पण्डित सत्यजित तिवारी वेदांती काशी । नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम् ॥
अर्थ: उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत् भाव तत्त्व भी नहीं था, रजःस्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात् वे सब नहीं थे।
ऋग्वेद के दशम मंडल के नासदीय सूक्त के उपरोक्त मंत्र से इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विश्व के सबसे वृहद् निर्णय (८,८००पृष्ठ) का श्रीगणेश किया।
रामलला के भव्य मंदिर का शिलान्यास राष्ट्रिय दिनांक १४श्रावण१९४२शक (५अगस्त२०२०)दिन बुधवार को श्रद्धा-आविश्वास के साथ सम्पन्न हुआ। इसके साथ ही ५ शताब्दियों के विवाद का शमन हो गया।
यह लेख मुख्यतः न्यायालयीय वाद का संक्षेप में निरूपण करता है। इस विवाद में अनेकानेक प्राणों की आहुति हुई, देश व जनमानस में असाधारण आक्रान्तता, विषमता व क्लिश्टाक्लिष्ट चेतनाओं का समय-समय पर आधान हुआ परंतु अंततोगत्वा पटाक्षेप न्यायिक प्रणाली से ही सम्भव हुआ।
अनुक्रमणिका
1.प्रारम्भ
2.इलाहाबाद उच्च न्यायालय का वृहन्न्याय
3.सर्वोच्च न्याय
4. उपसंहार
प्रारम्भ:
१/२ पौष १८७१ शक (२२-२३ दिसम्बर १९४९ई.) की रात्रि को हिंदू पक्ष के अनुसार विवादित स्थल में रामलला प्रकट हुए और मुस्लिम पक्ष के अनुसार बाबा अभय रामदास व अन्य द्वारा गुप्त रीति से स्थापित किये गये। ८पौष १८७१शक (२९दिसंबर१९४९ई.) को तत्कालीन मजिस्ट्रेट द्वारा स्थल अटैच (कब्जा) किया गया। २६पौष १८७१शक (१६ जनवरी१९५०ई.) दिन गुरुवार को गोपालसिंह विशारद ने जन्मभूमि स्थल पर पूजा के अधिकार के लिए पहला वाद जहूर अहमद,उ.प्र. शासन व १२ अन्य के विरुद्ध दायर किया गया।
परंतु इस वाद में एक कमी थी। CPC सेक्शन 80 के अंतर्गत यदि शासन को पक्षकार बनाते हैं तो २ मास का नोटिस अनिवार्य होता है, जो यहाँ नहीं था। इस कमी को देखते हुए महंत रामचंद्र दास ने दूसरा वाद अग्रहायण १८७२शक (दिसम्बर 1950ई.) में ही दायर किया। तीसरा वाद निर्मोही अखाड़ा ने १४अग्रहायण १८७८(५ दिसम्बर १९५६ई.)दिन बुधवार को दाखिल किया।
हिंदुओं द्वारा इतने वाद करने के बाद मुस्लिम पक्ष जगा और शक १८८३(सन्१९६१ई.) में इस प्रकरण के चौथे वाद के रूप में याचिका दायर किया। दशकों के सन्नाटे के उपरांत शक१९०८(सन् १९८६ई.) में उपरोक्त चारो वादो को एक साथ टैग( संलग्न) कर मुक़दमेबाजी प्रारम्भ हुई।
इसी बीच शक १९०८(सन्१९८६ई.) में स्थल का ताला खुल गया और अब लड़ाई के दो प्रभेद हो गये:
- जो विधि में विश्वास करके न्यायपालिका में संघर्षरत रहे; और
- वो दल और व्यक्ति जो आंदोलन के मार्ग पर चले।
शक १९११(सन् १९८९ई.) में विश्वहिंदूपरिषद् (VHP) से सम्बंधित स्वर्गीय देवकी नंदन अग्रवाल, जो सेवानिवृत्त न्यायाधीश थे उन्होंने देखा कि रामलला तो कहीं समस्त प्रकरण में हैं ही नहीं अतः उन्होंने रामलला विराजमान, जन्मभूमि व स्वयं को रामलला का मित्र घोषित कर पक्षकार बनाया और पाँचवा वाद दाखिल किया। उसी वर्ष ये पाँचो वाद एक साथ टैग कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में स्थानांतरित हो गए।
