धर्मेंद्र के दोनों बेटों सनी और बॉबी का बॉलीवुड पदार्पण बहुत शानदार अंदाज़ में हुआ था। सनी देओल को राहुल रवैल और बॉबी को राजकुमार संतोषी जैसे मंझे हुए निर्देशकों ने लॉन्च किया था। नतीजा अच्छा रहा। सनी और बॉबी का फ़िल्मी कॅरियर लम्बा और उल्लेखनीय रहा लेकिन यही बात सनी देओल के बेटे करण के लिए नहीं कही जा सकती। करण देओल के डेब्यू का इंतज़ार पूरा फिल्म उद्योग बड़ी बेसब्री से कर रहा था लेकिन दुःख के साथ कहना पड़ेगा कि पिछले तीस साल में धर्मेंद्र परिवार अपनी सबसे कमज़ोर फिल्म के साथ सामने आया है। निर्देशक सनी देओल की फिल्म ‘पल-पल दिल के पास’ पहले शो में ही बिखर कर रह गई।
ये एक ऐसी प्रेमकथा है जो मनाली की नयाभिराम दृश्यावली से शुरू होकर दिल्ली की चकल्ल्स में बिना किसी रोमांच और रोमांस के समाप्त हो जाती है। सहर सेठी(सहर बांबा) एक वीडियो ब्लॉगर है। वह मेहमानों से बचने के लिए एक ट्रेकिंग टूर पर निकल जाती है। यहाँ उसकी मुलाकात करण सहगल (करण देओल) से होती है। इस ट्रेकिंग प्रोग्राम में दोनों करीब आते हैं। यहाँ से कहानी वापस दिल्ली लौटती है। दिल्ली में सहर का पुराना प्रेमी दोनों की राह में रोड़े अटकाता है। ये कहानी सैकड़ों फिल्मों में दोहराई जा चुकी है। हालांकि कुछ फ़िल्में ऐसी रही जो इस आम कहानी के कारण नहीं बल्कि एक खास ‘ट्रीटमेंट’ के चलते सफल रही।
सनी देओल अपने बेटे को लॉन्च करते हैं लेकिन उसकी ‘ग्रूमिंग’ नहीं करते। अब फिल्म उद्योग में कलाकार को एक ‘प्रोडक्ट’ की तरह लॉन्च किया जाता है। लॉन्चिंग से पहले उसकी पॉलिशिंग की जाती है। लेकिन यहाँ हम देखते हैं कि करण को ‘पकाया’ नहीं गया। शायद सनी बेटे के स्वाभाविक अभिनय को उभारना चाहते थे, इसलिए उन्होंने ग्रूमिंग पर अधिक ज़ोर नहीं दिया होगा। आज के दौर में जहाँ फिल्मों की स्क्रिप्ट पर दो-दो साल काम चलता हो, वहां ऐसी अनप्रोफेशनल फिल्म को कौन तवज्जो देगा। ढाई घंटे की फिल्म में दर्शक की ओर से एक भी प्रतिक्रिया न मिलना सनी के साहबज़ादे के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं दिखा रहा है।
धर्मेंद्र की परम्परा रही कि उनके दोनों बेटों की बॉलीवुड एंट्री ‘घोड़े’ पर सवार होकर हुई है। बेताब में सनी और बरसात में बॉबी अपने ओपनिंग सीन में घोड़े पर सवार होकर आए थे। उसके पीछे धर्मेंद्र की सोच ये थी कि जब उनके बेटे दर्शक के सामने जाए तो उनका ‘मर्दाना अंदाज़’ झलके। वे इस तरह अपनी ‘हीमैन’ वाली इमेज बेटों को विरासत में देना चाहते थे। अमिताभ, धर्मेंद्र, सनी देओल के बेटों में दर्शक उनकी ही झलक देखना चाहता है, जो हो नहीं सकता। जिस तरह सनी ने धर्मेंद्र की छवि से निकलकर अपनी ब्रांड इमेज बनाई, वैसे ही करण देओल को भी करना होगा। ऐसा नहीं है कि पहली फिल्म ही सब कुछ होती है लेकिन ये तथ्य है कि पहली फिल्म से जो हासिल होता है, वह कॅरियर में आपके साथ दूर तक जाता है।
करण देओल मासूम हैं। उनमे एक ताजगी है, अपने पिता की जबरदस्त झलक है लेकिन भाव नहीं है। अभी उनको संवादों पर प्रतिक्रिया देते भी नहीं आता। उनकी कद-काठी एक फ़िल्मी हीरो के हिसाब से परफेक्ट है। उनकी आँखें बोलती हैं। कैमरे के सामने अभी वे सहज नहीं हो सके हैं। कैमरे के सामने उनकी चाल भी स्वाभाविक नहीं है। वे बिलकुल वैसे ही हैं, जैसे सनी देओल शुरूआती दौर में हुआ करते थे, एकदम शुष्क। इतना होने पर भी मुझे उनमे एक सितारा दिखाई देता है, जो समय आने पर ही बाहर आएगा। सनी देओल उन्हें भले ही एक सफल फिल्म न दे सके हो लेकिन कम से कम उनका पदार्पण ठीकठाक हो गया है। अब ये उन पर निर्भर करता है कि कैसे वे सनी की ब्रांड इमेज की छाँव से निकलकर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाते हैं।
करण के साथ नज़र आईं सहर बांबा मेरे हिसाब में ‘फ्यूचर स्टार’ हो सकती हैं। सन 2016 में एक कॉन्टेस्ट के जरिये सामने आईं सहर की ये पहली फिल्म है। हालांकि इस फिल्म में उनके लिए करने को कुछ ज्यादा नहीं था लेकिन फिर भी उन्होंने दिखाया है कि उनमे एक स्पार्क है। शुक्रवार की सुबह ये फिल्म कमज़ोर ओपनिंग के साथ शुरू हुई। बहुत कम दर्शकों ने इस फिल्म को देखा। काश ये लड़का किसी हुनरमंद निर्देशक के हाथ से निकलकर सामने आता तो बात ही कुछ और होती। सनी देओल ने अपने घर के आंगन में लगा फल ‘अधकच्चा’ ही तोड़ लिया। पल-पल दिल के पास की बस इतनी सी कहानी है।