श्वेता पुरोहित। बदरीनाथ धाम के समीप माणा गाँव में स्थित व्यास गुफा में महर्षि वेदव्यास वेदों का विभाजन, पुराणों का प्रणयन और पंचम वेद के नाम से विख्यात महाभारत की रचना करने के पश्चात् उदास बैठे थे। तभी वहाँ श्री नारद जी पहुँचे और उन्होंने उनसे उदासी का कारण पूछा वेदव्यास जी ने कहा कि इतने ग्रन्थों का निर्माण करने के बाद भी मुझे शान्ति नहीं मिल रही है।
नारद जी ने कहा- ‘महर्षे ! यहाँ आप से थोड़ी भूल हुई, आपने पुराणों में ज्ञानयोग समझाया, कर्मयोग समझाया। कहीं-कहीं ज्ञान को बहुत महत्त्व दिया है, परंतु ज्ञान और कर्म दोनों श्रीकृष्ण-प्रेमसे सफल होते हैं। आपने प्रेम में पागल होकर विस्तार पूर्वक श्रीकृष्ण की लीला-कथा नहीं कहीं, इसलिये आपका मन अशान्त है।’ व्यासजी ने मार्गदर्शन करने का अनुरोध किया। तब नारद जी ने बताया-
क्षीरसागर में शेषनाग की शय्या पर लेटे हुए भगवान् विष्णु के नाभिकमल से उत्पन्न ब्रह्माजी को विष्णुजी ने सृष्टि करने का आदेश दिया तथा अपने ऐश्वर्य एवं विस्तार के बारे में बताया-
१. सृष्टि के पूर्व, मध्य तथा अन्त में मैं ही रहता हूँ।
२. सृष्टि के बाद निर्मित सभी वस्तुएँ केवल मेरी माया होंगी।
३. सृष्टि में निर्मित सभी वस्तुओं में मैं उपस्थित रहूँगा, पर दिखायी नहीं दूँगा।
४. उपर्युक्त बातों के सच्चे विश्लेषण से ही शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति होगी।
यह प्रकरण तथा सभी बातें मेरे पिता श्रीब्रह्माजी ने स्वयं बतायीं। इसलिये इन्हें ध्यान में रखकर सरल भाषा में ईश्वरके ऐश्वर्य तथा विस्तारके बारेमें आप एक और पुराणका निर्माण करें, जिससे सभी लोग लाभान्वित हों।
इसी के पश्चात् व्यासजी ने श्रीमद्भागवत महापुराण की रचना प्रारम्भ की और दूसरे स्कन्ध के नौवें अध्याय में इस प्रकरण का उल्लेख किया, इन्हीं चार श्लोकों को चतुःश्लोकी भागवत कहा जाता है।
इन चार श्लोकों का ही विस्तार पूरा पुराण है, जिसे बहुत ही रोचक ढंग से व्यासजी ने वर्णन किया है।
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत्परम् ।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥
ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।
तद् विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः ॥
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ॥
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा ॥
(श्रीमद्भा० २।९।३२-३५)
इसे भागवत का अमृत तथा भागवतकी आत्मा भी कहा जाता है।
पहले श्लोक की व्याख्या –
सृष्टि के पूर्व केवल मैं था। सारे सूक्ष्म तथा स्थूल तथा इनका कारण अज्ञान भी मैं ही हूँ। जहाँ सृष्टि नहीं है, वहाँ भी मैं हूँ। सृष्टिके रूपमें जो कुछ प्रतीत होता है, वह भी मैं ही हूँ। सृष्टिके बाद जो बचा रहेगा, वह भी मैं ही हूँ।
