
मैं तुम्हें यहां मुक्त करने के लिए हूं, न कि कारागार निर्मित करने के लिए: OSHO
अन्तिम प्रश्न:- जब आप शरीर छोड़ देंगे,फिर हमें क्या करना चाहिए? क्या आपके साथ रुककर यह जोखिम उठायी जाए कि जब आपका यह आन्दोलन एक तरह के पुराने धर्म में परिवर्तित हो जाए अथवा मिट जाए,तो क्या यह किसी अन्य जीवन्त सद्गुरु की पुकार के लिए खुल जाएगा ।
ओशो:-
( यह प्रश्न है स्वामी आदि की और से )
पहली बात, क्या तुमने अभी तक मेरी कोई पुकार सुनी है? एक जीवन्त सद्गुरु तुम्हारे आमने-सामने बैठा है — क्या तुमने अभी तक मेरी कोई पुकार सुनी?
और यदि तुम मेरी पुकार नहीं सुन सकते, फिर इस बारे में यह कैसे की जाए, कि तुम किसी अन्य सद्गुरु की पुकार सुन सकोगे।
तुम्हारी इस पूरी धारणा से ही यह प्रकट होता है कि तुम मुझसे चूक रहे हो — अन्यथा मृत्यु के बारे में कौन करता है फिक्र?
यदि तुमने मुझे सुना है, तो इस स्थान पर मृत्यु जैसा कुछ है ही नहीं ।
यदि तुमने मुझे थोड़ा बहुत ही सुना है, तो उसे पूरी तरह सुन लेने से ही मृत्यु लुप्त हो जाती है ।
मेरी मृत्यु के बारे में तुम्हारी इतनी दिलचस्पी क्यों है? मैं कैसे मर सकता हूँ? मैं तो अभी भी हूँ ही नहीं। मृत्यु तो केवल अहंकार के लिए ही सम्भव है ।
हाँ; शरीर तो मिट जाएगा, लेकिन मैं लुप्त नहीं हो सकता ।
रमण महर्षि अपना शरीर छोड़ रहे थे, और उनके एक शिष्य ने रोना चीखना शुरू कर दिया ।
रमण ने आँखें खोली और कहा, “आखिर क्या मामला है? तुम क्यों रो रहे हो?” और शिष्य ने कहा, “भगवान! आप हम लोगों को छोड़कर जा रहे हो। यह असहनीय है। “और यद्यपि रमण महान पीड़ा का अनुभव कर रहे थे,क्योंकि वह गले के कैंसर से बहुत दिनों से पीड़ित थे और उनके लिए कुछ बोलना भी बहुत कठिन था,
रमण हँसे और उन्होंने कहा, “लेकिन मैं कहाँ जा सकता हूँ? मैं यहाँ उतना ही बना रहूँगा, जितना कि मैं ठीक अभी हूँ। मैं कहाँ जा सकता हूँ। तुम्हीं मुझे बताओ। इस स्थान में कहीं भी ऐसी कोई जगह नहीं,जहाँ जाना हो।
यहाँ से कहीं भी तो नहीं जाना है आदि!
यही मैं तुमसे कहता हूँ — मैं कैसे मर सकता हूँ? वह जो मर सकता था, वह पहिले ही चला गया है,वह और मर नहीं सकता, वह यहाँ तुम्हारे सामने है। लेकिन ऐसा लगता है, तुम मुझसे चूक रहे हो।
चूँकि तुम चूक रहे हो, तुम सोचते हो — “मेरा क्या होगा जब भगवान चले जाएँगे?”
