विपुल रेगे। मीडिया में ऐसा कहा जा रहा है कि सलमान खान की ‘अंतिम -द फाइनल ट्रुथ’ ने जॉन अब्राहम की फिल्म ‘सत्यमेव जयते -2 ‘ की लुटिया डुबो दी। हालाँकि सच ये है कि इस शुक्रवार दो बुरी फिल्मों का आपसी मुकाबला था। इनमे से कम बुरी ‘अंतिम’ को सप्ताह के पहले दिन तक कुछ दर्शक नसीब हो गए लेकिन ‘सत्यमेव जयते’ तो पहले दिन ही बॉक्स ऑफिस पर क्रेश हो गई।
‘अंतिम -द फाइनल ट्रुथ’ और ‘सत्यमेव जयते -2 में एक बात तो कॉमन है कि दोनों में ही अस्सी के दशक के बॉलीवुड की झलक मिलती है। पुराने फार्मूले पर बनी इन फिल्मों को टिकट खिड़की पर लंबे समय तक ऑक्सीजन मिल सकेगी, ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा है। ऐसा ही फार्मूला विगत सप्ताह प्रदर्शित हुई अक्षय कुमार की ‘सूर्यवंशी’ में भी दिखाई दिया था। सूर्यवंशी अब तक अपनी लागत भी वसूल नहीं कर सकी है।
सत्यमेव जयते : 2 की कहानी इसके पहले भाग से मिलती-जुलती है। एक राज्य का गृहमंत्री सत्या आजाद राज्य को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलवाना चाहते हैं। एंटी करप्शन बिल लाना चाहते हैं। लेकिन सदन में उनके साथी दल के सदस्य उनका साथ नहीं देते हैं। यहाँ से फिल्म की कहानी खुलती है। पता चलता है कि सत्या और उसके जुड़वा भाई जय आज़ाद के पिता की हत्या कर दी गई थी।
अब सत्या और जय का उद्देश्य केवल भ्रष्टाचारियों को मारना ही नहीं है बल्कि अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध भी लेना है। सत्यमेव जयते के होनहार निर्देशक मिलाप जवेरी का मैं शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने मुझे उस बचपन की याद दिलाई, जब इसी तरह की फ़िल्में प्रदर्शित होती थी और खूब चलती थी। एक अत्याचारी नेता, एक ईमानदार पुलिस वाला और एक सिस्टम से कालिख को साफ़ करता रॉबिनहुड। इसमें पीड़ित जनता, ऑक्सीजन की कमी से मरते बच्चे और राजनीतिक शोषण भी डाल दीजिये, फिर आपकी अस्सी के दशक की मसाला फिल्म तैयार है।
सच कहूं तो ये फिल्म समीक्षा करने लायक भी नहीं है। सदन में मंत्री की पत्नी भ्र्ष्टाचार विरोधी बिल पर समर्थन देने से इंकार कर देती है लेकिन घर आकर एक पत्नी के रुप में पति के प्रयास की सराहना करती है। ऐसे तो कैरेक्टर मिलाप साहब ने फिल्म में डाले हुए हैं, जो परस्पर विरोधाभासी है। ये फिल्म दर्शकों पर टार्चर से कम नहीं है। ऐसी फिल्मे और उन्हें पसंद करने वाले दर्शकों की प्रासंगिकता अब समाप्त हो चली है।
जो भारत इस फिल्म में दिखाया गया है, वह भी अब वैसा नहीं रहा, जैसा निर्देशक महोदय कल्पना करते हैं। कोई जवेरी साहब को झकझोर कर जगाए और बताए कि ये नया भारत है और फिल्मों के दर्शक भी इक्कीसवीं सदी में एक्जिस्ट करते हैं। जॉन अब्राहम अपना स्टारडम ऐसे निर्देशकों पर बरबाद करने पर क्यों तुले हैं। इस फिल्म के अंत में विलेन दोनों भाइयों की माँ को उठा ले जाता है और बांस की बल्लियों पर बांध देता है। बस इसी बिंदु पर आकर मेरी सहन शक्ति भी जवाब दे जाती है। अंत में यही चेतावनी है कि दर्शकों इस फिल्म से कन्नी काट लेने में ही समझदारी है।