श्वेता पुरोहित। गोवर्धन पर्वत के समीप हंस और डिम्भक के साथ यादवों का युद्ध, श्रीकृष्ण द्वारा भूतेश्वरों की पराजय तथा श्रीकृष्ण और हंस का घोर युद्ध
वैशम्पायनजी कहते हैं – तदनन्तर वे दोनों भाई हंस और डिम्भक रात में ही एक साथ महागिरि गोवर्धन पर्वत को चल दिये। जब निर्मल प्रभातकाल आनेपर सूर्यदेव का उदय हुआ, तब के शिहन्ता भगवान् केशव भी शीघ्रता पूर्वक गोवर्धन पर्वत की ओर चले। सात्यकि, बलभद्र और सारण आदि यादव भी गन्धर्वों और अप्सराओं के नाना प्रकार के गीतों से निनादित गोवर्धन पर्वत पर गये। वे सब लोग एक साथ गोवर्धन पर्वत पर जा पहुँचे। वह पर्वत गोधनों और सेनाओं के नाना प्रकार के शब्दों से प्रतिध्वनित हो रहा था।
जब यादव उस पर्वत के उत्तर तटपर पहुँच गये, तब यमुना के निकट पुनः युद्ध आरम्भ हुआ। वसुदेव ने सात बाणों से हंस और डिम्भक को घायल कर दिया। सारण ने पच्चीस और कङ्कने दस बाण मारे। इस प्रकार हंस और डिम्भक के साथ यादवों का सब ओर से युद्ध छिड़ गया। उग्रसेन ने झुकी हुई गाँठ वाले तिहत्तर बाण मारे। विराट ने तीस, सात्यकि ने सात, विपृथु ने अस्सी तथा उद्धव ने दस बाणों का प्रहार किया। प्रद्युम्न ने तीस, साम्ब ने सात और अनाधृष्टि ने झुकी हुई गाँठ वाले इकसठ बाणों द्वारा शत्रुओं को घायल कर दिया।इस प्रकार वे समस्त यादव एक साथ होकर उत्साह सम्पन्न पुरुष की भाँति अत्यन्त अद्भुत और महाघोर युद्ध करने लगे।
भगवान् श्रीकृष्ण के देखते-देखते समस्त यादवों ने हंस और डिम्भक के साथ महान् युद्ध छेड़ दिया। दोनों भाई हंस और डिम्भक ने भी उन समस्त यादव नरेशों को अपने बाणों द्वारा घायल कर दिया। उन दोनों ने तेज धारवाले चमचमाते हुए दस-दस बाणों द्वारा प्रत्येक को घायल करके पैंने बाणों से समस्त यादवेश्वरों को गहरी चोट पहुँचायी। उन बाणों से व्यथित हो ये सब-के-सब मुँह से बहुत-सा रक्त वमन करते हुए वसन्त ऋतु में खिले हुए पलाशवृक्षों के समान शोभा पाने लगे। उस समय यादव-सैनिक भयभीत होकर भागने लगे।
इसी बीच में वसुदेव के पुत्र भगवान् श्रीकृष्ण और हलधर बलराम धनुष हाथ में लिये युद्ध के मुहाने पर उन दोनों के सामने आकर उसी तरह अनुपम संग्राम करने लगे, जैसे इन्द्र और कार्तिकेय आकाश में खड़े होकर असुरों से युद्ध करते हैं। उस समय विमानों पर बैठे हुए गन्धर्व, सिद्ध, यक्ष और महर्षि देवासुर-संग्राम के समान उन दोनों का युद्ध देखने लगे।
तदनन्तर वहाँ युद्ध में उन दोनों बलवान् वीर हंस और डिम्भक की रक्षा करनेञके लिये महादेवजी के भेजे हुए वे दोनों भूतेश्वर दूत प्रकट हुए। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण और हंस दोनों सामर्थ्यशाली वीर एक – दूसरे के साथ युद्ध करने लगे। उधर बलराम और – डिम्भक भी युद्ध करने की इच्छा से परस्पर उलझ गये। ये सब-के-सब अस्त्र, शस्त्र और बल में पराक्रमी थे। इन सब ने अपने-अपने रथ में स्थित होकर पृथक् पृथक् शङ्ख बजाना आरम्भ किया। तदनन्तर इन्द्रियों के प्रेरक कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने सबको विस्मय में डालते हुए-से महान् शब्द करने वाले पाञ्चजन्य शङ्ख को बजाया।
इतने में ही लम्बे पेट और विशाल शरीर वाले उन महाभयंकर भूतों ने शूल लेकर भगवान् श्री कृष्ण पर आक्रमण किया। उन दोनों ने यादवेश्वर श्रीकृष्ण पर एक साथ ही शूल से प्रहार किया। देवताओं और गन्धवों के समीप उन दोनों के आघात से आहत हो भगवान् श्रीकृष्ण के अधरपर मन्द मुसकान की छटा बिखर गयी। वे रथियों में श्रेष्ठ भगवान् जनार्दन कुछ उछलकर तुरंत रथञसे कूद पड़े और दोनों भूतेश्वरों को पकड़कर उन्हें अलातचक्र के समान सौ बार घुमाने के पश्चात् उन केशव हरि ने कैलास पर्वत की ओर फेंक दिया। वे दोनों कैलास पर्वत के शिखर पर पहुँचकर भगवान् श्रीकृष्ण का वह पराक्रम देख बड़े विस्मय में पड़ गये। श्रीकृष्ण का वह कर्म देखकर हँस के बड़े-बड़े नेत्र रोष से लाल हो गये।
