कुछ साल पहले मुंबई तट पर एक अनजान जहाज आकर ठहर गया था। उस शिप में कोई व्यक्ति मौजूद नहीं था। निर्देशक ने उसी घटना को कहानी का विषय बनाया है। शिपिंग ऑफिसर पृथ्वी एक हादसे में अपनी पत्नी और बेटी को खो चुका है। हादसे के कई साल बाद भी वे दोनों उसे नज़र आते हैं। पृथ्वी को शिप जांचने का काम दिया जाता है। कुछ दिन में पृथ्वी को मालूम होता है कि जहाज के सभी सदस्यों ने समुद्र में कूदकर आत्महत्या कर ली थी। भुतहा घटनाएं बढ़ती जाती हैं और पता चलता है कि शिप पर एक बेकसूर आदमी की हत्या कर दी गई थी और उसकी आत्मा सबसे बदला ले रही है।
कहानी कागज पर लिखना और उसे स्मूद स्क्रीनप्ले के रूप में परदे पर उतरना एक अलग बात है। भूत फिल्म की ये कहानी कागज पर खूबसूरत दिखाई देती है लेकिन परदे पर उसका सवा सत्यानाश कर दिया गया है। हॉरर फिल्मों में सिचुएशन की बड़ी अहमियत होती है लेकिन वह इस फिल्म में दिखाई ही नहीं देती। कहानी का फैलाव करने में निर्देशक ने बहुत समय लगाया और जब तक फिल्म ट्रेक पर आती है, क्लाइमैक्स आ जाता है। निर्देशक का ट्रीटमेंट इतना लचर रहा कि इंटरवल तक कहानी सेट ही नहीं हो पाती। जब आप प्रस्तावना में इतना समय लगा देते हैं तो निश्चित ही फिल्म का संकट में आएगी।
भूतिया फिल्मों में एक अदद तांत्रिक अवश्य होता है जो आखिर में मसीहा की तरह आकर भूत का सफाया कर देता है। खासतौर से हिन्दी फिल्मों के दर्शकों को इस किरदार की प्रतीक्षा रहती है। इस फिल्म में एक पात्र है काशीनाथ मुखर्जी। ये किरदार परदे पर आशुतोष राणा ने निभाया है। यदि इस किरदार पर मेहनत की होती और ये रोल लंबा होता तो फिल्म बॉक्स ऑफिस पर अच्छा कर सकती थी। काशीनाथ के पात्र को उभारा ही नहीं गया। ये तथाकथित तांत्रिक आश्रम में नहीं बल्कि घर में रहता है और तिलक तक नहीं लगाता। आखिर में जब वह मन्त्र पढ़ता है, तब मालूम होता है कि ये तांत्रिक है। इस तरह का लचर कैरेक्टराइजेशन होगा तो फिल्म बुरी ओपनिंग लेगी ही।
अँधेरा हॉरर फिल्मों में एक अतिरिक्त किरदार की तरह होता है। अँधेरा न हो तो भूतिया फ़िल्में बनाई ही नहीं जा सकती। धर्मा प्रोडक्शन की इस फिल्म में अँधेरा दर्शकों को डराता नहीं बल्कि खिजाता है। जब आप एक अँधेरे से भरे शिप में सीन शूट करते हैं तो दर्शक के लिए कम से कम इतना उजाला तो हो कि वह परदे पर घट रही गतिविधि देख सके। अँधेरे दृश्यों की अधिकता निर्माता का नुकसान कर गई है। और जब आपके सारे पांसे गलत पड़ते हैं तो दर्शक फिल्म ख़त्म होने से पहले ही उठकर बाहर चला जाता है।
विकी कौशल का सराहनीय अभिनय फिल्म का एकमात्र हासिल है लेकिन केवल विकी के अभिनय के लिए ये हादसा नहीं झेला जा सकता। विकी और आशुतोष राणा के अभिनय के कारण ही दर्शक थियेटर में कुछ देर तक बैठा रहता है। फिल्म शुरू होने से पूर्व दर्शक भयभीत हो रहे थे और कह रहे थे कि इतनी डरावनी फिल्म झेल सकेंगे या नहीं। जाहिर है कि वे टीवी पर खूबसूरत प्रोमो देखकर धोखे में आ गए थे। उन कई दर्शकों को मैंने इंटरवल से पहले ही बाहर निकलते देखा। किसी फिल्म की इससे बड़ी बेइज्जती नहीं हो सकती कि दर्शक अपना पैसा खर्च करने के बावजूद फिल्म बीच में से छोड़ दे। करण जौहर हॉरर जॉनर आपके बस का नहीं है।