बीच में बड़ी घटनाएँ हुई। शक १९१३ (सन्१९९१ई.) में पहली कारसेवा हुई । तत्कालीन मुख्यमंत्री ने घोषित किया कि परिंदा भी पर नहीं मार पाएगा, सो पुलिस ने आंदोलन कर्मियों पर गोली चला दिया। परिणाम यह हुआ कि सैंकड़ों कारसेवकों ने राम के लिए प्राणों की आहुति दे दी। अगले ही वर्ष१५ अग्रहायण १९१४ शक (६ दिसम्बर १९९२ई.)दिन रविवार को अपार संख्या में कारसेवकों ने विवादित ढाँचे को गिरा दिया। सनद रहे कि वहाँ विधिवत रामलला की पूजा-समर्चा हो रही थी और वस्तुतः ढाँचे के आकार के विपरीत वहाँ समस्त क्रियाकलाप मंदिर के अनुरूप ही था। प्रचारित हुआ कि मस्जिद तोड़ा दिया गया। देश का वातावरण विषाक्त हो गया, जगह-जगह दंगे होने लगे, जान-माल की भारी क्षति हुई व प्रदेश सरकार बर्खास्त हो गयी।
शक १९१५ (१९९३ई.)में भारत सरकार ने कानून बनाकर विवादित जमीन का अधिग्रहण कर लिया। इस अधिग्रहण के विरुद्ध मुस्लिम पक्ष सर्वोच्च न्यायालय पहुँच गया। साथ ही केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रपतिके माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय से विधिक विमर्शके (प्रेसीडेंसीयल रेफेरेंस) माध्यम से पूछा कि क्या वहाँ जन्मभूमि थी।
SC ने इस प्रश्न का उत्तर देने से मना कर दिया तथा तकनीकी बिंदुओ के आधार पर अधिग्रहण को अवैध घोषित कर दिया। SC ने मात्र 130 फीट x 90 फीट को ही विवादित माना और HC को इसके निस्तारण का निर्देश दिया।
माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय (HC) की लखनऊ खंडपीठ द्वारा शक १९३१ (२००९ई.)से ३न्यायाधीशों की पीठ ( श्री सुधीर अग्रवाल, श्री धर्मवीर शर्मा व रफत आलम जी ) नें सुनवाई प्रारम्भ की। इसी समय न्यायाधीश रफत जी का राजस्थान HC में स्थानांतरण हो गया और उनकी जगह न्यायाधीश सिग्बत उल्ला खान आए जो भूमि व टेनेन्सी मामलों के विशेषज्ञ थे। न्यायाधीश शर्माजी दिवानी (civil) व न्यायाधीश अग्रवाल जी संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ थे।
ऐसे सुविज्ञ न्यायाधीशों के समक्ष सुनवायी के दौरान निर्मोही अखाड़ा के वकील श्री रंजीत लाल जी हल्के पड़ने लगे। स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी किशोर कुणाल जी ने द्वारका के शंकराचार्य श्री स्वरूपानंद सरस्वती जी से सम्पर्क किया। शंकराचार्य जी ने अखिल भारतीय राम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति स्थापित कर उसे पक्षकार बनाकर श्री परमेश्वर नाथ मिश्र को वकील नियुक्त किया।
श्री मिश्र जी HC में हिंदू पक्षकारों के प्रमुख अधिवक्ता मान्य हुए। उन्होंने पक्ष रखते हुए पहले यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि वहाँ मस्जिद इस्लाम के अनुसार नहीं थी, जिसपर न्यायालय ने कहा कि आप पहले अपना मंदिर सिद्ध करें। प्रत्युत्तर में हिंदू पक्ष ने अथर्ववेद के आधार पर अयोध्या का वर्णन ‘अष्टचक्र नवद्वार…’ आदि श्रुतियो के माध्यम से कर वर्तमान अयोध्या को ही प्राचीन अयोध्या सिद्ध किया। तदनंतर स्कंदपुराण व रुद्रयामल (अयोध्या माहात्म्य) ग्रंथों में शब्द चित्र की सहायता से जन्मभूमि का सटीक स्थान निश्चित किया गया।
इन्हीं ग्रंथों में महाराज विक्रमादित्य द्वारा ८४ खम्भों से युक्त भव्य मंदिर का वर्णन भी प्राप्त है । ये कसौटी पत्थर वाले खम्भे हनुमान जी लंका से लाए थे। साथ ही यह भी सिद्ध किया गया कि जन्मस्थान अपने आप में पूर्ण है, चाहे वहाँ विग्रह हो अथवा न हो।
उपरोक्त स्रोत से यह भी ज्ञात हुआ कि विक्रमादित्य काल के उपरांत अयोध्या विलुप्तप्राय हो गयी थी जिसे ९वीं शताब्दी में राजा यशोवर्मन द्वारा पुनर्निर्मित किया गया। एक शिलालेख भी प्रस्तुत किया गया जिसके अनुसार १२वीं शताब्दी में गहरवार राजा गोविंदचंद्र के सामंत द्वारा पुनर्निर्माण कराया गया था। इस पुनर्निर्माण की आवश्यकता सालार गाजी द्वारा मंदिर ध्वंश के कारण हुई। वही सालार ग़ाज़ी जो राजा सुहेलदेव के हाथों युद्ध में मारा गया।
