अजय शर्मा काशी। सनातन धर्मग्रंथों में वर्णित शिवराघव संवाद के अन्तर्गत प्रसंग में श्रीरामचन्द्रजी ने पुराण तत्त्व के ज्ञाता शम्भुमुनि से सभी धर्मों के रहस्यों को जानने के उपरांत श्रीरामचन्द्रजी शम्भुमुनि से पुराण श्रवण विधि और पुराण वाचनविधि पर चर्चा प्रारंभ करते है-
भगवान् श्रीराम ने कहा- हे द्विजश्रेष्ठ । जो ब्राह्मणाधम पाप समूह से युक्त था उसको पौराणिक ब्राह्मण ने पुराण की व्याख्या कैसे सुनायी ?
कथं पातकसङ्घातसङ्क्रमे ब्राह्मणाधमे।
पुराणज्ञः कथं व्याख्यां चकार द्विजसत्तम ॥१
शम्भुमुनि ने कहा- उन दोनों का सङ्गम अध्यापन और अध्ययन दोनों समयों से होता था। हे रामचन्द्रजी। इस तरह से एक वर्ष तक मिलते रहने के कारण उस ब्राह्मण के पाप विनष्ट हो गये–
अध्यापने चाध्यायने जायते चाथ सङ्गमः।
सङ्गती वत्सरं राम याति पातकिपातकम् ॥२
हे काकुत्स्थवंशावतंस श्रीरामचन्द्रजी । तत्त्वों के ज्ञाता पुराणज्ञ के होने पर उसके द्वारा व्रत का पालन करने से पाप समूह का नाश हो जाता है।प्रभूत मात्रा में विद्यमान अग्नि के नाश हो जाने पर जैसे धूम समूह ही बचा रहता है, और उससे कुछ भी नहीं बिगड़ता है, जैसे कीड़ा तो दीपक को ही बुझा सकता है, वह अग्नि को नहीं बुझा सकता है, उसी तरह से दूसरों द्वारा किऐ गये पाप का विनाश करने के लिए पौराणिक भूत आदि से ग्रस्त मनुष्यों के भूत आदि का भय दूर कर देता है। जिस तरह से मन्त्रज्ञ पुरुष स्वयं भूत से अस्त नहीं होता है उसी तरह पौराणिक को कोई भी पाप नहीं लगता है, पुराणज्ञ पुरुष अपने द्वारा किए गये तथा दूसरों के द्वारा किए गये पापों को नष्ट कर देता है–
पुराणज्ञे तु काकुत्स्थ सर्वतत्त्वार्थवेदिनि ।
अपि पातकसन्दोहचीर्णपापं प्रणश्यति ॥३ प्रभूतवह्निनाशे हि धूमराशिर्यचैव हि।
शलभो दीपनाशाय वह्निनाशाय न प्रभुः॥४
कृतं पापं तथान्येषां नाशनाय पुराणिकः।
भूतादिग्रस्तमर्त्यानां न भूतादि भयमोचकः॥५
समन्त्रवानपनयेद्यथा न स्वयमातुरः ।
पौराणिकस्तथा पापं न किंचित्प्राप्तुमर्हति॥६
आत्मना च कृतं पापमन्यैरपि च यत्कृतम्।
पुराणज्ञो नाशयति त्वतिदुष्टं स्वकर्म वा ॥७