इन विचारों को जनमानस में स्थापित करने के लिये अनेक कथाएँ भागवत पुराण में व्यासजी ने लिखी हैं। कुछ उद्धरण तथा उदाहरण निम्न हैं-
१. भगवान्के दस अवतारों की कथाएँ,
२. द्रौपदी के चीर हरण की कथा,
३. गज-ग्राह की कथा,
४. रासलीला की कथा,
५. नृसिंह अवतारकी कथा इत्यादि।
इस प्रकार पूरा पुराण कथाओं से भरा है, जो सर्वत्र भगवान्की उपस्थिति को उजागर करती हैं।
द्वितीय श्लोक की व्याख्या –
सृष्टि में उपस्थित सभी वस्तुएँ वास्तविक होते हुए भी उसी प्रकार मिथ्या हैं, जैसे दो चन्द्रमाओंकी उपस्थिति। ये सारी वस्तुएँ मेरी माया हैं, वास्तविक नहीं।
१. जैसे अन्धकार तथा प्रकाश दोनों मेरी माया है, अन्धकार में प्रकाश विलुप्त तथा प्रकाश में अन्धकार विलुप्त हो जाता है,
२. सभी सांसारिक सम्बन्ध माता, पिता, पुत्र, पुत्री, पत्नी, मित्र तथा ब्रह्माण्ड सब मेरी माया है,
३. अशोक-वाटिका में सीता मेरी माया है,
४. श्रीकृष्ण की बाल एवं सभी लीलाएँ माया हैं, ५. सूर्य, चन्द्रमा, तारे, सूर्योदय तथा सूर्यास्त सब मेरी माया है।
पूरे पुराण में भगवान्की माया की कथाएँ हैं।
तृतीय श्लोक की व्याख्या –
सृष्टि की सारी वस्तुओं में मैं आत्मा के रूप में उपस्थित हूँ, पर मैं दिखता नहीं हूँ; जैसे दूध में मक्खन के रूपमें उपस्थित हूँ तथा आत्मदृष्टि से उपस्थित नहीं भी हूँ।
१. द्रौपदी के चीर में उपस्थिति,
२. रासलीला में हर गोपी के साथ उपस्थिति,
३. खम्भे से नृसिंह भगवान्का प्राकट्य,
४. बलि की पुत्री रत्नमाला का पूतना के रूप में पुनर्जन्म,
५. धुन्धकारी का उद्धार।
इस प्रकार की अनेक रोचक कथाएँ विचारों को प्रतिष्ठित करने के लिये पुराण में भरी हैं।
चतुर्थ श्लोक की व्याख्या –
यह ब्रह्म है, यह ब्रह्म नहीं है, इसका विश्लेषण एवं संश्लेषण उपर्युक्त तीन श्लोकों को ध्यान में रखकर करनेवाला ही सच्चा ज्ञानी है।
१. कंस वध एवं वसुदेव-देवकी की बन्धन-मुक्ति,
२. गजकी मुक्ति एवं ग्राहका उद्धार,
३. पूतना की मुक्ति एवं पूतना को मातृत्व का प्यार,
४. बलि का उद्धार एवं उसकी बेटी की इच्छापूर्ति,
५. रासलीला में संयोग एवं वियोग।
इस प्रकार विभिन्न तत्त्वों का अर्थ गहन विचार, संश्लेषण एवं विश्लेषण करके ही असली ज्ञान की प्राप्ति तथा अज्ञान का विनाश सम्भव है।
उपसंहार
१. इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यासजी ने सुन्दर कथाओं के द्वारा अज्ञान का नाश तथा ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न किया,
२. परीक्षित के मन से मृत्यु का भय समाप्त किया,
३. ईश्वर की नाम-महिमा का प्रदर्शन, नारायण नामसे उद्धार की ओर इशारा किया,
४. सृष्टि के प्रारम्भ की कथा तथा पुण्य और पापका परिणाम बताया,
५. स्वर्ग एवं नरक का वर्णन करके परोपकार की ओर ध्यान दिलाया।
निःसन्देह चतुःश्लोकी भागवत श्रीमद्भागवत- महापुराण की आत्मा तथा हृदय है।
- डॉ० श्रीयुत श्रीभागवतशरणजी मिश्रा