मुस्लिम पक्ष का तर्क था कि बाबर और अयोध्या के हिंदू राजा में युद्ध हुआ जिसमें मारे गए ७५ मुस्लिमों की कब्र बाबर द्वारा बनवाये गए इस मस्जिद में थीं। प्रतिपक्ष में हिंदुओं ने तर्क दिया कि बाबरनामा जो बाबर की सर्वमान्य जीवनी है, हुमायूँ की बेटी गुलबदन द्वारा रचित हुमायूँनामा आदि पुस्तकों में ऐसे किसी युद्ध या निर्माण का संकेत नहीं मिलता। वरन आइन ए अकबरी नामक पुस्तक में अयोध्या के रामकोट जन्मस्थान मेले का वर्णन तो है पर किसी मस्जिद की कोई चर्चा नहीं है।हिंदू पक्ष की ओर से साक्ष्य के तौर पर यूरोपियन यात्री फिंच , जो मुगल शासक जहांगीर के काल में अयोध्या गए थे, द्वारा अयोध्या में जन्मस्थान व स्थानीय पंडों द्वारा श्रद्धालुओं के विवरण लेखन का उल्लेख भी किया गया।
शक १६९२(१७७०ई.) में ऑस्ट्रीयन पादरी की पुस्तक में ३ गुम्बद वाले स्थान की परिक्रमा करते हुए हिंदुओं का वर्णन है। पादरी ने मध्य गुम्बद के नीचे हिंदुओं के श्रद्धा केंद्र के रूप में एक वेदी का भी उल्लेख किया है। ध्यान योग्य बात यह है कि उसने उस भवन को नवीन रचना माना है। इन्हीं पादरी महाशय की पुस्तक में प्रथम बार मस्जिद की संरचना का संकेत प्राप्त हुआ।
इसके पूर्व शक १५८२ (१६६०ई.) में मनूकी नामक एक इतालवी चिकित्सक भारत आया जिसकी चिकित्सक के रूप में कुछ ख़ास ख्याति न बन सकी अतः वो योद्धा के रूप में राजस्थान के राजा दारा की ओर से लड़ा और राजा दारा की हार के बाद औरंगजेब की सेना में सेनानी बना। वाह औरंगज़ेब की ओर से राजा मानसिंह के सेना नायक के रूप में शिवाजी के विरुद्ध अभियान में भी सम्मिलित था। उसने पुस्तक लिखी- हिस्टोरिया ओफ मुगल्स। उस पुस्तक में औरंगजेब के आदेश पर उज्जैन, मथुरा, काशी, हरिद्वार व अयोध्या के प्रमुखतम मंदिरों का ध्वंश बताया गया है। साथ ही यह भी लिखा कि अयोध्या में विध्वंस मंदिर वाले स्थान पर फिर से हिंदुओं ने कब्जा कर पूजा पाठ करने लगे है।
सुतरा अनेकानेक प्रमाणों से यह सिद्ध होता गया कि हिंदू पक्ष सदैव से ही उस स्थान पर काबिज रहा। शक १७५० (१८२८ई.) के ब्रिटिश गजट में भी रामकोट में मंदिर का उल्लेख है। शक १७८०(१८५८ई.) के गजट में पहली बार ‘बाबरी मस्जिद’ का उल्लेख मिलता है।
इसी गजट में आता है कि एक आमिर अली नामक मौलवी द्वारा तत्कालीन अवध के नवाब वाज़िद अली शाह से मंदिर पर चढ़ाई करने का आग्रह किया गया परंतु नवाब मौलवी की बातों में नहीं आया। नवाब के मना करने पर भी जब मौलवी ने मंदिर पर हमला किया। नवाब ने नाराज होकर अपनी सेना मुकाबले में लगा दी। उस युद्ध में नवाब की ओर से नायक औतराम के द्वारा मौलवी आमिर अली मारा गया।
एक और मौलवी ने फिर यही प्रयास फिर किया जिसमें हनुमान गढ़ी के वैरागियों ने लड़ाई लड़ी और ७५ मुस्लिम मारे गये। हिंदू पक्ष ने दलील दिया कि जिन ७५ कब्रों की बात मुस्लिम पक्षकार कर रहे हैं वो बाबर की सेना वाले नहीं वरन इस वैरागियों वाली लड़ाई के हैं।
इसके बाद अंग्रेजों ने विवादित स्थल को हिंदू-मुस्लिम- दो भागों में विभक्त कर दिया। इसी बीच निहंग सिंह आदि पंजाब के निहंगो ने इसे अपने ब्रम्ह (राम) का स्थान बताकर बलपूर्वक नियंत्रण में ले लिया। लाख उपाय के बाद भी उसे निकाला न जा सका। इस कब्जे की बात तात्कालिक दारोगा शीतल दूबे द्वारा लिखित FIR में भी आयी है अतः प्रमाण है।
