श्वेता पुरोहित। लंका में लक्ष्मण और मेघनाद के बीच भयंकर युद्ध हो रहा था। जब मेघनाद ने अपने प्राणों पर संकट देखा तो उसने ब्रह्माजी की दी हुई शक्ति का लक्ष्मण पर प्रहार किया। उससे घायल होकर लक्ष्मणजी मूच्छित हो गये। लक्ष्मणजी की चिकित्सा के लिये हनुमान्जी लंका से सुषेण वैद्य को सोते हुए ही घर सहित उठा लाये।
सुषेण ने कहा, ‘हिमालय के द्रोणाचल शिखर पर संजीवनी बूटी नामक औषधि है। उसे सुबह होनेके पहले ही ले आना चाहिये। तभी इनके प्राण बच सकते हैं।’ वैद्य सुषेण की बातें सुनकर सब ने आशा भरी आँखों से हनुमान्जी की ओर देखा। वे तुरन्त ही द्रोणाचल जाने के लिये तैयार हो गये।
रावण ने सोचा कि किसी प्रकार हनुमान्की यात्रा में विघ्न डाला जाय, जिससे वे औषधि लेकर समय से न लौट सकें। वह कालनेमि राक्षस के पास गया तथा उससे कहा, ‘तुम ऐसी माया रचो कि लक्ष्मणके प्राण बचानेके लिये औषधि लेकर हनुमान् समयसे लौट न सकें।’ रावण की बातें सुनकर कालनेमि ने कहा, ‘नाथ ! राम के दूत हनुमान्को मायासे मोहित कर पाने में कोई भी समर्थ नहीं है। मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा तो मुझे निश्चित रूपसे मृत्यु के मुँह में जाना होगा।’ कालनेमि की बातें सुनकर रावण बहुत ही क्रोधित हो उठा। उसने कहा ‘कालनेमि ! यदि तुम मेरी बात नहीं मानोगे तो तुम्हें मेरे ही हाथसे मरना होगा।’
कालनेमि ने सोचा कि जब मरना ही है तो मैं इस दुष्ट पापी के बजाय रामदूत हनुमान्के हाथों ही क्यों न मारा जाऊँ ? यह सोचकर उसने उनके मार्ग में एक बहुत ही सुन्दर आश्रम का निर्माण किया। स्वयं मुनि का वेश बनाकर उस आश्रम में बैठ गया। हनुमान्जी जब उस आश्रम के पास पहुँचे तब उन्हें बड़े जोरोंकी प्यास लगी। वे शीघ्र ही कपटी मुनि कालनेमि के आश्रम में जा पहुँचे। उसको प्रणाम करके कहा, ‘मुनिवर ! मुझे बड़े जोरकी प्यास लगी है, यहाँ जल कहाँ मिल सकेगा ?’
कपटी कालनेमि ने कहा, ‘रावण और राम में महान् युद्ध हो रहा है। राम जी जीतें गे इसमें सन्देह नहीं है। हे भाई ! मैं यहाँ रहता हुआ ही सब देख रहा हूँ। मुझे ज्ञानदृष्टि का बहुत बड़ा बल है। मेरे इस कमण्डलुमें शीतल जल भरा हुआ है। तुम इसे पीकर प्यास बुझा लो।’ हनुमान्जीने कहा, ‘थोड़े जलसे मेरी प्यास नहीं बुझेगी। आप मुझे कोई जलाशय बता दीजिये।’ कालनेमिने उन्हें एक सुन्दर जलाशय दिखाते हुए कहा, ‘तुम वहाँ जाकर अपनी प्यास बुझा लो और स्नान भी कर लो। इसके बाद मैं तुम्हें दीक्षा दूँगा।’
उसकी बातें सुनकर हनुमान्जी शीघ्र ही उस जलाशय के पास पहुँच गये। स्नान करनेके लिये ज्यों ही वे उस जलाशयके भीतर गये, त्यों ही एक मकरीने उनका पैर पकड़ लिया। हनुमान्जी ने तुरन्त ही उसका मुँह फाड़कर उसे मार डाला। हनुमान्जी द्वारा मारे जाते ही वह मकरी दिव्य अप्सराका वेश धारण करके विमान में बैठकर आकाश में पहुँच गयी। उसने हनुमान्जी से कहा, ‘पवनपुत्र हनुमान् ! एक मुनि के शाप के कारण मुझे मकरी बनना पड़ा था। हे रामदूत ! तुम्हारे दर्शनसे आज मैं पवित्र हो गयी। मुनिका शाप मिट गया। आश्रम में बैठा हुआ यह मुनि कपटी घोर निशाचर है।’
उस अप्सरा की बात सुनकर महाबली हनुमान्जी तुरन्त ही उस कपटी मुनि कालनेमि के पास जा पहुँचे और कहा, ‘मुनिवर ! आप पहले मुझसे गुरुदक्षिणा ले लीजिये। मन्त्र आप मुझे बाद में दीजियेगा।’ यह कहकर उसको अपनी पूँछ में लपेट लिया और पटककर मार डाला। मरते समय कालनेमि ने अपना असली राक्षस का रूप प्रकट कर दिया। मुख से राम-राम कहा। इस प्रकार राम-नाम लेने से उसका भी उद्धार हो गया।
रामदूत पवनपुत्र हनुमान की जय
श्री सिया राम की जय