श्वेता पुरोहित। (महाभारत०, कर्ण० ४१) समुद्रतट के किसी नगर में एक धनवान् वैश्य के पुत्रोंने एक कौआ पाल रखा था। वे उस कौएको बराबर अपने भोजन से बचा अन्न देते थे। उनकी जूँठन खानेवाला वह कौआ स्वादिष्ट तथा पुष्टिकर भोजन खाकर खूब मोटा हो गया था। इससे उसका अहंकार बहुत बढ़ गया। वह अपने से श्रेष्ठ पक्षियों को भी तुच्छ समझने और उनका अपमान करने लगा।
एक दिन समुद्रतट पर कहीं से उड़ते हुए आकर कुछ हंस उतरे। वैश्यके पुत्र उन हंसों की प्रशंसा कर रहे थे, यह बात कौएसे सही नहीं गयी। वह उन हंसोंके पास गया और उसे उनमें जो सर्वश्रेष्ठ हंस प्रतीत हुआ, उससे बोला- ‘मैं तुम्हारे साथ प्रतियोगिता करके उड़ना चाहता हूँ।’
हंसोंने उसे समझाया- ‘भैया ! हम तो दूर-दूर उड़नेवाले हैं। हमारा निवास मानसरोवर यहाँसे बहुत दूर है। हमारे साथ प्रतियोगिता करनेसे तुम्हें क्या लाभ होगा। तुम हंसों के साथ कैसे उड़ सकते हो?’
कौएने गर्व में आकर कहा-‘मैं उड़ने की सौ गतियाँ जानता हूँ और प्रत्येकसे सौ योजनतक उड़ सकता हूँ।’ उड्डीन, अवडीन, प्रडीन, डीन आदि अनेक गतियोंके नाम गिनाकर वह बकवादी कौआ बोला – ‘बतलाओ, इनमेंसे तुम किस गतिसे उड़ना चाहते हो ?’
तब श्रेष्ठ हंसने कहा – ‘काक! तुम तो बड़े निपुण हो। परंतु मैं तो एक ही गति जानता हूँ, जिसे सब पक्षी जानते हैं। मैं उसी गति से उडूंगा।’
गर्वित कौएका गर्व और बढ़ गया। वह बोला- ‘अच्छी बात, तुम जो गति जानते हो उसीसे उड़ो।’ उस समय कुछ पक्षी वहाँ और आ गये थे। उनके सामने ही हंस और कौआ दोनों समुद्रकी ओर उड़े। समुद्रके ऊपर आकाशमें वह कौआ नाना प्रकारकी कलाबाजियाँ दिखाता पूरी शक्तिसे उड़ा और हंससे कुछ आगे निकल गया। हंस अपनी स्वाभाविक मन्द गतिसे उड़ रहा था। यह देखकर दूसरे कौए प्रसन्नता प्रकट करने लगे।
थोड़ी देर में ही कौए के पंख थकने लगे। वह विश्राम के लिये इधर-उधर वृक्षयुक्त द्वीपोंकी खोज करने लगा। परंतु उसे उस अनन्त सागरके अतिरिक्त कुछ दीख नहीं पड़ता था। इतने समयमें हंस उड़ता हुआ उससे आगे निकल गया था। कौएकी गति मन्द हो गयी। वह अत्यन्त थक गया और ऊँची तरंगोंवाले भयंकर जीवोंसे भरे समुद्र की लहरोंके पास गिरनेकी दशामें पहुँच गया।
हंसने देखा कि कौआ बहुत पीछे रह गया है तो रुक गया। उसने कौएके समीप आकर पूछा-‘काक! तुम्हारी चोंच और पंख बार-बार पानीमें डूब रही हैं। यह तुम्हारी कौन-सी गति है?’
हंसकी व्यंगभरी बात सुनकर कौआ बड़ी दीनतासे बोला- ‘हंस! हम कौए केवल काँव-काँव करना जानते हैं। हमें भला दूरतक उड़ना क्या आये। मुझे अपनी मूर्खताका दण्ड मिल गया। कृपा करके अब मेरे प्राण बचा लो।’
जलसे भीगे, अचेत और अधमरे कौए पर हंस को दया आ गयी। पैरों से उसे उठाकर हंसने पीठपर रख लिया और उसे लादे हुए उड़कर वहाँ आया जहाँसे दोनों उड़े थे। हंसने कौए को उसके स्थानपर छोड़ दिया।
हंस बुद्धिमान व्यक्ति के प्रतीक होते हैं। कौआ उस व्यक्ति को दर्शाता जो बिना विषयों के उचित-अनुचित का ज्ञान हुए शोर मचाता है। सागर असीम परमात्मा का प्रतीक है।
आज भी दिनभर काँव-काँव करने वाले कुछ कौए यदि थोड़े समय के लिए शांत हो जाएं तो सबका भला हो जाए।