शक १७८४ (१८६२ई.) के रेवेन्यू रिकार्डों में ‘मस्जिद ए जन्मस्थान’ आया है। HC ने इसको शक १९१४ (१९९२ई.) में फ़ोरेंसिक परीक्षण के लिये लखनऊ परीक्षणशाला भेजा जहां पता चला कि ‘मस्जिद’ शब्द की लिखावट शेष शब्दों से भिन्न है तथा इसकी स्याही भी बहुत बाद की है। यह विशेषज्ञ गवाही (एक्स्पर्ट विट्नेस) थी जिससे सिद्ध हुआ कि ‘मस्जिद ए जन्मस्थान’ में ‘मस्जिद’ शब्द बाद में जोड़ा गया है जिसे इंटेरपोलेशन आफ रिकार्ड (interpolation of record) अर्थात मूल दस्तावेज से छेड़छाड़ माना गया।
हिंदू पक्ष को और भी बल मिला कि शक १७९५ (१८७२ई.) में अयोध्या के मुस्लिमों ने प्रशासन से विवादित स्थल पर महंत द्वारा मेला करने के विरुद्ध कार्यवाही करने हेतु की प्रार्थनापत्र दिया था।शक १८०६ (१८८४ई.)में प्रशासन ने हिंदुओं से स्थान का किराया भी माँगा था जिसे स्थानीय अदालत ने अस्वीकार कर दिया था। इतना ही नहीं, इसी वर्ष अंग्रेजों ने सुरक्षा घेरा भी तोड़ कर एक दरवाज़ा निकलवा दिया जिसपर मुस्लिमों ने आपत्ति की। इस आपत्ति को शासन ने यह कह कर निरस्त कर दिया कि हिंदू भक्तों की भीड़ व अनुशासन के लिए दरवाज़ा आवश्यक है।अतः सिद्ध हुआ कि वो स्थान हिंदुओं का ही था और उसपर हिंदुओं का लगातार आधिपत्य रहा।
मुस्लिमों के वकील जिलानी जी के पास अब एक साक्ष्य बचा था शिलालेख जो 1856 के पूर्व स्थल पर उनका अधिकार सिद्ध कर सकता था। हिंदुओं का कहना था कि चूँकि पूर्वोक्त किसी भी साक्ष्य में इस शिलालेख का संकेत नहीं मिलता इसलिए यह फर्जी है।
शक १७७८ (१८८५ई.) में निर्मोही अखाड़े के एक मामले की सुनवाई के समय स्थानीय न्यायाधीश हरिकृष्ण ने स्थल के निरीक्षण पे मात्र द्वार के ऊपर रंग से अल्लाह लिखा पाया,शक १८०५ (१८८५ई.) में भी तत्कालीन जिला न्यायाधीश चमीएल (इसाई) ने भी यही पाया, कोई शिलालेख नहीं। पहली पार शिलालेख के विषय में फ्यूरर महोदय की पुस्तक में आया था जिसमें शिलालेख के बारे में लिखा गया कि उसमें मीर खान द्वारा बाबर के हाथों से, चीन और तुर्की के शासकों की उपस्थिति में, मस्जिद का निर्माण ९३० हिजरी (शक १४५०) में करने की बात कही गयी है। हेनरी बेवेरेज,जिसने बाबरनामा का अनुवाद किया था, उसके अनुसार ९३० हिजरी का मतलब शक १४५०।
हिंदू पक्ष ने इसपर कहा कि यह एकदम मनगढ़ंत बात है क्योंकि बाबर शक १४४५ (१५२३ई.) में आया ही नहीं था, और तारीखों में मुस्लिम पक्ष की तरफ से बार-बार परिवर्तन किया जा रहा है। साथ ही यह कि चीन और तुर्की के राजा आयें और किसी भी अन्य साक्ष्य में कोई संकेत न मिले, यह सम्भव नहीं। बाबरनामा में मीर बाँकी का कोई जिक्र नहीं है। जो कहें कि यह मीर ताशकंदी था तो यह शिलालेख में बताए गए मीर इस्फहानी से मेल नहीं खाता क्योंकि इस्फहान ईरान में है और ताशकंद उजबेकिस्तान में।
सबसे बड़ी बात तो यह की शक १८५६ (१९३४ई.) के दंगों में इस ढाँचे को हिंदुओं द्वारा पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया गया था। इसका प्रमाण है कि ब्रिटिश सरकार ने हिंदुओं पर इस तोड़-फोड़ के एवज में जुर्माना लगाकर तसव्वुर खान नाम ठेकेदार द्वारा इसे फिर से बनवाया था। यह विचित्र बात है कि इस विध्वंश के बाद भी शिलालेख बच गया। अत: उच्चन्यायालय ने निर्णय दिया कि शिलालेख साक्ष्य नहीं सिद्ध हो पाया।
