श्वेता पुरोहित। महर्षि उद्दालक का कहोड नाम से विख्यात एक शिष्य था जो बड़े संयम- नियम से रहकर आचार्य की सेवा किया करता था। उसने गुरु की आज्ञा के अंदर रहकर दीर्घकाल तक अध्ययन किया। ‘कहोड’ एक विनीत शिष्य की भाँति उद्दालक मुनि की परिचर्या (सेवा) में संलग्न रहते थे। गुरु ने शिष्य की उस सेवा के महत्त्व को समझकर शीघ्र ही उन्हें सम्पूर्ण वेद-शास्त्रों का ज्ञान करा दिया और अपनी पुत्री सुजाता को भी उन्हें पत्नीरूप से समर्पित कर दिया।
कुछ काल के बाद सुजाता गर्भवती हुई, उसका वह गर्भ अग्नि के समान तेजस्वी था। एक दिन स्वाध्याय में लगे हुए अपने पिता कहोड मुनि से उस गर्भस्थ बालक ने कहा, ‘पिताजी ! आप रातभर वेदपाठ करते हैं तो भी आपका वह अध्ययन अच्छी प्रकारसे शुद्ध उच्चारणपूर्वक नहीं हो पाता’।
शिष्यों के बीच में बैठे हुए महर्षि कहोड इस प्रकार उलाहना सुनकर अपमान का अनुभव करते हुए कुपित हो उठे और उस गर्भस्थ बालक को शाप देते हुए बोले, ‘अरे! तू अभी पेट में रहकर ऐसी टेढ़ी बातें बोलता है, अतः तू आठों अंगों से टेढ़ा हो जायगा’।
उस शाप के अनुसार वे महर्षि आठों अंगों से टेढ़े होकर पैदा हुए। इसलिये अष्टावक्र नाम से उनकी प्रसिद्धि हुई। महर्षि उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु हो गये हैं, जो इस भूतलपर मन्त्र-शास्त्र में अत्यन्त निपुण कहे जाते थे, देखो यह पवित्र आश्रम उन्हींका है। जो सदा फल देनेवाले वृक्षोंसे हरा-भरा दिखायी देता है।
श्वेतकेतु अष्टावक्र के मामा थे, परंतु अवस्था में उन्हीं के बराबर थे। जब पेट में गर्भ बढ़ रहा था, उस समय सुजाता ने उससे पीड़ित होकर एकान्त में अपने निर्धन पति से धन की इच्छा रखकर कहा – ‘महर्षे! यह मेरे गर्भ का दसवाँ महीना चल रहा है। मैं धनहीन नारी खर्च की कैसे व्यवस्था करूँगी। आपके पास थोड़ा-सा भी धन नहीं है जिससे मैं प्रसवकाल के इस संकट से पार हो सकूँ’।
पत्नी के ऐसा कहने पर कहोड मुनि धन के लिये राजा जनक के दरबार में गये। उस समय शास्त्रार्थी पण्डित बन्दी ने उन ब्रह्मर्षि को विवाद में हराकर जल में डुबो दिया।
जब उद्दालक को यह समाचार मिला कि ‘कहोड मुनि शास्त्रार्थ में पराजित होने पर सूत (बन्दी)-के द्वारा जल में डुबो दिये गये।’ तब उन्होंने सुजाता से सब कुछ बता दिया और कहा, ‘बेटी! अपने बच्चे से इस वृत्तान्त को सदा ही गुप्त रखना’।
सुजाता ने भी अपने पुत्र से उस गोपनीय समाचार को गुप्त ही रखा। इसी से जन्म लेने के बाद भी उस ब्राह्मण- बालक को इसके विषय में कुछ भी पता न लगा। अष्टावक्र अपने नाना उद्दालक को ही पिता के समान मानते थे और श्वेतकेतु को अपने भाई के समान समझते थे।
तदनन्तर एक दिन, जब अष्टावक्र की आयु बारह वर्षकी थी और वे पितृतुल्य उद्दालक मुनि की गोद में बैठे हुए थे, उसी समय श्वेतकेतु वहाँ आये और रोते हुए अष्टावक्र का हाथ पकड़कर उन्हें दूर खींच ले गये। इस प्रकार अष्टावक्र को दूर हटाकर श्वेतकेतु ने कहा- ‘यह तेरे पिता की गोदी नहीं है’।
श्वेतकेतु की उस कटूक्ति ने उस समय अष्टावक्र के हृदय में गहरी चोट पहुँचायी। इससे उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने घर में माता के पास जाकर पूछा- ‘माँ! मेरे पिताजी कहाँ हैं ?’
बालक के इस प्रश्न से सुजाता के मन में बड़ी व्यथा हुई, उसने शाप के भय से घबराकर सब बात बता दी।
यह है ऋषि अष्टावक्र के जन्म की कथा