उसने समस्त देवताओं के सुनते हुए यह बात कही – केशव! हमारे राजसूय यज्ञ में क्यों विघ्न डाल रहे हो? महाराज ब्रह्मदत्त उस महायज्ञ का अनुष्ठान करेंगे। यदि अपने प्राणों की रक्षा चाहते हो तो उसमें यथायोग्य कर दो। ‘अथवा नन्दपुत्र! तुम क्षण भर मेरे सामने खड़े रहो, फिर मेरी श्रेष्ठता को जानकर स्वयं ही बहुत-सा कर प्रदान करोगे; फिर मेरे पिता यज्ञ का आरम्भ करेंगे। जैसे देवताओं के ईश्वर शूलधारी महादेव हैं; उसी प्रकार सदा समस्त राजाओं का ईश्वर मैं हूँ। इस युद्ध में मैं तुम्हारे अनुपम बल को अभी नष्ट किये देता हूँ। ऐसा कहकर हंस ने शाल और ताल के समान विशाल धनुष और बाण ले उसे बलपूर्वक खींच कर उस नाराच के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण के ललाट में प्रहार किया। वह नाराच उनके लिये मनोहर आभूषण-सा प्रतीत हो रहा था।
तब भगवान् श्रीकृष्ण ने सात्यकि से कहा – प्रभावशाली वीर ! तुम मेरा रथ हाँको।’ भगवान्ने जब सात्यकि को इस प्रकार आदेश दिया, तब वे दारुक को पीछे करके उस स्थान पर बैठकर उनका रथ हाँकने लगे। सात्यकि ने युद्धस्थल में शीघ्रतापूर्वक रथ के बहुत-से पैंतरे दिखाये। उधर हंस के बाण से गहरी चोट खाकर अविनाशी भगवान् श्रीकृष्ण ने किसी बाण पर आग्नेयास्त्र का आधान करके सात्यकि को रणभूमि में आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करते हुए हंससे कहा – ‘पापी ! शठ! मैं इस बाण से तुझे अभी दग्ध किये देता हूँ, यदि शक्ति हो तो इसे रोक। अब तेरे लिये बहुत-सी असङ्गत बातें बकने से कोई लाभ न होगा। तू क्षत्रिय है, सदा अपने कर्तव्य का पालन कर यदि मुझसे कर लेना चाहता है तो आज दिखा अपना पराक्रम! हंस! तूने पुष्कर में रहनेवाले यतियों को सताया है।
नराधम! मैं इस सम्पूर्ण जगत्का ईश्वर हूँ। तू मेरे रहते ब्राह्मणों पर शासन करता है। मैं तुझ-जैसे क्षत्रियरूपी कण्टकों का वध करके सत्पुरुषों के जगत्में ब्रह्मद्रोही दुष्टों का शासन करनेवाला हूँ। नराधम! तू मुख्य-मुख्य यतियों के शाप से ही मर चुका है। आज तुझे मृत्यु के हवाले करके मैं ब्राह्मणों की रक्षा करूंगा’। ऐसा कहकर भगवान् श्रीकृष्ण ने युद्धमें हंस पर उस आग्नेयास्त्र को छोड़ दिया; तब हंस ने भी वारुणास्त्र से उस अस्त्र का निवारण कर दिया। यह देख गोविन्दने रणभूमि में हंस पर वायव्यास्त्र चलाया, किंतु नृपश्रेष्ठ हंसने माहेन्द्रास्त्र से उसका वारण कर दिया। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण ने युद्धस्थल में अत्यन्त भयंकर माहेश्वरास्त्र का प्रयोग किया, परंतु हंस ने रौद्रास्त्र द्वारा तत्काल उसका निवारण कर दिया। तब श्रीकृष्ण ने लगातार गान्धर्व, राक्षस और पैशाच अस्त्र छोड़े (पूर्वोक्त माहेश्वर अस्त्र को लेकर ये चार हुए)। माधव के उन चारों अस्त्रों का निवारण करने के लिये हंस ने युद्धस्थल में तुरंत ही ब्रह्मास्त्र, कौबेरास्त्र, आसुरास्त्र और याम्यास्त्र – ये चार अस्त्र
छोडे। तदनन्तर देवाधिदेव जनार्दन ने ब्रह्मशिर नामक महान् विनाशकारी भयानक अस्त्र हंस पर छोड़ा। उन्होंने महान् एवं घोर पराक्रमवाले उस अस्त्र का हंस के लिये ही प्रयोग किया था। उस महाभयंकर अस्त्रको देखकर नृपश्रेष्ठ हंस भयभीत हो उठा; फिर उसने भी उसी अस्त्र से उस बाणका वारण किया। तदनन्तर सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति और पालन करनेवाले भूतात्मा देवाधिदेव जनार्दन हरि ने यमुनाजी के जलका आचमन करके एक तीखे बाणपर वैष्णवास्त्र की संयोजना की।
पूर्वकाल में देवताओं ने रणभूमि में जिसके द्वारा असुरों का वध करके अपना राज्य प्राप्त किया था, उसी अस्त्र का राजा हंस के वध के लिये श्रीकृष्ण ने प्रयोग किया।
शेष अगले भाग में…
कल हम इस कथा का अंतिम भाग पढ़ेंगे।
जय श्री हरि