हिंदू पक्ष बार्ड बाई लिमिटेशन या समय बाधता (barred by limitation) भी सिद्ध कर ले गया। मुस्लिम पक्ष ने कहा कि हमने १२ वर्ष के अंदर ही हिंदुओं के विरुद्ध शक १८८३ (१९६१ई) में दायर कर दिया था परंतु हिंदू पक्ष का कहना था कि १२ वर्ष की अवधि सीमा तो सामान्य कब्जे की स्थिति में ही मान्य है, उस स्थिति में नहीं जब सरकार द्वारा अटैच कर रिसीवर नियुक्त हो गया हो। इस स्थिति में यह अवधि मात्र ६ वर्ष की ही ठहरती है। HC ने जन्मस्थान को भी मान लिया।
हिंदू पक्ष का यह कहना कि चूँकि उस ढाँचे का मुँह काबा की ओर नहीं है और उसमें मीनारें आदि भी नहीं हैं अतः यह इस्लाम के अनुसार मस्जिद कभी थी ही नहीं, को विद्वान न्यायाधीश श्री सुधीर अग्रवाल ने यह कहकर खारिज कर दिया कि जब मुस्लिमों ने वहाँ नमाज-दुआ पढ़ी तो यह मानकर ही कि यहाँ पर यह नमाज अल्लाह को स्वीकार है। अतः यह मस्जिद मानने में बाधा नहीं है।
उसी प्रकार मुस्लिमों ने तर्क किया कि रात में अचानक भगवान की जो मूर्ति रखी गयी उसकी विधि विधान से प्राण प्रतिष्ठा नहीं हुई थी अतः वाह मान्य नहीं। इसपर हिंदुओं के अधिवक्ता श्री रविशंकर प्रसाद ने पूछा कि गंगाजी की, कैलाश पर्वत की, वट-पीपल वृक्षों की प्राण प्रतिष्ठा किसने किया है ? तथापि ये हिंदुओं को पूज्य है अतः प्राण प्रतिष्ठा अनिवार्य नहीं। और जो हो भी तो प्राण प्रतिष्ठा के लिए बहुत व्यापक कार्यक्रम व भंडारा आदि हो ऐसा आवश्यक नहीं, वरन यजुर्वेद का एक क्षण भर में पढ़ा जा सकने वाला मंत्र ही पर्याप्त है। न्यायालय ने यह तर्क स्वीकार किया।
यहाँ हुआ यह कि VHP द्वारा देवकी नंदन अग्रवाल के बाद के पैरवी करने वालों ने यह कहा गया था कि बाबर ने हमारे मंदिर को तोड़ा है अतः HC ने माना कि भले एक ही दिन सही, पर वहाँ मुस्लिमों ने नमाज अवश्य पढ़ा होगा और आस्था प्रकट किया होगा।
वस्तुस्थिति यह थी की यह कहीं से सिद्ध नहीं हो पाया कि वह कभी मस्जिद थी या बाबर ने कोई मस्जिद बनवायी थी । यह अवश्य सिद्ध हुआ कि वह जन्मस्थान है व हिंदुओं के ही सदैव नियंत्रण व प्रभाव में रहा। सनद रहे कि उस समय प्रदेश व केंद्र में शासन मंदिर के पक्ष में नहीं था। HC के निर्णय में विवादित स्थल के तीन हिस्से हुए- मध्य का रामलला को, दूसरा निर्मोही अखाड़े को और तीसरा हिस्सा मुस्लिमों को दिया गया।
तीनों ही पक्षकारों को यह निर्णय रास न आया अतः मामला सर्वोच्च न्यायालय (SC) पहुँचा। वहाँ पहले तो मध्यस्थता का प्रयास किया गया जो विफल हो गया। अंततोगत्वा १५ श्रावण१९४१शक (६अगस्त २०१९) से निरंतर सुनवाई 5 सदस्यीय संवैधानिक पीठ के समक्ष होने लगी।
वरिष्ठ अधिवक्ता पराशरन जी ने लिमिटेशन पर पक्ष रखा परंतु SC ने HC ने निर्णय को पलटते हुए हिंदू पक्ष की इस दलील को ख़ारिज कर दिया। पराशरन जी का रामलला, जन्मस्थान व विग्रह के संदर्भ में दिए तर्कों का अवश्य सकारात्मक संज्ञान लिया। उसके बाद वरिष्ठ अधिवक्ता श्री सुशील जैन की VHP की ओर से ३-४ दिन बहस चली। इसके बाद अधिवक्ता श्री वैद्यनाथन जी ने जिरह किया। यहाँ भी श्री परमेश्वर नाथ मिश्र जी अधिवक्ता के रूप में राम काज हेतु महती भूमिका निभा रहे थे।माननीय उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इसमें कोई विवाद नहीं है कि अयोध्या ही राम की जन्मभूमि है । इसमें भी कोई विवाद नहीं है कि विवादित स्थल पर पूर्व में मंदिर था क्योंकि यह पुरातत्व आदि विभाग व अन्यान्य साक्षों से यह सिद्ध है।
विवाद मुख्यतः दो बिंदुओं पर है:
- जन्मभूमि का निश्चित स्थल ; व
- क्या मस्जिद का निर्माण मंदिर ध्वंस कर के हुआ था?