वस्तुत: उसके साथ संबंध बनाने की अपेक्षा, उससे सम्बन्ध बनाओ, जो ठीक अभी तुम्हारे साथ भगवान के यहाँ रहते हुए घट रहा है। तुम्हारी दिलचस्पी उसी में होनी चाहिए। जब मैं यहाँ हूँ, और तुम भी यहाँ हो, तब इस स्थान पर मिलन होने दो, इसी तरह तरलीकरण और विद्यटन होने दो,और इसी जगह एक अन्तर्संवाद होने दो।
तुम क्या व्यर्थ की बात पूछ रहे हो — जब मैं मर जाऊँगा, तो तुम करोगे क्या? कुछ तो अभी करो, जब तक मैं यहाँ हूँ।
और इसकी जरा भी फिक्र नहीं करता मैं, कि मेरे जाने के बाद तुम क्या करोगे, जब मैं यहाँ हूँ तब यदि तुम कोई भी चीज नहीं कर सकते, तो फिर तुम्हारे बारे में और क्या आशा की जा सकती है, यदि तुम, जब तक मैं यहाँ हूँ, मुझसे चूकते ही रहे, तो यह स्वाभाविक है कि जब मैं चला जाऊँगा,
तब भी तुम चूकते ही रहोगे । इससे तुम्हारे लिए कोई अधिक अन्तर नहीं पड़ेगा।
और इससे उन दूसरे लोगों को भी अधिक फर्क नहीं पड़ेगा, जो ठीक अभी मुझसे नहीं चूक रहे हैं। वे लोग मुझे कभी भी भूलेंगे नहीं।
जब मैं चला भी जाऊँगा, तो भी मैं उनके हृदयों में जितना पहिले बना रहा, उतना ही बना रहूँगा। एक बार वास्तव में तुम जब किसी जीवन्त सद्गुरु के सम्पर्क में आते हो, तो वह सद्गुरु हमेशा के लिए
तुम्हारा जीवन्त सद्गुरु बन जाता है ।तब वहाँ कोई जरूरत नहीं रह जाती।
लेकिन यदि तुम उसके सम्पर्क में नहीं हो, तो स्वाभाविक रूप से तुम्हें किसी अन्य को खोजना होगा।
और वास्तव में, तुम उसे पहिले ही से खोज रहे हो। तुम्हारे इस प्रश्न से ही यह प्रकट होता है कि तुम ही से चिन्तित हो और तुमने
पहले ही खोज शुरू कर दी है। वास्तव में तुम मुझसे वह कह रहे हो — “भगवान, आप जल्दी मर जाएँ, जिससे मैं दूसरा जीवित सद्गुरु खोज सकूँ। “तुम्हारे प्रश्न का असली अर्थ यही है।
यदि तुम ऐसा चाहते हो, तो मैं ऐसा कर सकता हूँ। तुम्हारी खातिर मैं मर सकता हूँ, जिससे तुम दूसरा सद्गुरु खोजने के लिए स्वतन्त्र हो जाओगे।
लेकिन तुम ठीक अभी भी स्वतन्त्र हो।
तुम्हें स्वतन्त्र बनाने के लिए मुझे क्यों मरना चाहिए? तुम स्वतन्त्र हो।
यदि तुम मेरे साथ कोई सम्पर्क नहीं रखना चाहते, तब यहाँ तुम्हें कौन पकड़ कर रोके रखना चाहता है? अपने आप को धोखा मत दो। तुम पूरी तरह स्वतन्त्र हो।
मैं किसी भी व्यक्ति के लिए बन्धन नहीं हूँ। मैं यहाँ तुम्हें मुक्त करने के लिए हूँ, न कि तुम्हारे लिए कारागार निर्मित करने के लिए।
यदि तुम मेरे हृदय के साथ अपने हृदय का सम्बन्ध नहीं जोड़ सकते, तो यहाँ से छुटकारा पालो। यह स्थान तुम्हारे लिए है ही नहीं।
तुम्हारा प्रश्न बहुत स्पष्ट है। वह कहता है – “जब आप अपना शरीर छोड़ देंगे, फिर हमे क्या करना चाहिए? क्या आपके साथ रुके रहकर यह जोखिम उठाई जाये कि जब आपका यह आन्दोलन एक तरह के पुराने धर्ममें बदल जाए अथवा मिट जाए, तो क्या वह किसी अन्य जीवन्त सद्गुरु की पुकार के लिए खुल जाएगा।
यदि तुमने मुझे सुना है, तो इस बारे में फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं है। यदि तुमने मुझे नहीं सुना है, तब यहाँ से पलायन कर जाना जरूरी है।
तब मैं तुम्हारे लिए हूँ ही नहीं। लेकिन अभी इस क्षण को सोचो भविष्य के बारे में कोई चिन्ता मत करो – उससे तुम्हारा कोई सम्बन्ध ही नहीं।
दूसरी बात यह, प्रत्येक धर्म धीमे-धीमे एक संगठन बन जाता है।
चीजों के प्रामाणिक स्वभाव के अनुसार उसे ऐसा होना ही होता है। जब तक सद्गुरु जीवित है, तब तक यह एक अलग बात है, जब सद्गुरु चला जाता है, तब वह बिल्कुल दूसरी बात हो जाती है।