हे श्रीरामचन्द्रजी ! आपके आदेशानुसार शिवजी तथा भगवान् विष्णु में एक समान वृत्ति वाले, विवेकी, लौकिक तथा वैदिक क्रियाओं के ज्ञाता रुद्राध्याय का पाठ करने वाले, सबों से अत्यन्त निःस्पृह रहने वाले, सदा सन्तुष्ट रहने वाले, शान्त होकर क्रियाओं को सम्पादित करने में निपुण, बहुत अधिक प्रयास करते रहने वाले तथा आपके ही समान अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाले, पुराणों के ज्ञाता, ऐश्वर्य सम्पन्न ऋषि वसिष्ठ अयोध्या में रहते थे। वे सम्पूर्ण पृथिवी की तथा आपकी रक्षा करते थे। उसी समय यहाँ एक राक्षस आया ,शुक्राचार्य का आदेश प्राप्त करके वह राक्षस आपके पास आया। वह सोचकर आया कि जब श्रीराम सोते रहेंगे उसी समय मैं उनको मार दूंगा। अन्यथा मुझे उनको मारने का अवसर नहीं मिलेगा–
भवानीशे हृषीकेशे समवृत्तिर्विवेकवान्।
लोकवेदक्रियावेत्ता रुद्रजाप्यतिनिः स्पृहः॥८
तुष्टः शान्तः क्रियादक्षः प्रभूतो योगकृद्वशी।
यथैव ते पुराणज्ञो वसिष्ठो भगवानृषिः॥९
नियोगात्तव भूपाल अयोध्यायामतिष्ठत ।
अपालयद्धवं कृत्स्नां त्वां च रक्षः समापतत्॥१०
स च शुक्रोपदेशेन राक्षस्त्वामथाभ्यगात् ।
निद्रासक्तं हनिष्यामि नान्यथाऽवसरस्त्वति॥११
आपका कल्याण करना ही जिनको प्रिय था वे महर्षि वसिष्ठ इस बात को जान गये कि जिस समय श्रीराम सोएँ अथवा असावधान रहेंगे उसी समय यह श्रीराम को मार देगा।वह ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त किए हुए है, अतएव उसको मुझे रोकना चाहिए। इसके बाद वे विप्रर्षि सेना लेकर निकले, वे मुनि जानते थे कि इस राक्षस की मृत्यु नहीं हो सकती है अतएव मैं उसकों नहीं मार सकता हूँ। वे महामुनि स्वयं राक्षस बन गये और उन्होंने उस राक्षस से कहा मुनियों से सुसेवित इस वन में तुम किसलिए आये हो ? उस राक्षस ने कहा कि यहाँ का राजा राक्षसों को मारता है, अतएव मैं इसको मारने के लिए आया हूँ उसके जीवित या मृत होने से कौन सा लाभ है ? तुम मेरे मांस को खाकर युद्ध करके विजयी बन जाओ–
अथ विप्रो विदित्वैतद्वसिष्ठस्त्वद्धितप्रियः ।
सुप्तं प्रमत्तं काकुत्स्थं रक्षोहन्ति न संशयः॥१२
ब्रह्मावाप्तवरं तद्धि मया कार्यं निवारणम्।
इति सञ्चिन्त्य विप्रर्षिः सेनामादाय निर्गतः ॥१३
रक्षोहन्तुमशक्तस्तु मृत्युहीनं ततो मुनिः।
स्वयं च राक्षसो भूत्वा वाक्यमाह महामुनिः ।।१४
किमर्थमागतोऽसीह वनं मुनिनिषेवितम्।
स आह राजा रक्षोघ्नस्तमहं हन्तुमागतः ॥१५
मुनिरप्याह किं तेन जीवितेन मृतेन वा।
भुक्त्त्वाऽऽमिषं मदीयं तु युद्धं कृत्वाजयं व्रज ॥१६
राक्षस ने कहा- तुम राक्षस हो तुमको मैं कैसे खाऊँ ? उसके बाद वसिष्ठ महर्षि मनुष्य होकर आकाश में स्थित हो गये,वे उसके शिर पर थूक कर उसको मुक्के से मारे। उनके द्वारा प्रताड़ित होकर वह राक्षस ऋषि को दौड़ाया भागते हुए वे दोनों समुद्र में पहुँच गये। वहाँ पर विद्यमान ग्राह ने उस राक्षस को पकड़ लिया उसके बाद मुनि वसिष्ठ पहले के ही समान अयोध्या में रहने लगे–