सम्भव है कि काल के प्रभाव से मंदिर नष्ट व विलुप्त हो गया हो और कालांतर में समतल भूमि पर मस्जिद का निर्माण हुआ हो
एक महत्वपूर्ण प्रमाण यह था कि 20वीं सदी के प्रारम्भ में प्रिंस आफ़ वेल्स के रूप में ऐडवर्ड के भारत आने के क्रम में धनसंग्रह का प्रकल्प तत्कालीन शासन तंत्र द्वारा चला परंतु किसी कारणवश प्रिंस का दौरा निरस्त हो गया। तब तात्कालिक अयोध्या के कलेक्टर जिनका नाम भी एडवर्ड ही था, उन्होंने उसी धन से एक तीर्थ अन्वेशणी सभा बनायी जिसने स्कंदपुराण आदि के आधार पर अयोध्या में जगह -जगह कुल १५८ पत्थर लगवाये जिसमें १ नम्बर का खम्भा (पत्थर) जन्मस्थली पर लगा।
इन्हीं पर शोध कर लेखक हॉन्स बेकर ने पुस्तक लिखा जिसमें मानचित्र भी था। मानचित्र तो ठीक ही था परंतु एक संदेह उत्पन्न हो गया था। स्कंदपुराण के अनुसार सरयू में स्नान के पश्चात विघ्नेश के मंदिर जाना चाहिये और वहीं से ईशान कोण में जन्मभूमि है। परंतु इस हेंसबेक़र के मानचित्र में जो विघ्नेश मंदिर था वहाँ से जन्मभूमि नैरित्य कोण पर थी।
प्रभु राम का चमत्कार देखिये। जब अधिवक्ता के रूप में श्री मिश्र जी का इस वाद से कोई लेना देना नहीं था, तब से शक १९२७(२००५ई.) में वे स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद के साथ लख़नऊ से बनारस कार से लौटते समय भूल से ३० किलोमीटर फैजाबाद रोड पर बढ़ गये। उन्होंने सोचा कि चलो राम जी की कृपा हो गयी और अयोध्या जी ही हो लें। अयोध्या में जिस मठ में रुकना हुआ वहाँ एक लंगोटधारी ब्रह्मचारी जी नें उन्हें एडवर्ड के सभी १५८ खंभों का दर्शन कराया।
जब माननीय उच्चतम न्यायालय में यह स्थल सम्बन्धी प्रश्न उठा तो अधिवक्ता मिश्रजी की स्मृति काम आ गयी। उन्होंने कहा कि मुझे स्पष्ट याद है कि जो १०० नम्बर का खम्भा अयोध्या में ककरही बाज़ार में है वही असल में विघ्नेश्वर का मंदिर है और वहाँ से,जैसा स्कंदपुराण में आया है,जन्मभूमि ठीक ईशान कोण पर स्थित है। न्यायालय चाहे तो इसे सत्यापित करा ले। न्यायालय ने वैसा ही सत्यापन में पाया। साथ ही शक१९२७ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी की मौखिक गवाही में भी यह बात दर्ज थी।
न्यायालय ने तत्काल हॉन्स बेक़र की पुस्तक का मानचित्र ५बड़ी प्रतियों में माँगा। अधिवक्ता मिश्र जी ने१ दिन का समय लिया क्योंकि वो पुस्तक तो HC में जमा हो गई थी। रामजी की कृपा से बहुत वर्ष पूर्व स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने पुस्तक रु.१५०० में क्रय कर लिया था। रातोरात स्वामीजी ने रेल के माध्यम से वही पुस्तक बनारस से दिल्ली मिश्र जी को हस्तांतरित किया।यही इस मुक़दमे का कहें तो निर्णायक मोड़ था।
भारत के सर्वोच्च न्यायाधीश श्रीगोगोई व न्यायाधीश श्रीअशोकभूषणजी तो संभवतः स्कंदपुराण के शब्दचित्र, जो पूर्व में खिंचा गया था,से संतुष्ट प्रतीत हो रहे थे परंतु न्यायाधीश चन्द्रचूड़जी को अभी भी संदेह था जो इस सत्यापन के पश्चात समाप्त हो गया।
अब न्यायालय यह मान गया कि जन्मस्थली वही है।
एक घटना और घटी। HC के आदेश में न्यायाधीश सुधीर अग्रवालजी ने गीता के श्लोक को उद्धृत किया कि भगवान कह रहे हैं कि मेरी जो जैसे उपासना करता है उसे मैं वैसे ही मिल जाता हूँ:
यो यो यां यां तनुं भक्तःश्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।। गीता-७/२१
