श्वेता पुरोहित। श्रीकृष्ण द्वारा हंस का वध और डिम्भक की आत्महत्या
वैशम्पायनजी कहते हैं – उस महाभयंकर अस्त्र को देखकर राजा हंस भय के मारे निश्चेष्ट-सा प्रतीत होने लगा। वह उस रथ से उछल कर यमुनाजी की ओर भागा, जहाँ पूर्वकाल में हृषीकेश भगवान् श्रीकृष्ण ने कालियनाग का मर्दन किया था। वह महान् ह्रद बड़ा भयंकर और पाताल पर्यन्त गहरा था। उसका विस्तार भी उतना ही था। वह काली अञ्जनराशि (अथवा कोयले) – के समान महानील (या काला) प्रतीत होता था। उसी महाघोर कालियह्नद में हंस कूद पड़ा। उसके कूदने पर वहाँ बड़ा भारी धमाके का-सा शब्द हुआ, मानो इन्द्र के द्वारा समुद्र में गिराये जाते हुए पर्वतों का कोलाहल
प्रकट हुआ हो। तब जगदीश्वर देवाधिदेव श्रीकृष्ण भी सम्पूर्ण जगत्को विस्मय में डालते हुए-से रथ से उछलकर उस कुण्डमें हंस के ऊपर कूद पड़े। उस समय महाबाहु केशव ने उसपर दोनों पैरों से प्रहार किया।
श्रीकृष्ण के चरणों का प्रहार पाकर राजा हंस मर गया — ऐसा कुछ लोग कहते हैं। दूसरों का कहना है कि वह पाताल में धँस गया और वहाँ सर्प उसे खा गये। वह अबतक वहाँसे लौटा नहीं देखा गया—ऐसा उसके विषय में हमने सुना है। तदनन्तर जगदीश्वर श्रीकृष्ण पूर्ववत् रथपर आ गये।
हंस के मारे जाने पर ही धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया था। यदि हंस जीवित होता तो कौन उस यज्ञ के सामने मस्तक झुकाता। वह भगवान् रुद्र से वर पाकर सदा के लिये सम्पूर्ण अस्त्रों का ज्ञाता हो गया था। महाराज ! क्षणभर में यह समाचार भूमण्डल में फैल गया। ‘शत्रुओं का मान-मर्दन करनेवाले श्रीकृष्ण ने हंस को मार डाला, हंस को मार डाला’- यह गन्धर्वराजगण देवलोक में दिन-रात गान करने लगे। ‘सम्पूर्ण जगत्के स्वामी प्रभावशाली विष्णुस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण ने यमुना के भयंकर ह्रदमें हंस को मार डाला।’ इस प्रकार उनके यशका सर्वत्र गान होने लगा।
अपने पराक्रमशाली भाई अत्यन्त उग्र हंस को उस महासमर में मारा गया सुनकर बलवान् डिम्भक जूझते हुए बलभद्र को वहीं छोड़कर यमुनाजी के तटपर गया। उस समय हलधर बलभद्र ने बड़े वेग से उसका पीछा किया। हंस जहाँ यमुनाजी में कूदा था, वहीं डिम्भक भी कूद पड़ा। उसने यमुना की जलराशि को मथ डाला। क्रोध में भरा हुआ डिम्भक उस जल में चक्कर लगाकर सहसा गोता लगाता और ऊपर को निकल आता था। इस प्रकार बारम्बार डुबकी लगाने पर भी उसने अपने पराक्रमशाली भाई को वहाँ नहीं देखा। तब बलवानों में श्रेष्ठ महाबाहु डिम्भक जल से ऊपर आकर वासुदेव श्रीकृष्ण को सामने देख उनसे इस प्रकार बोला –‘अरे गोपपुत्र! वह हंस कहाँ है?’ धर्मात्मा वासुदेव ने भी उत्तर दिया–‘नीच नरेश! यमुनाजी से पूछ’। प्रतापी वासुदेव ने जब प्रसन्नचित्त होकर इस प्रकार कहा, तब भ्रातृवत्सल डिम्भक ने उनकी बात सुनकर पुनः यमुना में प्रवेश किया और नाना प्रकार से अपने भाई की खोज करके भ्रान्तचित्त हुआ वह राजा विलाप करने लगा। इस बन्धुहीन डिम्भक को छोड़कर कहाँ जा रहे हो? भैया! मुझे यहीं छोड़कर यहाँसे कहाँ चले जा रहे हो ?’इस प्रकार विलाप करके भ्रातृवत्सल डिम्भक ने यमुनाजी के महान् कुण्ड में अपने शरीर को त्याग देनेका विचार किया। सहसा गोता लगाकर वह जल से ऊपर को उठा और मरने का निश्चय करके बारम्बार विलाप करने के पश्चात् स्वयं दुःसाहस करनेवाला वह डिम्भक हाथ से जिह्वा को जड़सहित बाहर खींचकर जल के भीतर मर गया। उसका यह दुर्मरण नरककी प्राप्ति करानेवाला था।
इस प्रकार पराक्रमशाली हंस और डिम्भक के मारे जानेपर कमलनयन श्रीकृष्ण सम्पूर्ण भूतों को विस्मय में डालते हुए – से लौट आये। इससे प्रीतियुक्त और प्रसन्नचित्त हुए प्रतापी भगवान् वासुदेवने बलभद्रजीके साथ गोवर्धन पर्वतपर विश्राम करके अपने पूर्वभुक्त स्थानपर कुछ कालतक निवास किया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत भविष्यपर्व में हंस और डिम्भक का मरणविषयक अध्याय पूरा हुआ ॥
आशा है कि आपको इस कथा को पढ़ने में आनंद आया होगा।
इस सम्पूर्ण कथा में समलैंगिकता का कहीं भी उल्लेख नहीं है।
श्रीहरि आप सबका कल्याण करें 🙏