लेकिन उन लोगों के लिए जिन्होंने सद्गुरु से प्रेम किया है, सद्गुरु उनके साथ हमेशा बना रहता है। उन लोगों के लिए , जिन्हें महर्षि रमण से प्रेम था, वे अभी भी उनके साथ ही हैं। वे अभी भी वैसा ही अनुभव करते हैं।
जब वे अरुणाचल जाते हैं, उसी पर्वत और उसी स्थान पर, जब वे उनकी समाधि के निकट बैठते हैं, उन्हें अभी भी ठीक वैसी ही सुवास, वैसी ही उनकी उपस्थिति और उसी दीप्ति का अनुभव होता है और रमण अभी भी उन्हें उत्तर देते हैं,और रमण अभी भी उन्हें दर्शन देते हैं। उन लोगों के लिए कहीं भी और जाने की कोई जरूरत नहीं है, उन्होंने अपना सद्गुरु पा लिया है ।
इसके साथ अन्य दूसरे लोग भी हैं, जो रमण के उस स्थान पर जाते हैं — लेकिन वे उस स्थान पर उनकी उपस्थिति का अनुभव नहीं करते। वे सोचते हैं कि वे मर गये, वे जानते हैं कि वह मृत हैं। उनके लिए वह स्थान केवल अब एक कब्रगाह है, एक पुराना मंदिर या स्मृति स्थल मात्र है। लेकिन वे लोग उनके सम्प्रदाय से बंधे हैं।
वे अभी भी इस विचार का पोषण करते हैं कि वे रमण के अनुयायी हैं । ऐसे लोग मृत व्यक्ति जैसे हैं। उनके लिए अच्छा है, यदि वे लोग कोई नया सद्गुरु खोज लें —- क्योंकि वे पुराने सद्गुरु का सान्निध्य चूक गये। उन्हें नया सद्गुरु खोज लेना चाहिए।
इसलिए, मैं इस बारे में, कि जब मैं चला जाऊँ, तो तुम्हें क्या करना चाहिए, तुमसे प्रत्यक्ष रूप से मैं कुछ भी नहीं कह सकता। उन लोगों के लिए जो मेरे निकट सम्पर्क में रहे हैं, मैं कभी भी नहीं जाऊँगा और उन लोगों के लिए, जिनका मुझसे कोई सम्पर्क नहीं हो सकता, मैं पहिले ही से चला गया हूँ।
उन लोगों को यह स्थान ठीक अभी छोड़ देना चाहिए उन्हें मेरी मृत्यु होने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। हाँ, मेरी मृत्यु के बाद तो उन्हें मुझे छोड़कर जाना ही होगा — लेकिन मैं कह रहा हूँ, उन लोगों को ठीक अभी मुझे छोड़ कर चला जाना चाहिए।
तुम अपना समय और नष्ट मत करो। यह तुम पर निर्भर करता है, कि मेरे जाने के बाद मेरा धर्म रहेगा या नहीं? यह तुम्हीं पर निर्भर है थोड़े से लोगों के लिए वह मर जाएगा …..उन लोगों के लिए यह अभी भी मृत है। …..
शेष अन्य लोगों के लिए यह अभी भी जीवन्त है और हमेशा जीवन्त रहेगा। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं अपने लिए निर्णय लेना है। जब मैं चला जाता हूँ, यदि तुम अनुभव करते हो कि मैं तुम्हारी सहायता करने के लिए वहाँ मौजूद हूँ, तो मैं तुम्हारी सहायता करने को वहाँ रहूँगा ही। यदि तुम यह अनुभव करते हो कि मैं तुम्हारी सहायता करने को अब रहा ही नहीं, तो स्वाभाविक है कि तुम्हें दूसरा सद्गुरु चुनना ही होगा। और मैं तुमसे कह रहा हूँ कि तुम्हें ठीक अभी चुन लेना चाहिए। उस क्षण के लिए क्यों प्रतीक्षा करते हो? हो सकता है मैं इतनी जल्दी न मरूँ।
लोग मुझे चाहते हैं इसके बारे में कोई भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
मैं कल भी मर सकता हूँ अथवा हो सकता है, मैं इतनी शीघ्र न मरूँ। इसलिए इस बात पर निर्भर मत रहो।
तुम बस अपने हृदय की बात सुनो।
यदि तुम्हारा हृदय मेरे साथ विकसित हो रहा है, यदि उसमें नयी-नयी कोंपलें फूट रही हैं, नयी-नयी कलियां आ रहीं हैं,यदि तुम्हारा हृदय कमल खिल रहा है,तब समझना मैं ही तुम्हारा सद्गुरु हूँ। यदि ऐसा नहीं हो रहा है, तब कहीं किसी और की खोज करने निकल जाना, मेरे सभी आशीर्वाद ….तुम्हारे साथ हैं
शून्यता की झील में खिला एक कमल,
26 अगस्त , 1977
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सत्गुरु शरीर नहीं है। सत्गुरु शब्द स्वरूप होता है। वह मनुष्य रूप में मनुष्यों के लिए आता है।अतः मृत्यु शरीर की होती है।