श्रीमिश्र जी ने SC में इसपर अपवाद प्रकट किया कि यह क्या बात हुई कि हिंदुओं के ग्रंथ को हिंदुओं के ही विरुद्ध प्रस्तुत किया जाय। मतलब हमारे मंदिर में नमाज़ पढ़ी जाय तो अल्लाह मिलेंगे। इस तर्क पर सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीश श्री चंद्रचूड़ ने कहा कि अधिवक्ता महोदय आप HC के न्यायाधीश श्रीअग्रवालजी का निर्णय फिर से पढ़ें। उसमें तो आपके पक्ष की ही बात है कि भले वहाँ नमाज ही क्यों न पढ़ी गयी हो परंतु उपासना तो आपके रामलला की ही हुई। श्री मिश्र जी ने इसको अनुग्रह के साथ स्वीकार किया।
एक समस्या और थी। VHP के अग्रवाल जी द्वारा दाखिल याचिका संख्या 5 में यह स्वीकार किया गया था कि मूर्ति १-२ पौष १८७१ शक (२२/२३ दिसम्बर १९४९ ई.)की रात को रखा गया। शक १७८०(१८५८ई.)के गजट में भी मस्जिद का उल्लेख है जहाँ हिंदू भी पूजा करते है। अतः प्रश्न यह था क्यों न मान लिया जाय कि वह स्थान शक १८७१(१९४९ई.) से पूर्व मस्जिद ही था। इस प्रश्न का उत्तर श्रीमिश्रजी ने बड़ी तैयारी के साथ दिया।
HC में ही करीब १५० पुस्तकें सेक्शन ५७के अनुसार साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत की गयी थी।शक१८५८(१९३६ई.) का एक न्यायालय का निर्णय भी प्रस्तुत किया गया जिसके अनुसार शासन के बदलने पर जनता के अधिकार तब तक नहीं परिवर्तित होते जब तक नया शासक उन्हें संशोधित या निरस्त न करे।
बाबर ने किसी हिंदू शासक को नहीं परास्त किया था वरन एक मुस्लिम, इब्राहिम लोधी को हरा कर शासन पर अपना नियंत्रण स्थापित किया था। इस्लाम के अनुसार यहाँ दार उल इस्लाम बाबर के पूर्व भी था और बाबर के भारत का बादशाह बनने के बाद भी था।
मुस्लिम कानून के अंतर्गत दार उल इस्लाम वो होता है जहाँ गैर मुस्लिम के समक्ष तीन विकल्प होते थे:
- इस्लाम कबूल करना
- जजिया कर देना
- मृत्यु
भारत में हिंदू जजिया देते ही थे। यह एक प्रकार का कर था जिसके अनुसार हिंदू सेना में भर्ती होने से बचे रहते थे। वैसे भी मुस्लिम शासक अपनी सेना में मुस्लिमों के अतिरिक्त अन्य से बचते थे। उनके (जजिया देने वालों के) तमाम नागरिक अधिकार सुरक्षित रहते थे।अतः बाबर के शासन स्थापित होने के उपरांत भी उसके पूर्व के सम्पत्ति, पूजा-पाठ आदि अन्यान्य अधिकार पूर्ववत ही रहे।
हदीस व अन्य इस्लामिक ग्रंथों के अनुसार भी मस्जिद बलात्, बिना भूमि क्रय-विनिमय के नहीं बन सकती। मदीने में जो पहली मस्जिद बनी वो भी भूस्वामी से क्रय/वक्फ की गयी भूमि पर ही बनी। अतः जिस स्थान पर मंदिर था वहाँ बलपूर्वक बनी मस्जिद वैध नहीं है।
साथ ही न्यायालय ने माना कि बाबर के पूर्व से ले कर मुगल काल, ईस्ट इंडिया कम्पनी व अंग्रेज़ी हुकूमत तक उस स्थान पर सदैव ही हिंदुओं द्वारा पूजा-पाठ अनवरत चलता रहा है। स्वतंत्र भारत में भी उस स्थान पर अटैच होने से पूर्व तक (शक१८७१)हिंदुओं के अधिकार को मान्यता प्राप्त ही थी।
दूसरा बिंदु हिंदू पक्ष द्वारा यह दिया गया कि दातव्य सम्पत्ति का उद्देश्य कभी भी समाप्त नहीं होता है। मूर्ति या मंदिर के नष्ट होने पर भी यदि भक्त वहाँ शीश नवाते हैं तो निश्चित ही वहाँ दैवी शक्ति मान्य है। अधिवक्ता श्रीमिश्रजी द्वारा कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सर आशुतोष मुखर्जी के तीन निर्णयों (शक १८३०,१८३३,१८४६) को उद्धृत किया गया कि मूर्ति के न रहने पर भी वहाँ पर सूक्ष्म शक्ति विद्यमान रहती है जो भविष्य में जब भी मूर्ति पुनर्स्थापित होती है तो उस मूर्ति में पुनः आ जाती है।
