वाला वह बच्चा आज जब भी फिक्शन लिखने बैठता है, हंसी के मारे उसका बुरा हाल हो जाता है, और फिर वह उसे छोड़ देता है।
सच्चा गुरु वही है जो अंत में तुम्हें न केवल तुमसे, वरन् अपने आप से भी मुक्त कर दे। मेरे लिए ओशो ऐसे ही गुरु हैं। मेरे सच्चे गुरु ने मुझे बदल कर रख दिया। इसलिए आज जब कोई उन्हें गाली देता है तो मैं बस मुस्कुरा देता हूं, क्योंकि मैं उनसे भी मुक्त हो चुका हूं।
मैं उन्हें देह में तो नहीं देख सका, लेकिन उसकी कोई आवश्यकता नहीं। ईश्वर को कहां हम देह में देखते हैं? वह तो हमारे अंदर ही है। गुरु पूर्णिमा पर मैं, मुझमें बोध जगाने वाले अपने गुरु ओशो को नमन करता हूं। आप सभी को भी गुरू पूर्णिमा की बधाई। वंदे गुरु!