कथं त्वं राक्षसो महां भक्षणाय भविष्यसि ।
वसिष्ठोऽप्यथमानुष्यगास्थाय वियतिस्थितिः ॥१७
निष्ठीव्य मस्तके तस्य मुष्टिना तमताडयत्।
ताडितो राक्षसस्तेन व्यद्रावयदृषिश्च तम् ॥१८
पलायमानावन्योन्यं जलधिं तु गतावुभौ ।
तत्रस्थेन ग्रहेणाऽसौ गृहीतो राक्षसस्तदा।
मुनिः पुनरयोध्यायां पूर्ववत्समतिष्ठत॥१९
शम्भुमुनि ने कहा- अतएव मत्सर रहित पुराणज्ञ को चाहिए कि वह अपने अभिमत अर्थ की सिद्धि करे ,मैं पुराण के सुनने के मङ्गलमयी विधि को बतलाता हूँ उसे आप सुनें। महीने के शुक्लपक्ष में जब शुद्ध दिन और नक्षत्र एवं योग से युक्त दिन आये और करण तथा लग्न को भी ग्रह तथा तारा के बल से युक्त हो उस समय पुराण सुनना चाहिए। उस समय ग्रह को मूढ अथवा बाल नहीं होना चाहिए। उस समय बृहस्पति को भी वृद्ध नहीं होना चाहिए।कृष्ण पक्ष में या ग्रहण की बेला में या नास्तिक के सन्निकट पुराण का श्रवण नहीं करना चाहिए। उपर्युक्त प्रकार के ही लग्न में पूर्वोक्त लक्षणों से युक्त पुराण का श्रवण करना चाहिए एवं शुद्ध गृह में अथवा शुद्ध वेदी पर या मठ में, या नदी के तट में, या मंदिर में अथवा सभामण्डप में अथवा गली के मठ (गुरुकुल) में या मनोहर पवित्र गृहों में, ओता को चाहिए कि वह ब्राह्मणों को नमस्कार करे तथा पुराण को विशेष रूप से प्रणाम करे, उसके बाद वह आसन का निर्माण करे। उस आसन को ऊँचा और हर प्रकार की विशेषाताओं से विशिष्ट होना चाहिए। उसके बाद पुराणज्ञ से मधुर शब्दों में कहना चाहिए कि आइये यह धर्मासन है–
तस्मात्स्वाभिमतं कुर्यात्पुराणज्ञो विमत्सरः ।
श्रवणस्य विधानं च कथयामि शुभं शृणु ॥२०
शुक्लपक्षे दिने शुद्धे वारनक्षत्रयोगतः।
करणे चापि लग्ने च ग्रहताराबलान्विते ॥२१
अमूढेन ग्रहे बाले न च वृद्धौ गुरौ स्थिते।
न कृष्णपक्षे ग्रहणे न च नास्तिकसन्निधौ॥२२
पूर्वोक्तलक्षणोपेतं पुराणं शृणुयादिति ।
शुद्धगेहेऽथवा शुद्धवेदिकायां मठेऽथवा ॥२३
नदीतीरे देवगेहे सभामण्डप एव च।
रथ्यामठेऽथवा रम्ये पुण्यशालासु राघव ॥२४
स्वयं नमस्य विप्रेन्द्रान्पुराणज्ञं विशेषतः।
आसनं कल्पितं कुर्याद्दूर्ध्वं सर्वविशेषितम्॥२५
एहि धर्मासनमिति वक्तव्यं स्यादनिष्ठुरम्।
पुराणप्रक्रमदिने यत्कार्य तदुदीरयेत् ॥२६
कृपया जाये नही शेष श्लोक 26 आगे शम्भूमुनि श्रीरामचंद्र जी से कहते है जल्द.
हर हर महादेव,जय जय सीताराम । ✍🏻