अतः उच्चतम न्यायालय में यह सिद्ध हो गया कि धर्मदाय सदैव रहता है,जन्मभूमि पर मूर्ति या मंदिर हो या न हो, वहाँ भक्त सदैव आराधना रत रहे हैं। अतः सर्वोच्च न्यायालय की ५ सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने सर्वसम्मति से निर्णय दिया कि इस दिवानी वाद में संविधान की धारा १४२के अंतर्गत प्रदत्त अधिकार का प्रयोग करते हुए जान्मभूमि पर हिंदुओं का आधिपत्य स्वीकार करती है। परंतु चूँकि अराजक तत्वों द्वारा शक१८७१में अवैधानिक चेष्टा करते हुए मूर्तियाँ स्थापित की गयी और उन्मादपूर्ण आंदोलन कर के शक १९१४ (१९९२ई.) में ढाँचे को ढहा दिया गया अतः सरकार को यह निर्देशित किया जाता है कि मुस्लिमों को सांत्वना स्वरूप ५एकड़ भूमि यथायोग्य स्थल पर प्रदान करे।
इस शताब्दियों से चले आ रहे विवाद को लेकर अनेक लड़ाइयाँ व आंदोलन चले पर मार्ग तो न्यायालय ने ही प्रशस्त किया।
विधायिका,राजनैतिक दल व राजनीतिज्ञों ने भी इसे अंततः न्याय मंदिर पर ही इसे छोड़ दिया था। सरकार की भूमिका की बात करें तो यह अवश्य कहा जा सकता है कि एक मजबूत सरकार पर न्यायालय को कानून-व्यवस्था को लेकर विश्वास था कि उनके निर्णय के फलस्वरूप देश में कोई अशांति अथवा जान-माल की क्षति नहीं होगी।अतएव न्यायाधीश स्वतंत्र व अभय होकर निर्णय दे सके।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय में २४ दिनों तक लगातार अधिवक्ता श्रीपरमेश्वरनाथ मिश्र बहस करते रहे। श्रीमिश्र इस वाद से द्वारका पीठ के शंकराचार्य श्रीस्वरूपानंद सरस्वतीजी के निर्देश पर जुड़े थे। वरिष्ठ अधिवक्ता श्रीमदनमोहन पांडेयजी ने रेवेन्यू मामलों पर प्रभावी तर्क रखा। उनके अतिरिक्त अधिवक्ताओं में श्री हरिशंकरजैन, श्रीरविशंकरप्रसाद व श्री के. एम. भट्ट ने भी १.५.से २ दिनों की बहस की। सर्वोच्च न्यायालय में ४ दिनों तक पराशरनजी ने मूर्ति व मूर्ति के अधिकारों पर वाद किया।
धन्य हैं ९३ वर्षीय पराशरनजी जिन्होंने न्यायालय के बैठ कर बहस करने के आग्रह पर कहा कि ‘मिलोर्ड! मैंने मनुष्यों के लिए जीवन भर खड़े होकर बहस किया तो अपने आराध्य राम के लिए बैठ कैसे जाऊँ!’
वरिष्ठ अधिवक्ता श्रीवैद्यनाथन ने पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट पर जोरदार ढंग से पक्ष रखा।श्रीमिश्र जी ने यहाँ भी लगातार बहस कर जन्मभूमि व मूर्ति के सदैव विद्यमानता व शासन परिवर्तन से स्वतःविधि में परिवर्तन नही होता यह सिद्ध कर निर्णायक भूमिका का निर्वाहन किया।
पक्षकारों में श्री त्रिलोकि नाथ पांडेय,चम्पतराय,धर्मादास,राजा रामचंद्राचार्यजी( निर्मोही अखाड़ा), द्वारका शारदा शंकाराचार्य श्रीस्वरूपानंदजी के शिष्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंदजी, किशोरकुणालजी आदि ने अपने तन-मन-धन को इस बाद में न्योछावर किया।
लंका विजय के पश्चात नारायणावतार भगवान् राम जब अयोध्या वापस आये तो ब्रह्मर्षि वशिष्ठजी के द्वारा उनका पट्टाभिषेक किया गया। उस राज्याभिषेक समारोह में भूतभावन भगवान आशुतोष जो कि भैरवाधिपति भी हैं उन्होंने राजा राम कि स्तुति भैरवी छंद में किया:
जय राम रमारमनं समनं।भव ताप भयाकुल पाहि जनं।।
अवधेस सुरेस रमेस बिभो।सरनागत मागत पाहि प्रभो।।
हे राम! हे रमारमण (लक्ष्मीकांत)! हे जन्ममरणके संताप का नाश करने वाले! आपकी जय हो, आवागमन के भय से व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिए।
हे अवधपति! हे देवताओं के स्वामी! हेरमापति! हे विभो!
मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए॥
हर हर महादेव